भारतीय संतों की छुपी योगिक शक्तियाँ: एक रहस्यमयी यात्रा

क्या हो अगर मैं आपसे कहूँ कि प्राचीन भारतीय संत ऐसी क्षमताएँ रखते थे जो हमारी कल्पना से परे हैं? ज़रा सोचिए – ऐसे योगी जिन्होंने साधना के बल पर पंचतत्वों पर नियंत्रण पा लिया, असाध्य रोगों को चंगा कर दिया, यहाँ तक कि समय और स्थान की सीमाओं को लाँघ दिया। इस लेख में हम इन्हीं छुपी हुई योगिक शक्तियों की रहस्यमयी दुनिया में गहराई तक उतरेंगे और सदियों पुराने ज्ञान से परदा उठाएँगे।

सदियों से ऐसी कथाएँ फुसफुसाहट बनकर चली आ रही हैं कि कुछ भारतीय संतों के पास ऐसी शक्तियाँ थीं जो आज के विज्ञान को चुनौती देती हैं। हवा में लेविटेशन (उड़ना), चमत्कारिक उपचार, अद्भुत सहनशीलता और दीर्घायु – इन रहस्यमयी घटनाओं के पीछे छिपे आश्चर्यजनक सत्य क्या हैं? और आधुनिक युग में भी इन प्राचीन परंपराओं की प्रासंगिकता क्यों बरकरार है? आइए, इन सवालों के जवाब खोजने के लिए आध्यात्मिक रहस्यों की इस यात्रा पर चलें।

योगिक सिद्धियाँ: प्राचीन ग्रंथों में वर्णित शक्तियाँ

भारतीय योग-परंपरा में प्राचीन काल से योग-सिद्धियों (अलौकिक शक्तियों) का उल्लेख मिलता है। पतंजलि के योगसूत्र और अन्य ग्रंथों के अनुसार गहन साधना से साधक कुछ ऐसी दिव्य क्षमताएँ प्राप्त कर सकता है जिन्हें सिद्धि कहते हैं। उदाहरण के लिए, संस्कृत में अणिमा, महिमा, लघिमा, गरिमा, प्राप्ति, प्राकाम्य, ईशित्व और वशित्व जैसी आठ प्रमुख सिद्धियों का वर्णन है, जिनसे योगी अपना आकार छोटा-बड़ा कर सकते हैं, भारहीन होकर उड़ सकते हैं, दूर की वस्तुएँ ला सकते हैं, इत्यादि। ऐतिहासिक रूप से अनेक सिद्ध महापुरुषों के बारे में कहा जाता है कि उन्होंने ऐसी शक्तियाँ प्रदर्शित कीं – मरे हुए को जीवन देना, हवा में उड़ना, पत्थर को सोना बना देना आदि। हालाँकि, इन शक्तियों को हासिल करने के पीछे सालों की तपस्या और तत्वों पर अधिकार माना गया है। महान योगियों ने प्रायः इन शक्तियों को गुप्त रखा और आगाह किया है कि इनका दुरुपयोग संभव है, इसलिए शास्त्रों में इन्हें सांकेतिक भाषा में छुपाकर वर्णित किया गया है। स्वयं अनेक संतों ने सिद्धियों को साधना का लक्ष्य नहीं बल्कि मार्ग की परीक्षा बताया – उनका मानना था कि परम सत्य की प्राप्ति से भटकाने के लिए ये शक्तियाँ बीच में आती हैं। फिर भी, जब कभी मानव इतिहास में इन सिद्ध योगियों ने अपनी क्षमताओं की झलक दिखाई, वह जनसामान्य के लिए आश्चर्य और श्रद्धा का विषय बन गई।

आइए अब भारत के कुछ प्रसिद्ध संतों और योगियों की कथाओं को लोकप्रिय शैली में जानें, जिनके बारे में माना जाता है कि उन्होंने अद्भुत योगिक शक्तियाँ प्राप्त की थीं। हम देखेंगे कि उनकी इन चमत्कारात्मक घटनाओं के पीछे कैसी आध्यात्मिक साधना और संदेश छिपा है।

रामकृष्ण परमहंस: भक्ति से प्राप्त दिव्य विभूतियाँ

उन्नीसवीं शताब्दी में बंगाल के महान संत श्री रामकृष्ण परमहंस गहरी भक्ति और भावसमाधि के लिए विख्यात हैं। उन्होंने सिद्धियों को कभी अहमियत नहीं दी, परंतु उनके जीवन में घटित कुछ घटनाएँ भक्तों द्वारा चमत्कार की तरह वर्णित हैं। कथा है कि रामकृष्ण के भक्त माधुर बाबू की पत्नी जगदंबा एक प्राणघातक बीमारी से ग्रस्त थीं। माधुर बाबू ने व्याकुल होकर रामकृष्ण से प्रार्थना की और आश्चर्यजनक रूप से जगदंबा उस बीमारी से स्वस्थ हो गईं। इसी प्रकार माधुर बाबू स्वयं एक गंभीर कानूनी संकट से बच निकले जब उन्होंने अपने “बाबा” रामकृष्ण को पुकारा – भक्तों का विश्वास था कि गुरु की कृपा से न्यायालय में विपरीत फैसला भी टल गया।

रामकृष्ण की एक अलौकिक घटना उनके अनेक शिष्यों ने दर्ज की है: द्विभवन दर्शन (bi-location)। प्रसिद्ध भक्त विजयकृष्ण गोस्वामी ने एक बार ढाका (वर्तमान बांग्लादेश) में रामकृष्ण को साक्षात देखा और उनके चरण स्पर्श किए, जबकि उसी समय रामकृष्ण शारीरिक रूप से कोलकाता के दक्षिणेश्वर मंदिर में विराजमान थे| इस घटना को भक्तजन गुरु की योगशक्ति का प्रमाण मानते थे, जहाँ रामकृष्ण एक साथ दो स्थानों पर प्रकट हुए। रामकृष्ण की एक और लीला का वर्णन मिलता है जिसमें उनकी कृपा से ईसा मसीह के भक्त को काली माँ की मूर्ति में प्रभु यीशु के दर्शन हुए। हुआ यूँ कि एक ईसाई अध्यापक विलियम (या “विलियम्स”) रामकृष्ण से मिलने आए और उन्होंने आग्रह किया कि “हमारे यीशु ने कई चमत्कार किए, कृपा कर कुछ चमत्कार दिखाएँ।” रामकृष्ण ने मुस्कुराते हुए कहा, “पहले तुम दूर से मेरी माँ काली के दर्शन करके आओ।” जब विलियम ने मंदिर में झाँककर देखा तो दंग रह गए – उन्हें काली माँ की प्रतिमा में अपने यीशु मसीह की छवि दिखाई दी! यह देखते ही वे भाव-विभोर होकर रोने लगे। बाद में रामकृष्ण ने कहा, “क्या अब समझ पाए कि तुम्हारे यीशु और मेरी काली एक ही हैं?” इस प्रकार रामकृष्ण ने उनके हृदय से भेदभाव मिटा दिया। इस घटना के बाद विलियम ने संसार त्यागकर हिमालय में साधना करते हुए शेष जीवन बिताया, ऐसा उल्लेख मिलता है।

रामकृष्ण परमहंस अपनी दृष्टि या स्पर्श मात्र से शिष्य के भीतर आध्यात्मिक जागरण कर देते थे – शक्ति-संचार की यह क्षमता उनकी प्रमुख “सिद्धि” थी। कई शिष्यों ने अनुभव किया कि रामकृष्ण का हाथ छूते ही उनमें दिव्य अनुभव होने लगते थे, कुण्डलिनी शक्ति जाग्रत हो जाती थी। स्वयं स्वामी विवेकानंद (तब नरेंद्रनाथ) को रामकृष्ण ने एक स्पर्श से निर्विकल्प समाधि का अनुभव करा दिया था। लेकिन रामकृष्ण ने कभी इन चमत्कारों का दिखावा नहीं किया। वे कहते थे, “सिद्धियाँ साधक के मार्ग की बड़ी बाधा हैं; ईश्वर-प्राप्ति ही एकमात्र ध्येय होना चाहिए।” एक प्रसंग में तो उन्होंने अपने प्रिय शिष्य नरेंद्र को सिद्धियाँ प्रदान करने की पेशकश की, जिसे नरेंद्र ने यह पूछकर टाल दिया कि “क्या इनसे परमात्मा मिल जाएंगे?” रामकृष्ण बेहद प्रसन्न हुए और बोले, “तुम ठीक कहते हो, इन शक्तियों का क्या करना जिन्हें पाना साधना का मकसद नहीं है।” इस तरह, रामकृष्ण ने सिद्धियों के प्रति अनासक्ति सिखलाई, पर भक्तों के लिए वे जीवन भर चमत्कार से कम न थे – प्रेम, करुणा और ईश्वरभाव के चमत्कार।

गुरु गोरखनाथ: नाथ योगी की चमत्कारिक कथाएँ

भारत की सिद्ध परंपरा में नाथ योगियों का नाम बड़े आदर से लिया जाता है, और इनमें बाबा गोरखनाथ प्रमुख हैं। गोरखनाथ मध्ययुग के महान योगी थे, जिन्हें हठयोग तथा नाथ संप्रदाय का संस्थापक माना जाता है। जनमानस में गोरखनाथ के कई चमत्कारिक किस्से प्रचलित हैं। कहा जाता है कि कठोर तप और सिद्धि से गोरखनाथ ने असाधारण शक्तियाँ अर्जित की थीं – वे मरे हुए को जीवित कर सकते थे, भूमि से कई फीट ऊपर हवा में उठ जाते थे, और पत्थर जैसी कठोर वस्तु को सोने में रूपांतरित कर देते थे। अपने गुरु मत्स्येंद्रनाथ (मछंदरनाथ) की कृपा से उन्हें अकल्पनीय सिद्धियाँ प्राप्त थीं। लोककथाओं में मिलता है कि गोरखनाथ ने योगबल से वर्षा करा दी थी, जब एक बार भयंकर सूखे से जनता त्राहि-त्राहि कर रही थी। कहते हैं, उन्होंने भूमि पर लकड़ी गाड़कर पानी बहा दिया था, जिससे सूखे क्षेत्र हरे-भरे हो गए। एक अन्य प्रचलित कथा अनुसार, गोरखनाथ के पास एक यक्षिणी (आधिदैविक शक्ति) थी जिसकी सहायता से वे किसी के बारे में कुछ भी जान सकते थे, ओलों की वर्षा या तूफ़ान ला सकते थे। लेकिन बाद में गोरखनाथ ने इन चमत्कारों का मोह त्यागकर भगवान की भक्ति को सर्वोपरि बताया।

गुरु गोरखनाथ के चमत्कारों में दूरस्थ दर्शक (teleportation) और दीर्घायु भी चर्चित हैं। कई मान्यताओं के अनुसार उन्होंने अति दीर्घ आयु पाई – कुछ लोग उन्हें अमर योगी मानते हैं जो आज भी सिद्ध समाधि में लीन हैं। मध्यकाल में अलग-अलग स्थानों पर लोगों ने गोरखनाथ के दर्शन किए होने के दावे किए, मानो वे स्थान-स्थान पर प्रकट हो सकते हों। एक कथा के अनुसार गोरखनाथ ने अपने गुरु मत्स्येंद्रनाथ को पाताल से मुक्त कराने के लिए अद्भुत लीला रची। उन्होंने एक मृत स्त्री के शरीर में प्राण डालकर उसे जीवित किया और उसी के माध्यम से अपनी चरण रज से मत्स्येंद्रनाथ को अचेत जड़ अवस्था से होश में लाए। यह दुरूह कथा योगबल और भक्ति की पराकाष्ठा दिखाती है।

इतिहासकार मानते हैं कि गोरखनाथ सिद्ध योगी थे जिन्होंने योग के जरिए शरीर और मन पर असाधारण नियंत्रण पाया था। वे न केवल चमत्कार करते थे, बल्कि भारत भर में घूम-घूमकर लोगों को योग सिखाते और आध्यात्मिक ज्ञान बांटते थे। आज भी नेपाल और भारत में गोरखपुर से लेकर गोरख धंधा तक उनकी स्मृतियाँ लोकश्रुति में जीवंत हैं। भक्तजन उन्हें शिव का अवतार मानकर पूजते हैं। गोरखनाथ के जीवन से हमें यह संदेश मिलता है कि योग-साधना से चमत्कारिक शक्तियाँ पाना संभव है, पर उनका सार्थक प्रयोग वही है जो लोक कल्याण और ईश्वरीय प्रेम के लिए हो।

तैलंग स्वामी: वाराणसी के “चलते-फिरते शिव”

वाराणसी की पवित्र धरती हमेशा से सिद्ध संतों की लीला-भूमि रही है। उन्नीसवीं शताब्दी में यहाँ एक अद्भुत योगी हुए जिन्हें लोग प्यार से तैलंग स्वामी कहते थे। स्वामी तैलंग (Trailanga Swami) को उनके असामान्य जीवनकाल और शक्तियों के कारण “वाराणसी का जीवित शिव” भी कहा जाता था। मान्यताओं के अनुसार वे लगभग 280 वर्ष तक जीवित रहे – जन्म आंध्र प्रदेश में 1607 में और महासमाधि 1887 में, यह कालखंड हैरान करने वाला है। ऐसा माना जाता है कि लंबे जीवन के साथ-साथ तैलंग स्वामी ने कई चमत्कार दिखाए और अनेकों को आध्यात्मिक मार्गदर्शन दिया।

तैलंग स्वामी अधिकांश समय वाराणसी के घाटों पर नग्न अवस्था में विहार करते थे, बालक-से निर्मल और पूर्णतया समाधिस्थ। कहते हैं, उन्होंने कभी बहुत अल्पाहार किया पर उनका शरीर 140 किलोग्राम से भी अधिक वज़नी था – मानो योगबल से वे अपने शरीर को इच्छानुसार धारण करते हों। उनकी कुछ अद्भुत घटनाएँ तो अंग्रेज़ अफ़सरों के रिकॉर्ड में भी दर्ज हैं। तैलंग स्वामी को अकसर लोग गंगा नदी पर घंटों, यहां तक कि दिनों तक तैरते या पानी की सतह पर पद्मासन लगाए बैठे देखते थे। कई प्रत्यक्षदर्शियों ने बताया कि वे ध्यानमग्न होकर गंगा पर बैठे रहते, मानो जल उन्हें धारण किए हुए है, और फिर कभी-कभी लंबे समय के लिए जल में डूब भी जाते मगर डूबते नहीं थे।

ब्रिटिश शासन के दौरान उनकी ख्याति चमत्कारी योगी की हो चली थी। एक बार कुछ संशयवादी अंग्रेज़ अधिकारियों ने तैलंग स्वामी को ठग सिद्ध करने की ठानी। उन्होंने स्वामीजी को पकड़कर उनपर ज़हर से भरा एक बाल्टी (चूने के घोल वाला घड़ा) पीने का दबाव डाला। तैलंग स्वामी सहज भाव से पूरा घड़ा पी गए और उन्हें कुछ भी नहीं हुआ! यह देख वे अधिकारी हक्के-बक्के रह गए। किंवदंती है कि इसके बाद स्वामीजी ने पहली बार अपना मौन तोड़ा और कर्म के नियम पर संक्षिप्त प्रवचन दिया, तो उसी क्षण वह ज़हरीला असर उन अविश्वासी लोगों पर हो गया जिन्होंने उन्हें चुनौती दी थी – वे दर्द से छटपटाने लगे, जबकि स्वामी पूर्णतः अप्रभावित रहे। यह घटना उनके “प्रतिकार शक्ति” और कर्म सिद्धांत की जीवंत मिसाल बन गई।

तैलंग स्वामी के बारे में ऐसे कई किस्से प्रचलित हैं – कहा जाता है कि उन्होंने विष को अमृत बना दिया, जल पर चल सके, दूरस्थ की बातें जान लीं। वाराणसी में लोगों ने देखा कि पुलिस उनके नग्न विचरण से परेशान होकर उन्हें पकड़ लेती, पर हर बार आश्चर्यजनक रूप से वे जेल से गायब होकर छत पर योगासन में बैठे मिलते! स्थानीय जन उन्हें शिव का अवतार मानने लगे थे। स्वामीजी का जीवन अहिंसा, सरलता और परम वैराग्य का आदर्श था। वे दिन भर ध्यान में लीन रहते या मौन घूमा करते। अपनी सिद्धियों का उन्होंने कभी दिखावा नहीं किया; उलटे साधारण जन को ईश्वर-भक्ति और सदाचार का संदेश देते थे।

1887 में उन्होंने काशी में ही अंतिम सांस (महासमाधि) ली। उनके अस्थि-भस्म का विलोपन गंगा में किया गया, और मान्यता है कि स्वयं माँ गंगा में उनका विलय हो गया। तैलंग स्वामी की विरासत आज भी हिंदू संत परंपरा में जीवित है। उनकी कहानी हमें दिखाती है कि कठोर योग-साधना मनुष्य को ऐसी अनिर्वचनीय क्षमताओं तक पहुँचा सकती है जहाँ ज़हर भी अमृत बन जाता है और प्रकृति के नियम स्नेहपूर्वक साधक की रक्षा करते हैं।

महावतार बाबाजी: हिमालय के अमर गुरु की गाथा

योगानंद की प्रसिद्ध पुस्तक “Autobiography of a Yogi” (एक योगी की आत्मकथा) के माध्यम से पश्चिमी जगत ने महावतार बाबाजी के नाम से एक चिरंजीवी योगी के बारे में जाना, जिनका अस्तित्व रहस्य और श्रद्धा में डूबा हुआ है। महावतार बाबाजी को योगियों की परंपरा में एक महान अवतार माना जाता है, जिन्होंने हज़ारों वर्षों से अपना भौतिक शरीर संभाल रखा है। कहा जाता है कि वे हिमालय की दुर्गम घाटियों में अपने कुछ शिष्यों के साथ निवास करते हैं और युगों-युगों तक मानव कल्याण के लिए कार्य करते आए हैं। उनका वर्णन आता है कि वे दिखने में सदैव युवा, 25 वर्ष के नवयुवक जैसे हैं – उनके शरीर पर आयु का कोई चिह्न नहीं, तेजस्वी आभा से युक्त सुडौल शरीर, घनी तांबई केशराशि और शांति एवं प्रेम से भरी हुई आँखें। वे सचमुच “जन्म-मृत्यु” के चक्र से ऊपर उठ चुके सिद्ध पुरुष हैं; ऐसे अमर योगी को हिंदू दर्शन में कायारूपी भगवान के अवतार की संज्ञा दी गई है।

महावतार बाबाजी की सबसे विस्मयकारी सिद्धियों में है – अदृश्य हो जाना और इच्छानुसार प्रकट होना। योगानंदजी लिखते हैं कि बाबाजी और उनके सहयोगी संत इच्छा से अदृश्य हो सकते हैं और एक स्थान से दूसरे स्थान पर प्रकट हो जाते हैं। बाबाजी अक्सर अपने छोटे-से शिष्य-मंडल के साथ एक पहाड़ से दूसरे पहाड़ तात्कालिक रूप से खिसक जाते हैं; उनके शब्द होते हैं “डेरा डंडा उठाओ” और पल में उनका पूरा शिविर किसी अन्य दुर्गम शिखर पर दिखाई देने लगता है। कभी-कभी वे पैदल भी चलते हैं, पर अधिकतर वे सूक्ष्म यात्रा (astral travel) द्वारा एक क्षण में दूरी तय कर लेते हैं। उन तक केवल वही पहुंच सकते हैं जिन्हें वे स्वयं बुलाना चाहें। उनकी एक और सिद्धि है रूप परिवर्तन – अलग-अलग भक्तों को वे भिन्न स्वरूपों में दर्शन दे सकते हैं। कभी वे दाढ़ी-मूंछ वाले तपस्वी के रूप में प्रकट होते हैं तो कभी कोमल मुख-मुद्रा वाले तेजस्वी युवक के रूप में। कहते हैं, उन्होंने दो अमेरिकियों को भी उच्च योगी बनाकर अपने साथ रखा है, और समय-समय पर विश्वभर में चुनिंदा आत्माओं को प्रेरणा देते हैं।

बाबाजी के संबंध में कई चमत्कारिक दंतकथाएँ प्रचलित हैं। एक प्रसिद्ध कथा है कि उनके आह्वान पर हिमालय में लाहिड़ी महाशय को एक रात स्वर्णिम महल प्रकट हुआ – उसके अंदर विलासिता का हर सामान था – और अगली प्रातः बाबाजी ने कहा यह सब माया था, और वह महल पल भर में अदृश्य हो गया। यह उन्होंने लाहिड़ी महाशय की पुरानी वासनाओं का परीक्षण करने को किया था, ताकि शिष्य सांसारिक लालसा से पूर्णतः मुक्त हो जाए। एक दूसरी घटना में लाहिड़ी महाशय के एक शिष्य रामगोपाल को बाबाजी के दर्शन की तीव्र लालसा हुई। वे अधीर होकर हिमालय की ओर निकल पड़े लेकिन रास्ते में गिरकर घायल हो गए। तभी अचानक बाबाजी साक्षात प्रकट हुए, उन्हें न केवल ठीक किया बल्कि आशीष देकर वापस जाने को कहा – “अभी समय नहीं आया है।” रामगोपाल ने अनुभव किया कि बाबाजी की कृपा उन्हें मृत्यु के मुख से लौटा लाई। ऐसा कहा जाता है कि बाबाजी ने ईसा मसीह से भी पारलौकिक स्तर पर संपर्क किया और दोनों ने मिलकर वर्तमान युग में मानवता के उत्थान की योजना बनाई। बाबाजी हर धर्म के सत्य का सम्मान करते हैं – उन्होंने आदि शंकराचार्य और मध्यकाल के संत कबीर को भी योग दीक्षा दी थी।

महावतार बाबाजी की उपस्थिति एक दैवीय पहेली है। उनके बारे में कोई ऐतिहासिक अभिलेख नहीं, कोई निश्चित विवरण नहीं – पर फिर भी वे भारत की संत परंपरा में अत्यंत महत्त्वपूर्ण अध्याय हैं। योगानंद लिखते हैं कि बाबाजी प्रचार से दूर रहकर अज्ञात रहना ही चुनते हैं। वे अपने शिष्यों को भी निर्देश देते हैं कि उनके बारे में अधिक प्रकाशित न करें। शायद इसी कारण आम लोग उनके नाम से उतने परिचित नहीं, लेकिन योग-साधक समुदाय में वे आदरपूर्वक स्मरण किए जाते हैं। लाहिड़ी महाशय ने एक बार कहा था, “जो भी श्रद्धापूर्वक बाबाजी का नाम लेता है, उसे तत्काल आध्यात्मिक आशीर्वाद मिलता है”। बाबाजी के प्रति भक्तों का यही विश्वास है कि वे अदृश्य रहकर भी सभी सincere साधकों का कल्याण करते हैं।

महावतार बाबाजी की गाथा यह दर्शाती है कि मानव चेतना की पराकाष्ठा क्या हो सकती है – अमरत्व, सर्वव्याप्ति और अनुकंपा। वे किसी एक धर्म या संप्रदाय तक सीमित नहीं; उन्हें विश्व-गुरु कहा जाता है जो पूर्व और पश्चिम के बीच आत्मिक सेतु बनकर कार्य कर रहे हैं। उनकी छवि से यह संदेश मिलता है कि ईश्वर-प्राप्ति के मार्ग पर साधक को सिद्धियाँ स्वतः प्राप्त हो सकती हैं, पर सच्चा सिद्ध वही है जो इनका प्रयोग मानवता की सेवा और आध्यात्मिक उत्थान के लिए करे।

बाबा लोखनाथ ब्रह्मचारी: 160 वर्ष तक जीवित महायोगी

पूर्वी भारत, विशेषकर बंगाल में, बाबा लोखनाथ ब्रह्मचारी को एक दिव्य महापुरुष के रूप में पूजा जाता है। कहा जाता है कि बाबा लोखनाथ 1730 से 1890 तक, पूरे 160 वर्ष इस धरती पर रहे। उन्होंने अपना जीवन योग और तपस्या को समर्पित किया और अनेकों चमत्कारपूर्ण घटनाएँ उनकी जीवनी से जुड़ी हैं। एक लोकप्रचलित उक्ति है – “जो भी संकट में मुझे पुकारेगा, उसे मैं बचाऊँगा” – यह बाबा लोखनाथ का अपने भक्तों से किया वादा था। बंगाल में आज भी लाखों लोग मानते हैं कि कठिन समय में बाबा को स्मरण करने से अकल्पित सहायता मिल जाती है।

बाबा लोखनाथ का जन्म 1730 में कोलकाता के पास चौरील नामक गाँव में हुआ था। 11 वर्ष की आयु में वे गुरु भगवन गंगुली के साथ संन्यास लेकर घर छोड़ गए। युवा लोखनाथ ने 25 वर्षों तक घोर वनवासी जीवन जिया, योगशास्त्र और कठोर हठयोग का अभ्यास करते हुए। उनकी तपस्या का चरम यह था कि वे सात फुट लंबे, अत्यंत दुबले, नग्न बदन हिमालय की बर्फीली चोटियों पर पाँच दशक तक साधनारत रहे। उन्होंने नींद का त्याग कर दिया, कभी पलकों तक को नहीं झपकते थे। भीषण ठंड में बिना कपड़ों के, निराहार-निद्राहीन दशा में ध्यानमग्न रहना उनकी दिनचर्या थी। इस अतुलनीय तप के परिणामस्वरूप 90 वर्ष की आयु में उन्हें आत्म-साक्षात्कार की प्राप्ति हुई।

ज्ञानप्राप्ति के बाद बाबा लोखनाथ भ्रमण को निकले। वे अफगानिस्तान, फारस (ईरान), अरब, इसराएल तक पैदल यात्रा करते गए – तीर्थ एवं सूफ़ी संतों से मिलते हुए। तीन बार उन्होंने मक्का की तीर्थयात्रा भी की। अंततः 136 वर्ष की आयु में वे पूर्वी बंगाल (वर्तमान बांग्लादेश) के ढाका के पास बरदी नामक जगह पर स्थिर हुए। वहाँ एक संपन्न परिवार ने उनके लिए एक छोटा आश्रम बनवा दिया। आश्रम में आकर बाबा ने कमल का आसन (वहां उन्होंने वस्त्र धारण कर यज्ञोपवीत ले लिया) और शेष जीवन वहीं व्यतीत किया। इस वयोवृद्ध योगी के दर्शनों के लिए दूर-दूर से लोग आने लगे। उनके बारे में प्रसिद्ध था कि वे दर्शनार्थियों को आध्यात्मिक ज्ञान के साथ-साथ चमत्कारिक रूप से मदद भी प्रदान करते थे – “उन्होंने अपने शेष जीवन में सभी आगंतुकों को चमत्कार और दिव्य ज्ञान से अनुग्रहित किया”। अनेकों को उन्होंने असाध्य रोगों से मुक्ति दिलाई, किसी के खोए परिजन को दूर बैठे जान लिया, किसी को भविष्य की चेतावनी देकर हादसे से बचा लिया – ऐसे किस्से भक्तों में प्रचलित हैं।

1890 में ज्येष्ठ महीने की 19वीं तिथि को बाबा लोखनाथ ने अपने आश्रम में पद्मासन लगाकर शांतिपूर्वक प्राण त्याग दिए। उस क्षण उनकी आयु 160 वर्ष थी। अपनी मृत्यु से पहले उन्होंने कहा, “मैं शाश्वत हूँ, अमर हूँ। यह शरीर छोड़ने के बाद भी सबकुछ समाप्त न समझना। सूक्ष्म रूप में मैं सब जीवों के हृदय में जीवित रहूँगा। जो भी मेरी शरण आएगा, उसे मेरी कृपा मिलेगी।” उनकी भविष्यवाणी थी कि मृत्यु के सौ साल बाद दुनिया में उनका नाम घर-घर में गूंजेगा – और सचमुच 20वीं सदी के अंत तक बंगाल में बाबा लोखनाथ की पूजा व्यापक हो गई। आज बंगाल के प्रत्येक कोने में उनके मंदिर हैं, प्रत्येक हिन्दू परिवार की वे आराध्य प्रतिमा बन चुके हैं।

बाबा लोखनाथ की सबसे लोकप्रিয় लीला उनकी “संकटमोचक” छवि है। असंख्य कथाएँ हैं जहाँ कठिन परिस्थिति में लोगों ने उन्हें पुकारा और उन्होंने अदृश्य रूप में आकर रक्षा की। एक दृष्टांत अक्सर सुनाया जाता है: एक बार एक महिला घने जंगल में भटक गई, रात का समय, भयंकर ख़तरा था। उस भक्त ने बाबा को याद किया। कहते हैं बाबा स्वयं मार्गदर्शक साधु के रूप में प्रकट हुए और उसे सुरक्षित गाँव तक पहुँचा दिया। बाद में गाँव वालों ने जब उस साधु को ढूँढना चाहा तो वह कहीं नहीं मिला। ऐसी घटनाओं ने बाबा लोखनाथ को “चलते-फिरते भगवान” का दर्जा दिया।

बाबा लोखनाथ के जीवन से हमें दो शिक्षाएँ मिलती हैं: एक, कठिनतम योग-अनुष्ठान द्वारा मानवीय चेतना की सीमाओं का अतिक्रमण संभव है – ठंड, भूख, नींद जैसी शारीरिक आवश्यकताओं पर विजय पाई जा सकती है; और दो, सच्चे योगी अपने शुद्ध संकल्प से दूसरों के जीवन में चमत्कारिक परिवर्तन ला सकते हैं। लेकिन बाबा लोखनाथ ने हमेशा स्वयं को भगवान का दास और साधना का यंत्र ही माना, कभी अभिमान नहीं किया। उनका उपदेश सरल था: “सदैव भगवान पर अटूट विश्वास रखो, हर संकट में याद करो, वह तुम्हारी रक्षा करेगा।” उनके आश्चर्यजनक जीवन ने इस उपदेश को मूर्त रूप देकर दिखाया।

गंध बाबा: सूर्य-विज्ञान के सिद्ध योगी

बीसवीं सदी के प्रारंभ में बंगाल में एक अद्भुत सिद्ध योगी हुए – स्वामी विश्वुद्धानंद परमहंस, जिन्हें श्रद्धालु प्यार से “गंध बाबा” (Perfume Saint) कहते थे। उन्हें यह उपनाम इसलिए मिला क्योंकि कहा जाता है उनकी साधना से उनके नाभि केंद्र (मणिपुर चक्र) से सदा कमल-सा सुगंध प्रवाहित होता था। पर उनकी ख्याति केवल सुगंध तक सीमित नहीं थी – उन्होंने एक प्राचीन गुप्त विद्या “सूर्य-विज्ञान” दुनिया के सामने उजागर की, जिसके बल पर वे प्रकारांतर से पदार्थ की रचना और रूपांतरण कर सकते थे। गंध बाबा ने अपनी युवा अवस्था में योग-अध्ययन के लिए हिमालय के एक रहस्यमय आश्रम ग्यानगंज (शांभल या सिद्धाश्रम) में 12 वर्ष तक प्रशिक्षण लिया था। वहाँ उन्होंने सूर्य-विज्ञान, चंद्र-विज्ञान, वायु-विज्ञान, नक्षत्र-विज्ञान और ध्वनि-विज्ञान जैसे प्राचीन प्राकृतिक विज्ञानों में सिद्धि प्राप्त की। सूर्य-विज्ञान के माध्यम से वे सूर्य किरणों के सूक्ष्म उपयोग द्वारा भौतिक वस्तुओं का सृजन कर लेते थे – यह विद्या आज के विज्ञान के लिए भी अचरज है।

विश्वुद्धानंद जी के चमत्कारों की चर्चा परमहंस योगानंद ने भी अपनी आत्मकथा में की है। योगानंद उन्हें उसी गंध बाबा से जोड़ते हैं जिनसे उनकी मुलाकात बचपन में हुई थी। उन्होंने देखा कि गंध बाबा मात्र संकल्प से सुगंध पैदा कर देते थे: एक साधारण बिना गंध वाले फूल को हाथ में लेकर बोले “जैसी सुगंध चाहो” – शिष्य ने कहा गुलाब, तो तत्काल उस फूल से गुलाब की तीव्र महक आने लगी; फिर जब कहा चमेली, तो वही फूल चमेली की खुशबू बिखेरने लगा। योगानंद की बहन ने वह फूल लेकर खुद सूंघा तो दंग रह गई कि सचमुच गंध परिवर्तित हो गई थी। गंध बाबा कभी शब्द से, तो कभी जटिल विधियों से ये कार्य करते थे।

सबसे चमत्कारिक घटना जो योगानंदजी ने दर्ज की, वह है भोजन प्रकट करना। एक बार गंध बाबा के किसी भक्त ने विनोद में आग्रह किया कि “बाबा, ज़रा मौसम से बाहर के फल – संतरे – की व्यवस्था हो जाती तो मजा आता!” गंध बाबा मुस्कुराए और कहा, “हो जाये।” सामने केले के पत्तों पर परोसे लुचियों (पूड़ियों) के खोखे अकस्मात फूलकर उभर आए। जब मेहमानों ने उन पूड़ियों को खोला तो प्रत्येक के अंदर छिले हुए रसदार संतरे मौजूद थे – मानो हवा से प्रकट हो गए हों! सभी ने वह संतरा खाया, जो स्वाद में उत्तम था। योगानंद लिखते हैं कि बाद में उन्हें आंतरिक रूप से समझ आया कि गंध बाबा यह चमत्कार “लाइफ़ ट्रॉनों” (सूक्ष्म जीवन कणों) को नियंत्रित करके करते थे। उन्होंने अपने योगबल से प्रकृति के सूक्ष्म परमाणुओं को नए संयोग में संयोजित कर इच्छित वस्तु बना ली – यह कोई बाहरी जादू नहीं बल्कि सूक्ष्म विज्ञान था। गंध बाबा द्वारा बनाई गयी सुगंध और फल इंद्रजाल नहीं बल्कि वास्तविक भौतिक पदार्थ थे, यह कैमरे और प्रत्यक्षदर्शियों ने प्रमाणित किया था।

विश्वुद्धानंद परमहंस के करुणापूर्ण चमत्कार भी बहुतेरे थे। उनके एक शिष्य ने लिखा है: “बाबा मंत्र-जप, तपस्या और समाधि के निरंतर अभ्यास से अनेकों सिद्धियाँ अर्जित कर चुके थे। पर वे इनका उपयोग सदा मानवता के हित के लिए ही करते थे। जो भी पीड़ित या रोगी उनके पास आया, उन्होंने एक दया-दृष्टि या संकल्प मात्र से उसका कष्ट हर लिया। असंख्य लोग भयंकर रोगों से ठीक हुए सिर्फ उनकी कृपालु दृष्टि से या उनकी इच्छाशक्ति के संचार से।” उनके बारे में यह तक कहा जाता था कि “वे सादगी में बालक जैसे और ज्ञान में स्फिंक्स समान गूढ़ थे। उनकी छुवन से रुग्ण तन-मन पवित्र हो उठते थे, उनका स्पर्श जीव को आसमान तक उठा देता था”। जनसाधारण ने उनकी विभूतियों के कारण उन्हें देवता समान मान लिया था, लेकिन वे स्वयं परम विनम्र और निष्पृह योगी थे।

गंध बाबा का निधन 14 जुलाई 1937 को हुआ, पर उसके बाद भी उनकी लीलाएँ रुकी नहीं ऐसा भक्त मानते हैं। श्री یوक्तیش्वर गिरि जैसे गुरुओं ने उनकी प्रशंसा की कि “उनके चमत्कार देखने में भले ही तर्क से परे लगें, पर वे वास्तविक योग-सिद्धियाँ हैं।” पॉल ब्रंटन नामक ब्रिटिश पत्रकार ने अपनी पुस्तक “A Search in Secret India” (1936) में विश्वुद्धानंद जी का उल्लेख करते हुए लिखा: “बीसवीं सदी के सबसे प्रभावशाली योगियों में एक हैं श्री विश्वुद्धानंद परमहंस। इनके तथाकथित अवैज्ञानिक और तर्कहीन चमत्कार वस्तुतः प्रामाणिक योग-सिद्धियाँ हैं”। उन्होंने स्वयं गंध बाबा को एक मृत चिड़िया (गौरैया) को जीवित करते देखा था।

स्वामी विश्वुद्धानंद का जीवन यह दर्शाता है कि आध्यात्मिकता और विज्ञान किस तरह संगम पा सकते हैं। सूर्य-विज्ञान जैसे प्राचीन भारतीय ज्ञान आज रहस्य लग सकते हैं, पर उन्होंने दिखाया कि यदि मनुष्य चेतना के गहरे स्तरों को छू ले तो प्रकृति के मूलभूत नियमों के साथ खेलना संभव है। हालांकि, गंध बाबा ने भी अंततः अपने शिष्यों को यही सिखाया कि परम सिद्धि आत्म-साक्षात्कार है, न कि चमत्कारों का प्रदर्शन। योगानंद भी लिखते हैं – “गंध बाबा जैसे चमत्कारिक करतब दिखाने वाले प्रदर्शन दृश्य भले शानदार हों, पर अध्यात्म की दृष्टि से निरर्थक हैं अगर वे ईश्वर-प्राप्ति से भटका दें”। महान गुरुओं ने लोगों को चेताया है कि ऐसी शक्तियों का दिखावा आध्यात्मिक मार्ग से विचलित कर सकता है। स्वयं विश्वुद्धानंद जी अंततः हिमालय वापस चले गए थे, संभवतः अपना शेष जीवन गुप्त तप में लगाते हुए।

आनन्दमयी माँ: दिव्य आनन्द की मूर्ति और सिद्ध घटनाएँ

बीसवीं सदी के मध्यभाग में बंगाल से एक महान संत प्रकट हुईं जिन्हें संसार आनन्दमयी माँ के नाम से जानता है। आनन्दमयी माँ का जीवन निरंतर ईश्वरीय आनन्द (ब्रह्मानंद) से ओतप्रोत था। भक्तों ने उनमें चमत्कारिक शक्ति भी अनुभव की, यद्यपि माँ स्वयं किसी चमत्कार का दावा नहीं करती थीं। उनकी उपस्थिति मात्र से अनेकों लोगों के आध्यात्मिक जीवन में रूपांतरण आ गया। कहा जाता है कि आनन्दमयी माँ को पूर्वज्ञान (precognition) था – वे कभी-कभी ऐसी बातें बोल देती थीं जो बाद में सत्य साबित होतीं। उनके सान्निध्य में कई असाध्य रोग अपने-आप ठीक हो जाते थे – इसे भक्त उनकी कृपा से हुई चंगाई कहते थे। उदाहरणस्वरूप, कई लोग जिन्होंने मेडिकल इलाज से जवाब पा लिया था, माँ के चरणों में आकर बैठे और चमत्कारिक रूप से स्वस्थ होने लगे – ऐसे अनेक विवरण उनके आश्रम के दस्तावेज़ों में दर्ज हैं।

आनन्दमयी माँ के बारे में विशेष बात यह थी कि वे बिना किसी पारंपरिक गुरु के स्वयं सिद्ध थीं। बाल्यावस्था से ही उनमें अनूठे लक्षण प्रकट होने लगे थे। वे कीर्तन या मंत्रोच्चार सुनते ही समाधि में लीन सी हो जातीं, कभी खेलते-खेलते अचल खड़ी हो जातीं और “हरे राम, हरे राम” जपने लगतीं। किशोरावस्था में उनका विवाह तो हुआ, पर उन्होंने दांपत्य को योग का ही एक भाग बनाया – उनकी ब्रह्मचारी विवाह की कहानी प्रसिद्ध है कि जब भी पति के मन में दाम्पत्य भाव आता, आनन्दमयी माँ अचेतन-सी कठोर हो जातीं, मानो प्राण दे दिए हों, जिससे उनके पति को समझ में आ गया कि यह देवी सामान्य गृहस्थ जीवन के लिए नहीं आई हैं। धीरे-धीरे माँ हमेशा आध्यात्मिक उन्मेष में रहने लगीं। उनके शरीर से योग-मुद्राएँ और आसन स्वतः प्रकट होते थे बिना सीखे ही – जैसे, कभी अचानक उनके पैर पद्मासन में बंध जाते, हाथ योगमुद्रा में उठ जाते, और वे घंटे भर उसी स्थिर अवस्था में प्रसन्नचित्त बैठी रहतीं। इससे गाँव के लोग घबरा जाते, कुछ ने “हिस्टीरिया” कहा, पर बाद में सब समझ गए कि यह एक महापुरुष के लक्षण हैं।

आनन्दमयी माँ के जीवन में एक चर्चित प्रसंग उनकी दूरसंवेदना और सहायताशक्ति से जुड़ा है। एक बार बनारस (वाराणसी) में माँ अपने दो परिचारिकाओं के साथ थीं। अचानक माँ ने कहा – “चलो अभी सारनाथ चलते हैं।” सारनाथ वाराणसी से दूर था, उस समय कोई ट्रेन उपलब्ध नहीं थी। सभी ने समझाया कि अगली ट्रेन अगले दिन है। माँ ज़िद पर अड़ी रहीं और उन्होंने उसी समय सारनाथ के तीन टिकट मंगवा लिए। सबको आश्चर्य हुआ क्योंकि टाइमटेबल के अनुसार कोई ट्रेन नहीं थी, पर ठीक थोड़ी देर में एक ट्रेन प्लेटफॉर्म पर आ लगी। स्टेशन कर्मचारी ने बताया कि यह ट्रेन बिना रुकावट सीधे आगे जाएगी, सारनाथ नहीं रुकेगी। माँ हँसीं और बोलीं – “आओ, चढ़ो।” वे दोनों सहयोगियों संग ट्रेन पर चढ़ गईं। आगे जाकर अचानक उस ट्रेन को सिग्नल न मिलने के कारण रोका गया और सौभाग्य से वह सारनाथ स्टेशन पर रुक गई। माँ उतरीं और तेज कदमों से स्टेशन से बाहर निकल एक धर्मशाला की ओर चलने लगीं। दोनों परिचारिकाएँ आश्चर्य में थीं कि हम सारनाथ कैसे पहुँच गए! माँ सीधा उस धर्मशाला के एक कमरे में गईं और द्वार खोलते ही देखा – भीतर एक महिला ज़ोर-ज़ोर से रोती हुई प्रार्थना कर रही थी, “माँ आनन्दमयी! मेरी सहायता करो।” वह मराठी भक्त दूर से माँ के दर्शनों की आशा में आई थी और गलत सूचना के कारण अकेली सारनाथ में फँस गई थी। उसे तेज़ बुखार भी था और आसपास कोई नहीं था। भयभीत होकर वह रातभर माँ को पुकार रही थी। अब सहसा माँ को सामने पाकर उसकी सारी चिंता जाती रही। माँ रात भर उसके पास बैठी हँसी-मज़ाक कर उसे बहलाती रहीं, उसका सिर सहलाया, जिससे उसका बुखार भी उतर गया। अगली सुबह जब वह स्त्री ठीक हो गई, माँ चुपचाप वापस बनारस लौट आईं। इस घटना के प्रत्यक्षदर्शियों ने अनुभव किया कि माँ को टेलीपैथी से अपने भक्त की पुकार सुनाई दी और उन्होंने भौतिक नियमों को धता बताकर (अनियोजित ट्रेन रुकवाकर) भक्त की रक्षा की। यह करुणा-प्रेरित चमत्कार भक्तों के हृदय में आज तक गूँजता है।

आनन्दमयी माँ के आसपास और भी सिद्धियों के प्रदर्शन की बात कही जाती है। वे अपने भक्तों के विचार और भाव पढ़ लेती थीं – कई बार व्यक्ति मन में कोई प्रश्न लाता और पूछने से पहले ही माँ जवाब दे देतीं, या उसके अनकहे दुख का समाधान बोल देतीं। श्वेता चक्रवर्ती नामक एक भक्त लिखती हैं कि माँ के पास जाकर मन इतना निर्मल हो जाता था कि जिन बातों को छुपाना चाहो, वो भी माँ की कृपालु दृष्टि के सामने प्रकट हो जाती थीं। माँ के बारे में यह भी प्रसिद्ध है कि वे अपने भौतिक शरीर का आकार कुछ क्षणों के लिए बदल सकती थीं – कभी शरीर सिकुड़ कर छोटा-सा दिखे और अगले ही पल लंबा और स्थूल लगने लगे। कुछ भक्तों ने यह विशिष्ट अनुभव उल्लेख किया कि भजन कीर्तन में माँ बालिका-सी दिखने लगतीं, कभी उनके चेहरे के तेज से लोगों को भगवान के दर्शन होने लगते। उन्होंने कई बीमारों को आश्वासन दिया, “सब ठीक हो जाएगा” – और वाकई वे बिना दवा के चंगे हो गए। एक बार एक भक्त का एक्सीडेंट हुआ और उसकी हालत नाज़ुक थी। उसने याद किया कि माँ आनन्दमयी ने आश्वासन दिया था “मैं साथ हूँ” – दुर्घटना के दौरान वह महसूस करता रहा कि कोई अदृश्य शक्ति उसे थामे है, और वह चमत्कारिक रूप से बच गया। ऐसे असंख्य प्रत्यक्ष अनुभवों ने आनन्दमयी माँ को एक दिव्य अवतार के रूप में स्थापित कर दिया।

लेकिन माँ ने कभी श्रेय स्वयं नहीं लिया। वे सदा कहतीं कि “सब ईश्वरीय शक्ति की महिमा है।” उनका जीवन स्वयं एक चमत्कार था – एक ऐसे युग में जब भौतिकवाद बढ़ रहा था, माँ ने केवल अपने प्रेम, आनन्द और करुणा के द्वारा लाखों लोगों को ईश्वरीय अस्तित्व का अहसास करा दिया। ओशो रजनीश ने भी कहा था: “आनन्दमयी माँ किसी को कोई विधि नहीं देती थीं, पर उनकी उपस्थिति मात्र से शिष्य ध्यान की गहराई में उतर जाते थे।” उनके सिद्धि-प्रदर्शन कोई जादू नहीं बल्कि सहज करुणा के स्वाभाविक विस्तार थे। 1982 में शरीर छोड़ने के बाद भी उनके समाधि-स्थान से अनेकों को अनुभूति होती है कि माँ का अदृश्य हाथ आज भी सिर पर है। आनन्दमयी माँ की कहानी परम प्रेम की शक्ति को रेखांकित करती है – भौतिक चमत्कार तो गौण हैं, उनका सबसे बड़ा चमत्कार था लोगों के हृदय को आध्यात्मिक आनन्द से भर देना। और यही सच्ची सिद्धि है।

हिमालय के सिद्ध-संत:

अब तक हमने जिन संतों की बात की, वे मानव समुदाय के बीच रहकर जाने गए। पर भारतीय परंपरा में यह विश्वास भी है कि कुछ महान सिद्ध पुरुष और महिलाएँ संसार की नज़र से छिपकर एक दिव्य लोक में वास करते हैं, और समय-समय पर प्रकट होकर दुनिया का मार्गदर्शन करते हैं। ऐसी ही एक किंवदंती है ग्यानगंज (Gyanganj) या सिद्धाश्रम की। ग्यानगंज माना जाता है कि हिमालय की एक गुप्त घाटी में स्थित अमर योगियों का निवास-स्थान है। इसे शांग्री-ला, शम्भाला, सिद्धलोक आदि नामों से भी पुकारा जाता है। पौराणिक मान्यताओं के अनुसार यहाँ पर रहस्यमयी सनातन पुरुष और महासिद्ध योगी रहते हैं, जो साधारण मानवों की दृष्टि से ओझल रहते हुए भी सूक्ष्म रूप से दुनिया को प्रभावित करते हैं। कहते हैं कि जब-जब पृथ्वी पर अधर्म बढ़ता है या मानवता संकट में होती है, तब-तब ग्यानगंज के ये महात्मा किसी न किसी रूप में अवतरित होकर मार्गदर्शन देते हैं।

बौद्ध और हिन्दू ग्रंथों – दोनों में – ऐसे छिपे हुए लोकों का वर्णन है। तिब्बती बौद्ध परंपरा में शम्भाला का ज़िक्र आता है, जहाँ कालचक्र तंत्र के देवता स्वयं बुद्ध द्वारा शिक्षित हुए थे। माना जाता है कि शम्भाला (ग्यानगंज) में 32 दैवी राजाओं की परंपरा चलेगी और जब संसार घोर अंधकार में डूब जाएगा, तब शम्भाला का अंतिम राजा प्रकट होकर नए युग का सूत्रपात करेगा। हिंदू मान्यताओं में गुप्त सिद्धाश्रम का उल्लेख वाल्मीकि रामायण, महाभारत, पुराणों और नाथ संप्रदाय की कथाओं में मिलता है। कहा जाता है महान गुरु दत्तात्रेय, ऋषि वशिष्ठ आदि कभी-कभी सिद्धाश्रम में जाकर तप करते थे। सिख परंपरा में गुरु नानक ने भी आध्यात्मिक शिखर “सचखंड” का वर्णन किया, जो इसी प्रकार का अमर क्षेत्र है।

ग्यानगंज को कोई आधुनिक तकनीक या उपग्रह नहीं खोज सकता। ऐसा कहा जाता है कि यह स्थूल दुनिया के किसी दुर्गम कोने में होते हुए भी एक अलग ही आयाम (डायमेंशन) में छिपा है। केवल वही योगी वहाँ पहुँच सकते हैं जिन्होंने अतिशय तप और कर्मशुद्धि से प्रवेश का अधिकारी स्वयं को बनाया हो। पुरानी मान्यता है कि ग्यानगंज के दरवाज़े हर किसी के लिए नहीं खुलते – इसके लिए पूर्वजन्मों के संस्कार और वर्तमान जन्म की कठोर साधना, दोनों की कसौटी पर खरा उतरना पड़ता है। कुछ आधुनिक संतों के जीवन से संकेत मिलते हैं कि वे संभवतः ग्यानगंज होकर आए थे। उदाहरणस्वरूप, ऊपर जिन विश्वुद्धानंद परमहंस (गंध बाबा) का वर्णन हुआ, माना जाता है कि उन्हें युवा अवस्था में ग्यानगंज आश्रम ले जाया गया था जहाँ उन्होंने 12 साल गुरुओं की सेवा में रहकर दिव्य विद्याएँ सीखीं। उन्होंने बाद में अपने शिष्यों को बताया कि “सूर्य-विज्ञान” जैसी विद्या पहले हिमालय के उस गुप्त योगाश्रम में ही सिखाई जाती थी और सदियों से बाहर प्रकट नहीं की गई थी। ऐसे ही महावतार बाबाजी के बारे में भी लोग अनुमान लगाते हैं कि वे शायद ग्यानगंज के ही एक योगी हैं या कम से कम वहाँ के सिद्धों से उनका सतत संपर्क है।

ग्यानगंज के सिद्ध संतों की चर्चा रहस्यकथाओं और पुस्तकों में भी हुई है। हिंदी के सुप्रसिद्ध तपस्वी स्वामी विशुद्धानंद तथा गुजरात के तत्त्वदर्शी श्रीम्पद बाबा ने “ग्यानगंज” के अनुभव लिखे हैं (हालांकि वे सांकेतिक भाषा में हैं)। कुछ विद्वानों का मानना है कि ग्यानगंज वास्तव में तिब्बत-भारतीय सीमा के पास कहीं सुप्तावस्था में है। लाइफ पॉज़िटिव नामक पत्रिका में एक लेख में कहा गया कि “प्रलयों के बाद मानव सभ्यता को पुनः खड़ा करने में ग्यानगंज के योगियों का हाथ रहा है”। यानी वे समय-समय पर बाहर आकर ज्ञान की ज्योत जलाते हैं और फिर पुनः गुप्त तपस्या में लीन हो जाते हैं।

ग्यानगंज का प्रसंग हमें हमारी चर्चा के परिदृश्य को विराट दृष्टि देता है – कि योगिक शक्तियाँ केवल भौतिक चमत्कार दिखाने तक सीमित नहीं, बल्कि मानव जाति के व्यापक हित और विकास की अदृश्य धुरी भी हो सकती हैं। जो सिद्ध आत्माएँ खुले मंच पर नहीं आतीं, वे पर्दे के पीछे रहकर धर्म की धारा को, चेतना के प्रवाह को संचालित करती हैं – ऐसी आस्था भारतवर्ष में आदि काल से रही है। यह विश्वास ही भारत के आध्यात्मिक मनीषा को पोषण देता रहा कि “कुछ महापुरुष निरंतर प्रार्थना और ऊर्जा से विश्व की रक्षा कर रहे हैं।”

निष्कर्ष

हमने भारतीय संतों की जिन छुपी योगिक शक्तियों का अनावरण किया, वे प्रथम दृष्टि में किसी परी-कथा से कम नहीं लगतीं। परंतु इन कथाओं की पृष्ठभूमि में जो गहरी बातें हैं, वे हमें आत्मचिंतन का संदेश देती हैं। प्राचीन संतों के चमत्कार सिर्फ चकित करने के लिए नहीं थे, उनके पीछे उच्च आध्यात्मिक उद्देश्य और शिक्षाएँ निहित थीं:

·        आत्म-साधना की शक्ति: इन सभी संतों का जीवन यह दिखाता है कि मानव शरीर और मन की सीमाएँ साधना द्वारा अत्यधिक विस्तृत की जा सकती हैं। योग, ध्यान, तप द्वारा ऐसी क्षमताएँ विकसित हो सकती हैं जिन्हें सामान्य व्यक्तिअसंभवमानता हैफिर चाहे वह ज़हर को अमृत बना देना हो (तैलंग स्वामी), या 50 साल तक निद्राहीन तपस्या (बाबा लोखनाथ), या हवा में चार मिनट तक स्थिर रहना (योगी पुलावर का प्रसिद्ध लेविटेशन दृश्य, जो 1936 में कैमरे पर भी कैद हुआ) ये घटनाएँ प्रमाणित करती हैं कि शरीर-मन को प्रकृति के सूक्ष्म नियमों से जोड़कर असाधारण परिणाम पाए जा सकते हैं।

·        सिद्धि का सही उपयोग: ज्यादातर महान संतों ने चेताया कि योगबल से प्राप्त शक्तियाँ साधक के लिए परीक्षा हैंउनका दुरुपयोग उसे मार्ग से गिरा सकता है। हमने देखा कि रामकृष्ण परमहंस ने इन्हें आध्यात्मिक पथ के रोड़े कहा, योगानंदजी ने इन्हें मनोरंजक मगर ईश्वर-प्राप्ति में निर्थक खेल कहा। फिर भी, जब ये संत कोई चमत्कार करते थे तो उसके पीछे करुणा, भक्ति या सत्य की स्थापना का उद्देश्य होता था। जैसे, रामकृष्ण ने विलियम को काली की मूर्ति में ईसा के दर्शन कराए ताकि उनमें सभी धर्मों के एकत्व की अनुभूति होrkganguly.blogspot.com गंध बाबा ने प्रकृति के रहस्यों को उजागर कर यह दिखाया कि विज्ञान और अध्यात्म में विरोध नहीं, बल्कि पूरकता है। आनन्दमयी माँ ने ट्रेन रुकवाकर अपने भक्त की रक्षा कर एक ही संदेश दियाप्रेम का चमत्कार सबसे बड़ा चमत्कार है इसलिए, सिद्धि का सही उपयोग वही है जो मानवता में विश्वास, प्रेम और आशा जगाए।

·        प्रेरणा और प्रासंगिकता: आज का युग भले वैज्ञानिक तकनीकों का है, फिर भी इन प्राचीन कथाओं की प्रासंगिकता कम नहीं होती। ये चमत्कार हमें हैरत में डालते हैं, पर साथ ही यह प्रेरणा भी देते हैं कि मानव संभावनाएँ असीम हैं यदि एक मानव कठिन तप से अणु-परमाणुओं को नियंत्रण में ले सकता है, तो निश्चित ही हम अपनी रोजमर्रा की बुरी आदतों, कमजोरियों और रोगों पर भी विजय पा सकते हैंयह आशावाद ये कहानियाँ जगाती हैं। अध्यात्म कोई कोरी कल्पना नहीं, बल्कि एक जीवंत विज्ञान हैयह विश्वास आधुनिक पीढ़ी में फिर से जागृत हो रहा है। योग, ध्यान, आयुर्वेद आदि की बढ़ती लोकप्रियता यह दिखाती है कि लोग उनगुप्त शक्तियोंको समझना चाहते हैं जो मानवीय चेतना में निहित हैं।

·        आस्था का संतुलन विज्ञान से: कुछ निष्पक्ष मन कह सकते हैं कि इन घटनाओं के ठोस भौतिक प्रमाण नहीं, या ये अतिशयोक्तिपूर्ण कथाएँ हैं। ऐसे में हमें दो बातों का ध्यान रखना चाहिएपहली, कि अनुभवजनित सत्य (experiential truth) को हमेशा प्रयोगशाला में तौला नहीं जा सकता। करोड़ों लोग इन संतों के प्रताप से प्रेरित होकर बेहतर मनुष्य बने हैंयह उन चमत्कारों का मनोवैज्ञानिक और सांस्कृतिक प्रमाण है। दूसरी बात, वैज्ञानिक दृष्टि भी समय के साथ विकसित होती है; जो कल असंभव था, विज्ञान ने आज संभव कर दिखाया। तो संभव है आने वाले युग में विज्ञान उन सिद्धियों के सिद्धांतों को भी आंशिक रूप से समझ पाए जिनका वर्णन हमने किया (जैसे, क्वांटम फिजिक्स और consciousness पर आज शोध शुरू हो गया है) इसलिए, हमें अंधविश्वासी बनना है सख्त संशयवादीबल्कि एक खुले मन से इन रहस्यों को जानना है और जो शिक्षा इसमें छुपी है उसे अपनाना है।

अंततः, भारतीय संतों की छिपी योगिक शक्तियों की यह कथा हमें विनम्रता और जिज्ञासा की भावना देती है। विनम्रता इसलिए कि इतने महान योगी होकर भी वे अहंकार रहित और ईश्वर-निरत रहे – अपनी शक्तियों का श्रेय परमात्मा को दिया। जिज्ञासा इसलिए कि मनुष्य होकर उन्होंने जो दिव्य क्षमताएँ पाईं, वह बीज रूप में हर मानव के भीतर मौजूद है। स्वयं योगसूत्र में कहा गया है: “सिद्धयः असाधारणाणि पुरुषस्य संभवः” – सिद्धियाँ मनुष्य के लिए असाधारण होकर भी संभावित हैं।

इन किस्सों को सुनते हुए शायद मन में प्रश्न उठता है – क्या आज भी ऐसे संत हैं? उत्तर है: अवश्य, पर हो सकता है वे गुमनाम हों, या हमारी दृष्टि से ओझल ग्यानगंज में तप कर रहे हों। संसार भले भौतिकवाद में डूबा हो, पर अध्यात्म की वह धारा कभी सूखती नहीं जिसका जल इन सिद्ध महापुरुषों ने प्रवाहित किया है। ज़रूरत बस इतनी है कि हम उनकी कहानियों से प्रेरणा लें, अपने भीतर की योगिक सम्भावनाओं को पहचानें और उनका उपयोग आत्मोन्नति व लोककल्याण के लिए करें। यही इन चमत्कारों के पीछे छिपा सार है।

 

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