
तिब्बत की तंत्रभूमि: एक साधिका की गुप्त यात्रा
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हिमालय की रहस्यमयी पुकार
सर्दियों की एक शांत रात थी। हिमालय के विशाल बर्फीले पर्वत चांदनी में चमक रहे थे, और ठंडी हवा मुझे छूकर मानो कोई प्राचीन संदेश सुना रही थी। मैं एक ऊँचे दर्रे पर खड़ी दूर क्षितिज को निहार रही थी, जहाँ तिब्बत की हिमाच्छादित चोटियाँ आकाश को छूती दिखाई देती थीं। इन पर्वतों के पार एक ऐसी भूमि थी जिसे बाहरी दुनिया ने रहस्य और चमत्कार की अंतिम शरणस्थली के रूप में देखा – तिब्बत, "हिमभूमि"। कहते हैं यहाँ जादूगर, साधु, लामाओं और योगियों का वास है, जो अलौकिक शक्तियों के स्वामी हैं। इन कहानियों ने मेरे मन में बचपन से ही जिज्ञासा और रोमांच का संचार किया था।
मैं, एक यूरोपीय महिला यात्री, उस युग में थी जब तिब्बत विदेशियों के लिए बंद था। उस प्रतिबंधित भूमि की ओर आकर्षित होना स्वाभाविक था; मानो हिमालय मुझे पुकार रहा हो। मेरे चारों ओर बर्फ़ थी, पहाड़ों पर घने देवदार और चीड़ के वन, और कहीं दूर किसी बौद्ध मठ के नगाड़ों की धीमी गूंज सुनाई दे रही थी। चोटी के दूसरी ओर तिब्बत था – एक अपरिचित दुनिया, जहाँ आम यात्रियों का पहुँचना असंभव माना जाता था। फिर भी मैंने निश्चय कर लिया था कि मुझे वहाँ जाना है, उन रहस्यों को अपनी आँखों से देखना है जिनके बारे में पश्चिमी दुनिया केवल कल्पना करती है।
तिब्बत को सदियों से "रहस्यों की भूमि" कहा गया। कहते हैं वहाँ ऐसे तपस्वी हैं जो बर्फीली रातों में बिना कपड़ों के तपस्या कर सकते हैं, लामा हैं जो दूर-दूर तक बिना शब्दों के एक-दूसरे से संवाद कर लेते हैं, जादूगर हैं जो हवा में उड़ सकते हैं या पानी पर चल सकते हैं। इन दावों ने मुझे आश्चर्य में डाल दिया था – क्या यह सब वास्तविक है या लोककथाएँ मात्र? इन प्रश्नों का उत्तर पाने के लिए मुझे स्वयं उस दुनिया में कदम रखना था। मैंने मन ही मन ठानी कि चाहे कितनी ही कठिनाइयाँ आएँ, मैं तिब्बत के हृदय तक पहुँचूँगी।
उस यात्रा के आरंभ में मैं भारत के दार्जिलिंग शहर में थी, जहाँ से उत्तरी दिशा में तिब्बत की पहाड़ियाँ दिखती थीं। स्थानीय लोगों से तिब्बत की कहानियाँ सुनकर मेरा रोमांच और बढ़ गया। उन्होंने मुझे चेतावनी दी कि तिब्बतियों को बाहरी लोगों पर भरोसा नहीं, वहाँ विदेशी जाना मना है, और अनधिकृत प्रवेश पर कड़ी सज़ा मिल सकती है। लेकिन मेरे मन में भय से अधिक उत्सुकता थी। अंततः, मैंने एक योजना बनाई – मुझे तिब्बती भिक्षुणी या यात्री का रूप धरना होगा ताकि मैं घुल-मिल जाऊँ और बिना पकड़े तिब्बत की यात्रा कर सकूँ।
मैंने तिब्बती भाषा सीखी थी और बौद्ध धर्म का अध्ययन भी किया था। वर्षों पहले ही मैं बुद्धिस्ट बन चुकी थी और कई लामाओं की शिष्या रही, जिससे मुझे उनकी संस्कृति और रीति-रिवाज़ों की समझ थी। मैंने अपनी त्वचा को धूप में सावला किया, बालों को काला रंग लिया और पहाड़ों के रास्तों पर चलते-चलते मैले हो चुके कपड़ों को नहीं बदला, ताकि मेरा हुलिया एक गरीब तीर्थयात्री जैसा लगे। मेरे साथ एक विश्वस्त साथी था – युवा तिब्बती लामा योंगदेन, जो मेरा दत्तक पुत्र और शिष्य भी था। हम दोनों साधारण भिक्षुओं का वेश धरकर कारवाँ पथ पर आगे बढ़े।
जैसे-जैसे हम सीमा के निकट पहुँचे, मौसम और विकराल होता गया। तीखे पहाड़ी मोड़, बर्फ से ढकी पगडंडियाँ, और बर्फीली हवा के तेज झोंके – हर कदम किसी परीक्षा से कम न था। कई बार तो ऐसा लगा मानो प्रकृति खुद हमारी परीक्षा ले रही हो, यह देखने के लिए कि क्या हम सचमुच उसके छिपे रहस्यों के काबिल हैं। एक संकरे हिम-दर्रे से गुज़रते हुए नीचे गहरी खाई दिखती, जहाँ बर्फीली नदी दुर्गम चट्टानों से टकराकर बह रही थी। मेरे दिल की धड़कन तेज़ थी, पर आँखों में लक्ष्य चमक रहा था – उस अदृश्य सीमा को पार करना, जो तिब्बत को दुनिया से छुपाए हुए थी।
अंततः वह क्षण आया। एक ऊँची बर्फीली चोटी को पार करके, मैंने सांस रोक कर नीचे घाटी में देखा – हम तिब्बत की ज़मीन पर थे। दूर एक तिब्बती गाँव के धूसर मकान नज़र आ रहे थे, जिनकी छतों पर रंग-बिरंगे प्रार्थना झंडे हवा में फड़फड़ा रहे थे। उन पर लिखे मंत्र हवा के सहारे दिशाओं में फैल रहे थे, मानो हर आगंतुक को अदृश्य रूप से शुभकामनाएँ दे रहे हों। मैं मुग्ध होकर इस दृश्य को देख रही थी। यहाँ की हवा में एक अजीब-सा पवित्रता का एहसास था, जैसे यह मात्र एक नया देश नहीं बल्कि किसी प्राचीन तपोभूमि में प्रवेश हो।
योंगदेन ने पास आकर धीमे स्वर में कहा, "अब हम तिब्बत में हैं।" उसकी आँखों में भी उत्साह था, हालाँकि वह स्वयं तिब्बती था, पर उसके लिए भी अपने देश के इस दुर्गम हिस्से में कदम रखना एक अद्भुत अनुभव था। हमने मिलकर बुद्ध को नमन किया और आगे बढ़ने से पहले पल भर के लिए बर्फीले पर्वतों को प्रणाम किया, जिन्होंने हमारे साहस की परीक्षा ली थी। मुझे लगा मानो दूर कहीं किसी मठ में घंटियाँ बज उठीं, हमारे आगमन का स्वागत करती हुई।
पहला क़दम रखते ही मेरे कानों में दूर से एक दीर्घ ‘ॐ मणि पद्मे हूं’ की ध्वनि गूंजी। यह बौद्ध मंत्र हवा में घुला-मिला था, जो तिब्बत की भूमि में व्याप्त आध्यात्मिकता का परिचायक था। सामने फैले पठार पर सूरज की सुनहरी किरणें बर्फ पर पड़कर असंख्य हीरों-सी चमक उठीं। मैंने गहरी साँस लेकर उस ठंडी, शुद्ध हवा को अपने भीतर उतारा। इस धरती की ख़ुशबू में मिट्टी के साथ धूप, याक के दूध से बने मक्खन और चंदन की महक मिली हुई थी। मुझे लगा जैसे तिब्बत की आत्मा ने मुझे स्पर्श किया – रहस्य और जादू की उस दुनिया ने बाहें खोलकर मेरा स्वागत किया।
वहाँ से हमें एक छोटे से लामाओं के गाँव तक पहुँचना था जहाँ कुछ देर विश्राम मिलता। रास्ता लंबा था और सूरज ढलने लगा था। सायं की लालिमा में पर्वतों की चोटियाँ अंगारों की तरह दहक रही थीं। हवा और ठंडी होती जा रही थी, लेकिन मेरे भीतर उत्साह की गर्मी थी। हम दोनों थके होने के बावजूद तेज़ी से बढ़ते रहे। जैसे-जैसे अँधेरा घिरा, आसमान में असंख्य तारे निकल आए – इतने पास लगते थे मानो उन्हें छुआ जा सके। उन तारों के नीचे मैंने सोचा, न जाने इन्हीं तारों को निहारते हुए कितने योगियों ने यहाँ समाधि लगाई होगी। कितने रहस्यों की गवाही ये सितारे देते आए होंगे।
रात में हम एक पहाड़ी मोड़ पर रुके जहाँ नीचे घाटी में कुछ झोपड़ियाँ दिखाई दीं – वह गाँव आ चुका था। पास ही एक प्रार्थना-चक्र (मणि पहिया) हवा से घूम रहा था और चरमराती ध्वनि कर रहा था। हमने ठंड से काँपते हुए पास जाकर देखा। लकड़ी के बने उस बड़े चक्र के भीतर काग़ज़ों पर लिखे हजारों मंत्र थे, जो हर घुमाव के साथ वातावरण को पवित्र कर रहे थे। योंगदेन ने धीरे से उसको स्पर्श कर घुमाया और मंत्र बुदबुदाया, मैंने भी उसके साथ मिलकर कमर झुकाई। हम आगंतुक थे, परन्तु हमारे हृदय में सम्मान था, और हमें उम्मीद थी कि यह भूमि हमें अपनाएगी।
गाँव में पहुँचकर हमने एक बूढ़े चरवाहे से रुकने की अनुमति माँगी। हमारा वेश देख वह हमें तिब्बती भिक्षु ही समझा। उसने खुश होकर अपने छोटे से मिट्टी और पत्थर के घर में हमें जगह दी। अंदर याक के गोबर से सुलगती आग की गंध और घी के दीये की मद्धम रोशनी थी। दीवारों पर बुद्ध और पद्मसंभव के चित्र टंगे थे। उस सरल घर में घुसते ही मुझे सुखद एहसास हुआ – जैसे हम सुरक्षित आश्रय में आ गए हों। बूढ़े ने खामोशी से हमारा अभिवादन किया और गर्म नमकीन मक्खन वाली चाय का कटोरा हमें थमा दिया। ठंड से सुन्न पड़े हाथ जब उस गर्म कटोरे को थामे, तो ऐसा लगा मानो जीवन वापस लौट आया हो।
हमने आग के पास बैठकर चाय की चुस्कियों के साथ यात्रा की थकान उतारी। बूढ़ा तिब्बती धीरे-धीरे हमारा निरीक्षण कर रहा था। शायद उसे आश्चर्य था कि दो भिक्षु इस अनजान घड़ी उसके द्वार पर कैसे पहुँचे। मैं शांत रही और अधिकांश बातें योंगदेन ने संभालीं। वह स्थानिय लहजे में उससे बोला, अपने तीर्थयात्रा की कहानी सुनाई, और उसने बिना शक किये हमारी बात मान ली। कुछ देर बाद उसने एक कोने में हमारे लिए याक के बालों से बने कम्बलों की व्यवस्था कर दी।
उस रात मैं पहली बार तिब्बत की धरती पर सोई। छत की दरारों से तारों की झलक दिख रही थी। दूर कहीं भेड़ियों के हुआँ-हुआँ की आवाज़ सुनाई दी जो जल्द ही शांत हो गई, मानो किसी अज्ञात शक्ति ने उन्हें चुप करा दिया हो। मैंने आँखें मूँद कर सोने की कोशिश की, पर मन में रोमांच भरा था। मैंने आज जो पहला क़दम रखा था, वह केवल शुरुआत थी – आगे न जाने कितने अद्भुत अनुभव मेरा इंतज़ार कर रहे थे। मन ही मन बुद्ध का स्मरण करते-करते कब नींद आ गई, पता ही नहीं चला।
सुबह हमारी यात्रा का वास्तविक अध्याय शुरू होने वाला था। ये थी हिमालय की रहस्यमयी पुकार जिसने मुझे घर से हज़ारों मील दूर इस अनजानी भूमि में ला पटका था। तिब्बत ने अपने द्वार मेरे लिए खोल दिए थे, और अब मैं इसके दिल तक जाने को तैयार थी। मुझे पता था रास्ता आसान नहीं होगा, लेकिन जिज्ञासा और साहस मेरे साथ थे। आँखों में तिब्बत के अनगिनत रहस्यों की छवि लिए, मैंने अगली सुबह सूरज की पहली किरण के साथ अपने कदम आगे बढ़ा दिए।
लामाओं के बीच
पहली किरण के साथ ही पहाड़ी गाँव जागने लगा। दूर किसी मठ के शंख की आवाज़ भोर का आगाज़ कर रही थी। हमनें बूढ़े मेज़बान को धन्यवाद दिया और प्रार्थना में शामिल होने नज़दीकी गोम्पा (मठ) की ओर चल पड़े। तिब्बती मठ अक्सर गाँवों के किनारे या पर्वतों की ढलानों पर बने होते हैं। इस गाँव के ऊपर एक छोटी पहाड़ी पर सफेद-लाल रंग से पुता एक गोम्पा था, जिसकी छत सुनहरी थी और उस पर लहराते ध्वजों को सुबह की हल्की हवा छू रही थी। हमने उस पवित्र स्थान की सीढ़ियाँ चढ़ते हुए मन ही मन ध्यान लगाया – कि आज हम अपने यात्रा के मार्गदर्शक से मिलेंगे, तिब्बत के पहले लामा जिनसे हमारा साक्षात्कार होगा।
मठ के प्रांगण में प्रवेश करते ही हमें कुछ युवा भिक्षु झाड़ू लगाते दिखे। वे भिक्षु हमें देख ठिठके, शायद बाहरी तीर्थयात्रियों को देख कर आश्चर्य हुआ। मैंने सिर झुका कर पारंपरिक अभिवादन "ताशी देलेक" कहा, तो उनके चेहरों पर मुस्कान आ गई और उन्होंने हाथ जोड़कर अभिवादन का उत्तर दिया। अंदर मुख्य मंदिर से मंत्रोच्चार की गूंज सुनाई दे रही थी। वह आवाज़ गहरी और लयपूर्ण थी, जैसे किसी गुफा से निकलती पवन की सरगम। हम जूते उतारकर भीतर गए।
मंदिर के भीतर दीये की अनगिनत लौ अँधेरे को रहस्यमय उजास से भर रही थी। सामने बुद्ध की एक विशाल प्रतिमा पद्मासन में विराजमान थी, जिसकी शांत स्वर्णिम मुखाकृति को देख हृदय श्रद्धा से भर गया। कुछ लामा भगवा-भूरے चोगा पहने मूर्ति के सामने आलती-पालती मारकर बैठे मंत्र पढ़ रहे थे। उनके हाथों में माला थी जो वे हर मंत्र के साथ एक मनका आगे सरकाते। वातावरण में अगरबत्ती और मक्खन के दीपकों की मिश्रित खुशबू थी। मैं और योंगदेन एक कोने में विनम्रता से बैठ गए, अपने आपको उस पवित्र माहौल में डुबोते हुए।
जल्द ही प्रातःकालीन प्रार्थना समाप्त हुई। एक वृद्ध लामा, जिनकी लम्बी दाढ़ी थी और आँखों में अनुभव का तेज, हमारे पास आए। उन्होंने हम अजनबी भिक्षुओं को देखा और कोमल स्वर में पूछा, "तुम लोग यात्री हो?" योंगदेन ने आगे बढ़कर सम्मान से अपना और मेरा परिचय एक साधारण घुमंतू तीर्थयात्री के रूप में दिया। बूढ़े लामा ने मेरा चेहरा ध्यान से देखा, मानो परख रहे हों। कुछ क्षण को मुझे चिंता हुई कि कहीं हमारी भेषभूषा की पोल तो नहीं खुल गई। पर फिर वे मुस्कुराए और बोले, "हमारे यहाँ अतिथि बनकर खुशी दी है। चलो, चाय पीओ।"
हमें एक छोटी सभा-कक्ष में ले जाया गया जहाँ दीवारों पर रंग-बिरंगी थंका चित्रकला में बोधिसत्वों और धर्मपाल (रक्षक देवताओं) की छवियाँ बनी थीं। बीच में लो-दीवार पर एक लंबी मेज़ थी जिसके किनारे गद्देदार गलीचे बिछे थे। हम वहीं बैठ गए। थोड़ी देर में एक युवा भिक्षु गर्म मक्खन वाली चाय और भुने जौ के आटे (त्सम्पा) का कटोरा ले आया। तिब्बती मक्खन-चाय का पहला घूंट मेरे हलक से उतरते ही एक अलग स्वाद का अनुभव हुआ – यह नमकीन और भारी थी, पर पहाड़ की ठंड में अमृत-तुल्य लग रही थी।
वरिष्ठ लामा, जिनका नाम केलज़ांग था, ने मेरा ध्यानपूर्वक निरीक्षण जारी रखा। शायद उन्होंने मेरे लहजे में हल्की अजनबी पुट सुन ली थी या मेरे चेहरे के नाक-नक़्श से भाँप लिया था कि मैं पूर्णतया तिब्बती नहीं हूँ। आखिर वे बोले, "तुम कहाँ से आए हो, बेटी?" इस सवाल पर मेरा दिल ज़ोर से धड़का, पर मैं पहले से तैयार थी। मैंने मुस्कुराकर कहा, "मैं दूर पश्चिम की एक बौद्ध अनुयायी हूँ, गुरुओं के दर्शनों की इच्छा से तिब्बत आई हूँ। कई वर्षों से मैं तिब्बती भाषा व धर्म सीखती रही हूँ। अब इन पवित्र स्थलों की यात्रा पर निकली हूँ।"
मेरे उत्तर से लामा प्रसन्न दिखे। उन्होंने सिर हिलाते हुए कहा, "तुम्हारा उच्चारण अच्छा है। तुम्हारी आँखों में लगन दिखती है।" उनकी मुस्कान स्नेहिल थी। संभवतः मेरी सत्य निष्ठा (हालाँकि मैंने अपनी पहचान छिपाई थी, पर भावनाएँ सच्ची थीं) ने उन्हें आश्वस्त किया। उन्होंने मुझे बताया कि वे इस छोटे मठ के प्रमुख हैं और यहाँ दस-बारह लामाओं का समुदाय है। यह जगह मुख्य रास्तों से दूर होने के कारण शांति का स्थान है। बाहरी दुनिया की हलचल यहाँ कम ही पहुँची है।
बातचीत के दौरान मैंने ज़िक्र किया कि मैं तिब्बत के महान लामाओं के बारे में जानने की इच्छुक हूँ। उस पर केलज़ांग लामा ने हँसते हुए मेरी ओर देखा और बोले, "पूछो, क्या जानना चाहती हो?" यह मेरे लिए अवसर था कि मैं तिब्बती लामाओं के जीवन और दर्शन को समझूँ। मैंने विनम्रता से निवेदन किया, "गुरुदेव, मुझे बताइये कि तिब्बत में लामाओं का जीवन कैसा है? लोग कहते हैं कि आप लोग गहरी साधना से विशेष शक्तियाँ पाते हैं।" मेरे इस प्रश्न पर आसपास बैठे दो युवा भिक्षु मुस्कुराने लगे, मानो बच्चों जैसी उत्सुकता देखकर आनंदित हों।
लामा ने गंभीरता से उत्तर दिया, "लामा का जीवन कठोर तप और सेवा का जीवन है। हमारी शक्तियाँ अगर कोई हैं भी, तो केवल साधना के उपफल हैं, मुख्य ध्येय नहीं।" उन्होंने समझाया कि तिब्बती बौद्ध परंपरा में एक लामा न केवल भिक्षु होता है बल्कि गुरु भी होता है। कुछ लामा तो पुनर्जन्म लेकर लौटते शिक्षक (तुल्कू) माने जाते हैं – जैसे दलाई लामा या पंचेन लामा, जिन्हें बचपन में ही खोज लिया जाता है क्योंकि वे पिछले जन्म के किसी महान आत्मा की पुनरावृत्ति होते हैं। ये सुनकर मेरी आँखे चमक उठीं – एक इंसान के मरने के बाद फिर जन्म लेकर गुरुत्व संभालने की धारणा अपने-आप में कितनी रहस्यमयी थी! मैंने सोचा, सचमुच यह भूमि रहस्यलोक है जहाँ जीव और मृत्यु के पार के संबन्ध भी मान्य हैं।
केलज़ांग लामा ने किस्से के तौर पर मुझे एक कहानी सुनाई। उन्होंने कहा, "हमारे इस इलाके में एक विख्यात लामा थे, जिनका देहावसान कई वर्ष पूर्व हो गया। तब से उनके शिष्य उनके पुनर्जन्म की प्रतीक्षा कर रहे थे। कहते हैं उन्होंने मरते वक्त संकेत दिया था कि वे पास के गाँव के किसी परिवार में जन्म लेंगे। कुछ साल बाद एक बच्चे ने अपने माता-पिता को बताया कि वह पास वाले मठ का लामा है और उसे वहाँ ले चलें। परिवार चकित रह गया। बच्चे को मठ लाया गया और उसने पूर्व लामा द्वारा छोड़ी गई कुछ चीज़ों को बिना गलती के पहचान लिया। उस नन्हे बच्चे को देखते ही बुज़ुर्ग शिष्यों की आँखों से आँसू बह निकले – उनके गुरु वापस लौट आए थे। तब से वह बच्चा यहीं मठ में दीक्षा लेकर बड़ा हो रहा है।" मैं मंत्रमुग्ध होकर यह सुन रही थी। एक ओर मेरे वैज्ञानिक-तर्कशील मन को यकीन नहीं हो रहा था, पर दूसरी ओर उस बच्चे की सच्चाई ने मुझे अवाक् कर दिया। क्या आत्मा वाकई मरकर लौट आती है? इस हिमालयी भूमि में तो यही माना जाता था।
दिन चढ़ने के साथ लामा ने हमें मठ के परिसर में घूमने की अनुमति दी। हम प्रार्थना कक्षों, भिक्षुओं की कक्षाओं और ध्यान कक्षों को देखने निकले। पत्थर की दीवारों वाले लंबे गलियारों में हमने भिक्षुओं को पारंपरिक वाद्य यंत्रों का अभ्यास करते देखा – बड़े लंबे सींग (धमनियां), नगाड़े और झांझ। एक आंगन में कुछ नवदीक्षित तरुण भिक्षु आपकोर (मंत्रमंडल) के चारों ओर चक्कर काटते हुए जोर-जोर से पाठ कर रहे थे। एक किनारे कुछ वृद्ध लामा समाधि में लीन बैठे थे, मानो उनके चारों ओर का संसार विलीन हो गया हो। उन्हें देख मन में असीम शांति का संचार हुआ।
एक छोटे कमरे में हमने बौद्ध ग्रंथों का भंडार देखा। लकड़ी की आलमारियों में लिपटे हुए पीले कपड़े में लिपटे पांडुलिपियों के ढेर थे – कंचुर और तंचुर (बौद्ध धर्मग्रंथों के संग्रह)। योंगदेन ने उत्साह से मुझे बताया कि इन ग्रंथों में बुद्ध के शब्द और महान गुरुओं की शिक्षा संकलित है। कुछ भिक्षु उन्हें जोर से पढ़ने का अभ्यास कर रहे थे। मैंने देखा कि तिब्बती लिपि में लिखे वे ग्रंथ उन्हें कंठस्थ थे। साधना का यह भी एक पहलू था – ज्ञान को आत्मसात करना, बार-बार दोहरा कर मन-मस्तिष्क में बसा लेना।
मठ में हमें पूरा दिन बीत गया, और उस दौरान मेरा भय पूरी तरह मिट गया। मुझे लगा अब हम वास्तव में "लामाओं के बीच" रह रहे हैं, उनका जीवन जी रहे हैं। शाम को केलज़ांग लामा ने हमें दो अतिथि कक्षों में ठहरने की व्यवस्था कर दी। यह मेरे लिए एक वरदान समान था – तिब्बत आने के बाद पहली बार मुझे लामाओं के संग एक छत के नीचे रहने का मौका मिला था। रात को भोजन में साधारण उबली हुई सब्जियाँ और त्सम्पा मिला। भिक्षुओं के साथ बैठकर मौन में खाने का वह अनुभव अनूठा था। हर कौर के साथ एक मंत्र बोला जाता, आभार प्रकट करते हुए कि भोजन मिला है।
भोजन के पश्चात हम प्रांगण में टहलने लगे। ऊपर आसमान बिलकुल साफ था, लाखों तारे टिमटिमा रहे थे। मैंने देखा कि कुछ लामा आकाश की ओर देखते हुए एक-स्वर में मंत्र जप रहे हैं। मैंने योंगदेन से पूछा, "वे क्या कर रहे हैं?" योंगदेन मुस्कुराया, "ये तारे देखने की नहीं, गिनने की साधना है। ध्यान को एकाग्र करने की विधि के लिए वे तारों को देख एक मंत्र का सहारा लेते हैं, जिससे मन व्यर्थ की बातों से हटकर अनंत पर केंद्रित हो जाता है।" मैंने आश्चर्य से आकाश की ओर देखा – हर क्रिया यहां साधना से जुड़ी है, चाहे वह जितनी साधारण क्यों न लगे।
ठंडी हवा में हम धीरे-धीरे चलते रहे। अचानक दूर वादी से भेड़ों के गले में बंधी घंटियों की धुन सुनाई दी जो अँधेरे में घुलती चली गई। मैं इस निश्शब्द शांत माहौल में स्वयं को धन्य महसूस कर रही थी। मेरे साथ चल रहे कुछ युवा भिक्षुओं ने मुझसे उत्सुक होकर पश्चिमी दुनिया के बारे में प्रश्न पूछे – "क्या सचमुच समुद्र इतना बड़ा होता है जहाँ पानी ही पानी हो?" एक ने पूछा। एक अन्य ने शर्माते हुए कहा, "हमने सुना है वहाँ लोहे के पक्षी (हवाई जहाज) उड़ते हैं, जो मनुष्यों को ढोते हैं, यह कैसे संभव है?" मैं उनकी सरल जिज्ञासाओं पर मुस्कुरा पड़ी। मैंने धीरे-धीरे समझाया, जितना सरल शब्दों में हो सका, और वे कौतुहल से सुनते रहे। मुझे एहसास हुआ कि जैसे मेरे लिए तिब्बत अद्भुत है वैसे ही उनके लिए मेरी दुनिया अनोखी है। हम एक-दूसरे से सीख रहे थे।
रात गहराई, तो मैं अपने कक्ष में लौट आई। दिया जलाकर मैंने यात्रा की डायरी में दिनभर के अनुभव लिखने चाहें, पर शब्द कम पड़ने लगे। इन कुछ ही घंटों में मानो महीनों का जीवन जी लिया था। लामाओं के बीच बिताए इस समय ने मुझे तिब्बत के दिल की पहली झलक दिखा दी थी – सरलता, भक्ति, अनुशासन और रहस्य का अद्भुत मिश्रण। मैंने कृतज्ञता अनुभव की और सोने से पहले बुद्ध और उन दयालु लामाओं को धन्यवाद दिया। मन में एक अटल विश्वास जन्म ले रहा था कि आगे की यात्रा में ये ही लोग मेरा संबल होंगे। तिब्बत अब मुझे पराई जगह नहीं लग रही थी, बल्कि एक गुरु की तपोभूमि जैसा घर लगने लगा था।
पवित्र मठ की झलक
कुछ दिन उस छोटे मठ में रहने और आसपास के क्षेत्र को जानने के बाद, मैंने और योंगदेन ने आगे प्रस्थान किया। अगला लक्ष्य था एक प्रसিদ্ধ तिब्बती मठ जो दूर-दूर तक जाना जाता था। यात्रा के क्रम में हमने कई ऊँचे पहाड़ी दर्रे पार किए, नीले झीलों के किनारे तंबू में रातें बिताईं, और याकों के कारवाँ के साथ कठिन ऊबड़-खाबड़ रास्तों पर चले। अंततः कई सप्ताहों के बाद, एक सुबह हमें पहाड़ियों के बीच स्थित एक भव्य मठ की पहली झलक मिली।
मीलों दूर से उसकी सुनहरी छतों पर पड़ती सूर्य किरणों की चमक दिखाई दे रही थी। जैसे-जैसे हम पास आए, उस परिसर का विस्तार स्पष्ट होने लगा। विशाल दीवारें, अनेक प्रार्थना-मंडप (स्तूप) और सैकड़ों सीढ़ियाँ ऊपर मुख्य मंदिर तक जा रही थीं। यह लहासा नहीं था, पर कुछ वैसा ही भव्य था – शायद यह शिगात्से क्षेत्र का कोई महान मठ था, जहाँ सैकड़ों लामाओं का निवास था। हमें इसका नाम "सेरा मठ" बताया गया, हालाँकि असल में वह सेरा नहीं तो किसी और नाम से प्रसिद्ध था, लेकिन उसके प्रताप में कोई संदेह नहीं था।
मठ के द्वार पर पहुँचते-पहुँचते दोपहर ढल रही थी। मुख्य द्वार पर बड़े अक्षरों में तिब्बती भाषा में किसी मंत्र के शब्द खुदे थे और दोनों ओर सिंह के मुखाकृति वाली पत्थर की मूर्तियाँ थीं जो द्वारपाल जैसे दिखते थे। कुछ तीर्थयात्री और स्थानीय लोग दर्शन करने आ-जा रहे थे, जिनमें किसान, याक चरवाहे और दूर-दराज़ के भिक्षु भी शामिल थे। हमने अपने चेहरे पर थोड़ा और मैल पोत लिया ताकि काफी अनुभवी यात्री लगें, और अन्य लोगों के साथ अंदर प्रवेश कर गए।
अंदर का दृष्य अलौकिक था। बड़े से आंगन में सैकड़ों लामा-भिक्षु कतारबद्ध खड़े थे, और बीच में कोई उत्सव-सा मनाया जा रहा था। नगाड़ों और थामकों (तिब्बती लम्बे सींग) की गूंज चारों दिशाओं में फैल रही थी। धूप, अगरबत्ती और जले हुए देवदार की सुगंध हवा में तैर रही थी। कुछ वरिष्ठ लामा पारंपरिक नृत्य-पोशाक में छम नृत्य (राक्षसों को परास्त करने का अनुष्ठानिक नृत्य) कर रहे थे। उनके चेहरे भयानक मुखौटों से ढके थे – कोई यमराज जैसा, कोई भैरव जैसा – और वे धीमी ताल पर नृत्य कर रहे थे। अन्य लामा मंत्रों का उच्चारण करते हुए उन्हे घेरे खड़े थे।
मैंने पहले कभी ऐसा नज़ारा नहीं देखा था। यह एक जीवित नाटक जैसा लगा जिसमें अध्यात्म, कला और तंत्र का मिश्रण था। मुझे पता चला कि यह विशेष पूजा साल में एक बार होती है, जिसमें बुरी आत्माओं को नृत्य-नाटिका द्वारा काबू में करने की प्रतीकात्मक कथा दिखाई जाती है। यह हमारा सौभाग्य था कि हम ठीक ऐसे दिन वहाँ पहुँचे। योंगदेन ने धीरे से मेरे कान में फुसफुसाकर बताया कि मुखौटे पहने ये लामा देवताओं के रूप धरे हुए हैं, और इनके नृत्य के अंत में प्रतीक रूप से राक्षस का नाश दिखाया जाएगा, जिससे साल भर के लिए गाँव और मठ की बुरी शक्तियों से रक्षा होगी।
मैं मंत्रमुग्ध होकर देखती रही। उन मुखौटों की बड़ी-बड़ी आंखें, लंबे दाँत और रंगीन पोशाकें किसी को भी भयभीत कर सकती थीं, पर साथ ही उनकी लयबद्ध चाल और संगीत ने समा बांध रखा था। स्थानीय ग्रामीण महिलाएँ और बच्चे आंगन के किनारे चुपचाप बैठे ये तमाशा देख रहे थे, मानो उन्हें इस कथा के हर मोड़ का पता हो। अचानक नगाड़ों की ताल तेज़ हुई, एक मुखौटाधारी लामा ने तलवार निकालकर बीच में रखे आटे के पुतले को काट डाला – पुतला एक राक्षस का प्रतिनिधित्व कर रहा था। दर्शकों ने "सु-सु!" जैसे तिब्बती शब्द के साथ समर्थन में जयध्वनि की। फिर सब शान्त हो गया और धीरे-धीरे लामा क्रमबद्ध होकर भीतर चले गए। पूजा संपन्न हुई। मैंने महसूस किया मानो अदृश्य सुरक्षा-कवच हमारे आसपास बुन दिया गया हो।
पूजा समाप्ति के बाद हमें मठ में भ्रमण करने का अवसर मिला। उस मठ की विशालता चकित करने वाली थी – कई आंगन, प्रार्थना कक्ष, अध्ययन कक्ष, रसोई और भिक्षुओं के रहने के लिए कोठरियाँ। हमने देखा कि अलग-अलग हिस्सों में अलग कार्य हो रहे थे। कहीं भिक्षु पाली भाषा का पाठ कर रहे थे, तो कहीं शिक्षक भिक्षुओं को बौद्ध दर्शन पर व्याख्यान दे रहा था। एक जगह युवा शिष्य तिब्बती व्याकरण और संस्कृत श्लोक याद करने में तल्लीन थे।
इस मठ में हमारी पहचान कोई नहीं जानता था, इसलिए हम सामान्य श्रद्धालु की भांति ही घूम रहे थे। एक कक्ष के निकट से गुज़रते हुए मैंने कुछ अजीबो-गरीब ध्वनि सुनी – "हिक्! ... फट्!" ऐसा लगा जैसे कोई अचानक ज़ोर से चीख़ता है फिर ख़ामोशी छा जाती है। पहले तो मैं चौंकी, सोचा शायद मुझे भ्रम हुआ। पर दोबारा वही हुआ – कुछ भिक्षु एक साथ "फट्!" शब्द चिल्लाते, फिर कुछ बुदबुदाते। यह किसी मंत्रोच्चार जैसा नहीं था, बल्कि कोई अभ्यास प्रतीत हो रहा था। मेरे चेहरे पर जिज्ञासा देख योंगदेन भी ध्यान से सुनने लगा। उसने भौहें सिकोड़ीं – शायद उसे आभास हुआ कि यह साधारण क्रिया नहीं है।
आखिर हमने हिम्मत करके कक्ष के दरवाज़े से झाँका। भीतर चार युवा लामा एक वृत्त बनाकर खड़े थे। उनके सामने एक वरिष्ठ गुरु जैसा लामा डंडा हाथ में लिए कुछ समझा रहा था। अचानक वह गुरु ज़ोर से बोले, "हिक्!" और शिष्यों ने तुरंत दहाड़-सी लगाई, "फट्!" इस के साथ ही गुरु ने डंडा ज़मीन पर पटका। फिर सब शांत हो गया। गुरु फिर कुछ क्षण बोलते रहे, फिर से वही क्रम दोहराया गया। मैं चकित थी – ये आखिर क्या कर रहे हैं? ऐसा लगा मानो किसी अजीब युद्ध कला का अभ्यास हो रहा हो।
योंगदेन ने मेरा हाथ पकड़ कर धीरे से पीछे हटाया। उसने फुसफुसाकर कहा, "यह अत्यंत गोपनीय साधना है जिसे फोवा कहते हैं – चेतना को शरीर से बाहर निकालने की विद्या। 'हिक्' और 'फट्' उसके बीज मंत्र हैं। बिना पूर्ण योग्यता के इन्हें चिल्लाना प्राणघातक हो सकता है। हमें नहीं देखना चाहिए, यह अनुचित होगा।" मैंने हैरानी से उसे देखा – प्राणघातक? उसने सिर हिलाया, "हाँ, मैंने सुना है कि यदि कोई बिना गुरु के सही मार्गदर्शन के 'फट्' का उच्चारण करते हुए मन को एकाग्र कर ले, तो उसकी आत्मा शरीर छोड़ सकती है। अनुभवी लामा इस विद्या का प्रयोग करते हैं मरते समय, अपनी आत्मा को मुक्त करने के लिए, या कभी-कभी किसी और के शरीर में प्रवेश करने के लिए। ये शिष्य संभवतः इसका अभ्यास कर रहे हैं।"
मेरे रोंगटे खड़े हो गए। ज्ञान और साधना का ऐसा पक्ष मैंने कभी नहीं जाना था। एक शब्द की शक्ति आत्मा को देह से जुदा कर सकती है – यह कोई जादुई कल्पना लगती थी। मैंने तुरंत दरवाज़े से निगाह हटा ली, कहीं हमारी जासूसी से वे भिक्षु भंग न हों। लेकिन मन में उत्सुकता थी कि कहीं इस अभ्यास में कोई अनहोनी न हो जाए। और सचमुच, तभी अंदर से थोड़ी हलचल की आवाज़ आई – मानो कोई गिर पड़ा हो। हमने सुना गुरु थोड़ा ऊँचे स्वर में डाँट रहे थे, "ध्यान दो! बिना पूर्ण एकाग्रता के 'फट्' नहीं उच्चारना!" शायद किसी शिष्य का संतुलन बिगड़ा था।
हम तेज़ी से वहाँ से हट गए। मैंने रास्ते में योंगदेन से और पूछा, तो वह बोला, "यह विद्या केवल उच्च कोटि के योगियों के लिए है। कहते हैं कुछ माहिर लामा दूसरों के मरते समय 'फट्' बोलकर उनकी आत्मा को बंधन-मुक्त कर देते हैं, और कुछ इतने प्रबल होते हैं कि अपनी चेतना को शरीर से निकाल कहीं और भेज सकते हैं।" मेरा मन इन बातों से आंदोलित हो उठा। उस बड़े मठ में हमने एक खिड़की से झाँककर जिस गूढ़ साधना की झलक पाई थी, उसने तिब्बत के जादुई पक्ष पर एक और मुहर लगा दी।
इस घटना के पश्चात मैंने उस मठ को और भी आदर की दृष्टि से देखा – यहाँ ऐसे रहस्य सिखाए जाते हैं जिनकी कल्पना भी बाहर की दुनिया नहीं कर सकती। हम मठ के पुस्तकालय में भी गए जहाँ एक वृद्ध अनुवादक लामा तांत्रिक ग्रंथ का चीनी भाषा में अनुवाद कर रहे थे। मैंने बातों-बातों में उनसे पूछा कि क्या तिब्बत में आत्मा को शरीर से अलग करने जैसी विद्याओं का उल्लेख प्राचीन पुस्तकों में है। उन्होंने चश्मे के ऊपर से देखते हुए मुस्कुराकर कहा, "हाँ, हमारे महान गुरुओं ने 'Pho-wa' (फोवा) यानि चेतना स्थानांतरण पर बहुत कुछ लिखा है। यह करुणा से जुड़ी विद्या है – हम दूसरों को मृत्यु के बाद बेहतर पुनर्जन्म में सहायता करते हैं। परन्तु यह दोधारी तलवार समान है, अनुशासन न हो तो घातक है। इसलिए इसे गुप्त ही रखा जाता है।"
मैंने सम्मान में सिर झुका लिया। इस धरती में हर ज्ञान को गम्भीरता से लेने की परंपरा थी। पश्चिम में जहाँ ऐसी बातों को कोरी कल्पना कहकर टाल दिया जाता, यहाँ सदियों से इनपर अभ्यास और विमर्श हुआ था। मेरे हृदय में तिब्बती संस्कृति के प्रति और गहन श्रद्धा उमड़ आई।
उसी शाम हमें उस मठ में रुकने की अनुमति तो नहीं मिली – बाहरी तीर्थयात्रियों के लिए विश्रामगृह अलग था – लेकिन हमने दिनभर जो देखा था, वह आँखों में बसा रहा। रात में हम मठ के बाहरी प्रांगण में रहे जहां कुछ अन्य यात्री भी डेरा डाले थे। खुले आकाश के नीचे लेटे-लेटे मैं मठ के परिसर की ओर देखती रही, जहाँ कुछ खिड़कियों से दीपकों की हल्की रोशनी टिमटिमा रही थी। यदा-कदा भीतर से घंटी या शंख की ध्वनि सुनाई दे जाती, शायद देर रात की आरती चल रही थी।
उस अँधेरी शांत घड़ी में मैंने अपनी यात्रा के मकसद को फिर याद किया – मैं इन रहस्यों को ढूँढ़ने ही तो आई थी। आज एक पवित्र मठ की झलक ने साबित कर दिया कि तिब्बत सचमुच चमत्कारों की खान है। मैंने स्वयं देखा कि कैसे साधारण मनुष्य कठोर अनुशासन से असाधारण क्षमताएँ अर्जित कर सकते हैं – चाहे वह राक्षसों का नृत्य रूपक हो, मंत्रों के बल से आत्मा को नियंत्रित करना, या ध्यान की गहराइयों में उतरना।
तारों भरे आसमान के नीचे, उस ठंडे पठार पर लेटे हुए, मैंने खुद से कहा – आगे बढ़ो, और गहरे उतरो इस जादुई संसार में। अभी तो शुरुआत है। मेरे आस-पास कुछ तीर्थयात्री खर्राटे भर रहे थे, पर मेरी आँखों में नींद नहीं थी। मन उसी गुरु के शब्द 'फट्' पर अटका था। सोचते-सोचते कब हल्की आँख लगी पता नहीं चला। सपने में मैंने खुद को एक विशाल हिमगुफा में खड़ा देखा जहाँ गूँज रही थी – "फट्!...फट्!" – और अचानक एक उजली आकृति मेरे शरीर से निकल ऊपर आसमान की ओर उड़ चली। मैं घबराकर जाग गई, ठंडे पसीने में भीगी हुई। साँसें तेज़ थीं। योंगदेन ने पास सरक कर पूछा, "क्या हुआ?" मैंने सिर हिलाकर कहा, "कुछ नहीं, एक सपना था।" लेकिन मन ही मन मैंने उस शक्ति को प्रणाम किया, जो इस रहस्यमय भूमि में कण-कण में भरी थी। रात के अंतिम पहर मैं फिर सो गई, यह निश्चय लेकर कि मुझे और जानना है, और सीखना है – उन रहस्यों को प्रत्यक्ष अनुभव करना है जिनकी झलक भर मिली है।
बर्फीले तपस्वी
कुछ दिन बाद हम और उत्तर की ओर, ऊँचे और निर्जन इलाक़ों में बढ़ चले, जहाँ आबादी विरल थी पर ध्यान-साधना में लीन साधुओं के होने की बातें कही जाती थीं। तिब्बत के दुर्गम पहाड़ों में अनेक गुफाएँ और कुटियाँ थीं जहाँ एकांतवासी योगी वर्षों से तप कर रहे थे। मेरा इरादा था कि कम से कम एक ऐसे तपस्वी से अवश्य मिलूँ जो हिमालय की कंदराओं में साधना कर रहा हो। मैं जानना चाहती थी कि कैसे मनुष्य ऐसी कठिन परिस्थितियों में जीवित रहकर आत्मिक शक्ति प्राप्त कर सकते हैं।
हमें एक स्थानीय चरवाहे से पता चला कि पास के पहाड़ पर एक "गुमछेन" (महान तपस्वी) रहते हैं, जो वर्षों से अकेले ध्यान में रत हैं। यह स्थान हमारे रास्ते से कुछ हटकर था, लेकिन अवसर अनमोल था। मैंने योंगदेन की ओर देखा और वह तुरंत समझ गया – हम उस ओर चल पड़े। रास्ता आसान नहीं था: घाटी से ऊपर पहाड़ी तक पतली पगडंडी, बर्फीली ठंड और तेज़ हवा जो चेहरे को चीरती हुई चल रही थी। हम एक दिन में उस क्षेत्र के नज़दीक पहुँचे, और रात को खुले आसमान तले डेरा डाला।
सुबह उठते ही हमने देखा कि पहाड़ की चोटी की तरफ़ एक ओर धुआँ-सा उठ रहा है। शायद वहाँ किसी ने यज्ञ या आग जलाई हो। योंगदेन ने अनुमान लगाया कि संभवतः वह तपस्वी वहीं हैं और सुबह की आग ताप रहे होंगे। हमने उसी दिशा में चढ़ाई शुरू कर दी। सांसें फूल रही थीं, हवा विरल थी और ठंड भीषण। पर दिल में उत्साह ने हमें रुकने नहीं दिया। दोपहर होते-होते हम उस शिखर के पास पहुँचे। वहाँ बर्फ पर पैरों के कुछ निशान दिखे जो एक ओर मुड़कर पत्थरों के ढेर के पीछे गायब हो रहे थे। हमने उन निशानों का पीछा किया।
चट्टानों के पीछे एक छोटी-सी समतल ज़मीन थी, जिस पर पत्थरों को जोड़कर एक झोंपड़ीनुमा कुटिया बनाई गई थी। बाहर याक के गोबर के सूखे उपले और कुछ लकड़ियाँ रखी थीं। पास ही एक साफ़ जगह पर प्रार्थना झंडे लगा एक खंबा था, जो हवा में लहरा रहे थे। हम समझ गए कि यही उस तपस्वी का निवास है। आदर में हमने कुछ दूर से ही आवाज़ लगाई, "ठाकरचे ला सो!" (तिब्बती में, "क्षमा करें महान योगी!")। कोई उत्तर नहीं आया। हमने करीब जाकर पुनः पुकारा। भीतर से खंखारने की आवाज़ आई और फिर दरवाज़े जैसा कुछ नहीं था तो बोरे का पर्दा हटा कर एक कृशकाय आकृति बाहर निकली।
मैंने जितने साधु अब तक देखे थे, यह उनसे भिन्न थे। वे एक अधेड़ उम्र के पुरुष थे, पर उम्र का ठीक अंदाज़ा लगाना कठिन था – हवा और सर्दी ने चेहरा चमड़ा जैसा सख्त बना दिया था, बाल और दाढ़ी जटा की तरह उलझे लेकिन कहीं-कहीं सफेदी झलक रही थी। तन पर मात्र मलमल का एक फ़टा-पुराना सफेद वस्त्र लिपटा था, जिसे देख मुझे ठिठुरन महसूस हुई जबकि तेज़ हवा चल रही थी। पैरों में कोई जूते नहीं, नंगे पैर बर्फ पर ऐसे खड़े जैसे गर्म ज़मीन हो। उनकी आँखें अंदर धँसी हुई थीं मगर उनमें एक तेज प्रकाश था।
उन्होंने हमें देखा और आश्चर्य से शायद पहचाना कि मैं विदेशी हूँ। मैं झटपट तिब्बती में बोली, "क्षमा करें, हमने आपको कष्ट दिया। हम यात्री हैं, आपके दर्शनों की आकांक्षा थी।" वे कुछ क्षण चुपचाप हमें निहारते रहे, फिर मुस्कुरा दिए। उनका मुस्कुराना ऐसा था जैसे बरसों बाद किसी को देखकर हृदय पुलकित हुआ हो। बहुत धीमी, लगभग फुसफुसाती आवाज़ में उन्होंने कहा, "आओ, भीतर आ जाओ।"
हमने जूते बाहर उतारे (यद्यपि मेरे जूते भी फटेहाल थे, मगर उन्होंने खुद नंगे पैर रहकर हमें आदर दिया था, तो हम क्या जूते पहने रहते)। कुटिया के भीतर अँधेरा था, छोटे से द्वार से आती रोशनी ही पर्याप्त थी। अन्दर एक कोने में पत्थरों से घिरा अग्निकुंड था जिसमें धीमी आँच पर अंगारे सुलग रहे थे। पास ही एक मिट्टी का प्याला और पानी का घड़ा। दीवार पर कुछ थंगका चित्र लटके थे, और एक ढेर में कुशा के कालीन और कम्बल। बहुत ही साधारण, लगभग कुछ नहीं – यही उस योगी का संसार था।
वे योगी – हमें बाद में पता चला कि लोग उन्हें "लाछेन गोंपोरिनपोछे" कहते हैं – इशारे से हमें बैठने को कहा। मैं और योंगदेन भूमि पर पालथी मारकर बैठ गए। तापमान अंदर थोड़ा बेहतर था, पर फिर भी हमारी उंगलियाँ सुन्न थीं। योगी ने अग्निकुंड में कुछ याक के गोबर के सूखे टुकड़े डाले जिससे आग तेज़ हुई और गरमाहट बढ़ी। फिर उन्होंने एक पुराना लोहे का बर्तन उठाया, उसमें थोड़ी बर्फ डालकर आग पर रख दी। ऐसा लगता था जैसे वे हमारे लिए पानी पिघलाकर कुछ गरम पेय बनाने वाले हैं।
कुछ ही मिनटों में पानी पिघलकर उबाल पर आया। उन्होंने पास ही कटोरे में रखा थोड़ा सत्तू जैसा भुना जौ (त्सम्पा) और चुटकी भर नमक पानी में डाला, और एक कुट्टी लकड़ी से चलाने लगे। सरल-सा सूप तैयार था। उन्होंने तीन मिट्टी के प्याले निकाले, हम दोनों को एक-एक भरकर दिए और एक खुद लिया। मैं संकोच में थी – हमारे कारण वे अपना बहुमूल्य राशन खर्च कर रहे थे। लेकिन इनकार करना उनका अपमान होता, इसलिए चुपचाप हाथ बढ़ाकर लिया। गरम घोल स्वाद में बहुत सादा था, पर उस माहौल में वह अमृत समान लगा।
कुछ घूंट पीने के बाद योगी ने नरम स्वर में पूछा, "तुम कहाँ से आए?" मैंने संक्षेप में अपनी यात्रा की बात बताई कि हम तीर्थयात्री हैं, बुद्ध के देश तिब्बत की ज्ञान-खोज में निकले हैं। उन्होंने "हूं" कहकर हामी भरी और मुस्कुरा कर बोले, "ज्ञान-खोज के लिए अच्छा स्थान चुना है तुमने।" फिर वे खुद ही बोलने लगे, मानो बहुत दिनों बाद मानवीय संगत मिली हो, "मैं यहाँ बीस साल से हूँ। कभी-कभी चरवाहे आकर खाना दे जाते हैं, नहीं तो बर्फ ही पिघला कर पी लेता हूँ, जंगली कंद-मूल खा लेता हूँ। शरीर को अधिक की आवश्यकता नहीं जब मन को ब्रह्मांड से आहार मिलता रहे।" उनकी आँखें चमक रही थीं जब वे यह कह रहे थे। मैंने अनुभव किया कि उनका शरीर भले दुर्बल था, पर उनमें एक अदृश्य शक्ति का भंडार था जो शायद सतत ध्यान से प्राप्त हुआ था।
मैंने धीरे से पूछा, "बर्फ और ठंड में इतने वर्षों से कैसे निर्वाह कर पाए? क्या आपको ठंड नहीं लगती?" इस पर वे हल्के से हँसे। बोले, "शरीर को ठंड लगे, उससे पहले मन को ठंड के बंधन से मुक्त करना होता है।" यह कहते हुए उन्होंने पास रखे अपने पतले कपड़े को उठाया और मुझे दिखाया, "मेरा वस्त्र देखो, कुछ नहीं यह, फिर भी मैं सर्दी में जीवित हूँ। यह तपस्या की अग्नि है जो भीतर जलती है, उसी की गर्मी बाहर तन को भी मिलती है।" मुझे तुरंत याद आया – कहीं यह वही साधना तो नहीं, जिसका ज़िक्र मैंने सुना था? मैंने उत्सुकतावश कहा, "क्या यह 'तुमो' है जिसके बारे में सुना है – अंदरूनी ऊष्मा की योगविद्या?" योगी आश्चर्यमिश्रित प्रसन्नता से मुझे देखा, "हाँ, तुमो (तुम्मो) ही कहते हैं इसे। लगता है तुमने पहले से कुछ ज्ञान अर्जित किया है।"
अब तो मेरा संकोच थोड़ा कम हुआ, मैंने विनम्रतापूर्वक अनुरोध किया, "कृपया हमें इसके बारे में बताइए।" योगी ने हामी भरी और समझाना शुरू किया, "प्रत्येक मनुष्य के भीतर एक अग्नि है, जो साधारण अवस्था में सुप्त रहती है। हम सांस, ध्यान और मानसिक चित्रण (विज़ुअलाइज़ेशन) के ज़रिये उसे प्रज्वलित करना सीखते हैं। धीरे-धीरे वह इतनी प्रबल हो जाती है कि तूफ़ानी बर्फ़ीली हवा भी उसका कुछ नहीं बिगाड़ पाती। साधक हिम पर बैठे-बैठे घंटों ध्यान करते हैं और उनके चारों ओर का हिम पिघल जाता है।" मैं तल्लीन होकर सुन रही थी, जैसे किसी परीकथा की बात हो, पर सामने बैठे व्यक्ति की जीवित मिसाल मुझे विश्वास दिला रही थी।
उन्होंने आगे कहा, "हमारे दीक्षा समारोह में एक परीक्षा भी होती है। एक जाड़े की रात, जब चाँद पूरी तरह निकला हो, शिष्य को झील के किनारे बर्फ में निर्वस्त्र ध्यानमग्न बैठाया जाता है। फिर गुरु गीले कपड़े चादर की तरह शिष्य के कंधों पर डालते जाते हैं। शिष्य को अपने 'तुमो' अर्थात आंतरिक गर्मी से उन कपड़ों को सुखाना होता है। रात भर में जितनी चादरें सुख जाएँ, उसी से उसकी साधना की परिपक्वता आँकी जाती है। कई लोग तो एक ही चादर में काँपते रह जाते हैं, उन्हें अभी और अभ्यास की जरूरत होती है। पर जो अनेक चादरें सुखा दें, वे सिद्धि की ओर अग्रसर माने जाते हैं।" यह वर्णन सुनकर मेरी श्वास रुक सी गई – बर्फीली रात में ठंडा गीला कपड़ा शरीर पर रखना और उसे भाप बनाकर सुखा देना! यह कोई चमत्कार से कम नहीं।
मैंने पूछा, "क्या आपने भी ऐसा किया है?" योगी ने मुस्कुरा कर स्वीकृति में सिर हिलाया। "बरसों पहले, जब गुरु के साथ मैंने दीक्षा ली थी, तब मैं भी बहुत डर रहा था। पहाड़ों पर कड़क सर्दी थी। पहली चादर में ही मेरा बदन कांप उठा था। पर गुरु ने पीछे से फुसफुसाकर कहा, 'डरो मत, अपने भीतर दीप जलाओ। बुद्ध का स्मरण करो, उस अग्नि को अनुभव करो जो जीवन का मूल है।' मैंने आँखें मूँदकर प्रार्थना की और एक लाल-रंग की ज्योति अपने नाभि स्थान पर जलती महसूस की। फिर चमत्कार हुआ – कंपकंपी रुक गई, शरीर तपने लगा। एक नहीं, तीन चादरें सुखा सका उस रात!" उनकी बात सुनकर मैंने सहज ही उनके चरण छू लिए। मानव शरीर की छिपी शक्तियों का ऐसा प्रमाण मेरे सामने था।
योगी ने आशीर्वाद देते हुए हाथ उठाया और मुझे बैठने का इशारा किया। "लेकिन सावधान," वे बोले, "तुमो का अभिमान नहीं करना चाहिए। यह केवल साधन है, साध्य नहीं। हम इसे जीवन रक्षा और ध्यान में गहराई के लिए अपनाते हैं, प्रदर्शन के लिए नहीं। जो इसे दिखावा बनाते हैं, उनकी मानसिक दिशा गलत हो जाती है।" उनकी चेतावनी में गुरु-सुलभ कठोरता थी। मैंने सिर हिलाकर सहमति जताई।
संध्या होने को आई थी। गुफा के द्वार से बाहर देखा तो सूरज पहाड़ियों के पीछे छिप रहा था और गहरा नीला आकाश और गहरा गया था। हमने सोचा था थोड़ा ठहरकर नीचे लौट जाएँगे, पर सर्द हवा और बढ़ गई थी। योगी ने आग्रह किया कि हम रात यहीं बिता लें, सुबह उतर जाना। सच तो यह था कि मैं भी और समय उनके संग बिताना चाहती थी। हमने कृतज्ञता से यह प्रस्ताव मान लिया।
उस रात कुटिया में हम तीनों ने मिलकर प्रार्थना की। योगी ने एक धीमा-सा गीत गाया, जो वास्तव में गुरु पद्मसंभव के समय से प्रचलित कोई प्रार्थना थी। उसकी धुन पहाड़ों में गूंजती रही। मैं और योंगदेन कंबल ओढ़ कर एक ओर लेट गए, और योगी अपनी साधना में मग्न हो गए। आधी रात को मेरी आँख खुली तो देखा कि योगी निर्वस्त्र बदन बाहर जमी बर्फ पर पद्मासन में बैठे हैं, और उनके चारों ओर भाप-सी उठ रही है। प्रकाश केवल तारों का था, फिर भी वह दृश्य साफ दिख रहा था – मानो उनका शरीर अग्नि कुंड बन गया हो। मैंने योंगदेन को हल्के से छुआ, वह भी देख दंग रह गया। हमें समझ आ गया कि वे अपने अभ्यास में लीन हैं। हम चुपचाप निहारते रहे। ऐसा आभास हुआ जैसे उनके चारों ओर एक ताप का घेरा बना है, क्योंकि पास पड़ी बर्फ पिघल कर चमक रही थी। थोड़ी देर बाद वे उठे, अपना कपड़ा ओढ़कर अंदर आ गए।
सुबह जब आंख खुली, तो वे योगी हमें विदा देने तैयार थे। शायद सूर्योदय से बहुत पहले वे फिर ध्यान में बैठ गए होंगे। हमें लौटने से पहले उन्होंने एक सलाह दी: "आगे यात्रा में और भी कठिनाइयाँ आएंगी। अपने भीतर की ऊर्जा को जगाए रखना। भय को मन पर हावी मत होने देना। जिस उद्देश्य से आई हो, उसे याद रखना, शेष सारा सहारा अपने-आप मिलता जाएगा।" मैं उन शब्दों को मानो अपने हृदय पर लिख लेना चाहती थी।
विदा के समय मैंने साहस करके पूछा, "क्या आपको किसी चीज़ की आवश्यकता है? भोजन, कपड़े...?" वे हँसे, "मुझे भौतिक चीज़ों की ज़रूरत बहुत कम है, बेटी। यदि देना ही चाहो तो बस अपने मन में मेरे प्रति और जगत के प्रति प्रेम रखना। वही सबसे बड़ी संपदा है।" उनकी सरल पर गूढ़ बात ने मुझे निरुत्तर कर दिया। मैंने उनके चरणों में सिर झुकाया। उन्होंने मेरे सिर पर हाथ रखा; एक गर्मी-सी मेरे पूरे शरीर में फैल गई, जैसे कोई आशीर्वाद की शक्ति मिली हो।
योंगदेन ने भी सम्मानपूर्वक उन्हें प्रणाम किया और हम वापस पर्वत से नीचे उतरने लगे। रास्ते भर हम मौन थे, पर मन में विचारों का कोलाहल था। मैंने जीवन में पहली बार किसी इंसान में अलौकिक क्षमता को इतने करीब से महसूस किया था। 'बर्फीले तपस्वी' – मैं सोचने लगी कि ऐसे ही साधुओं की कहानियाँ पश्चिम में चमत्कार बनकर पहुँचती हैं। मगर उनके लिए यह जीवन जीने का एक तरीका भर है, अपनी आत्मा को ऊँचा उठाने का मार्ग। उस सुबह सूर्य की रोशनी जब हम पर पड़ी, तो लगा कि हम भी उस अग्नि का अंश लेकर लौट रहे हैं।
मन से मन का संवाद
तपस्वी योगी से मिलकर हम नए स्फूर्ति और आत्मविश्वास के साथ आगे बढ़े। मेरी यात्रा अब तक अद्भुत अनुभवों से भरी थी – लेकिन तिब्बत के जादुई पहलू का एक और पहलू था जिसकी झलक मुझे आगे मिलने वाली थी: दूर-संवेदना या टेलीपैथी, जिसे मैं 'मन से मन का संवाद' कहती हूँ। तिब्बतियों के बीच ऐसी कहानियाँ आम थीं कि योग्य गुरु और शिष्य मीलों की दूरी पर बैठे-बैठे बिना बोले एक-दूसरे के विचार जान लेते हैं। मैं सोचती थी, क्या यह संभव है? शीघ्र ही मुझे स्वयं एक ऐसी घटना से दो-चार होना पड़ा जिसने मेरे संशय मिटा दिए।
हम कई महीनों से यात्रा करते हुए मध्य तिब्बत के विस्तृत और वीरान पठारों पर पहुँच गए थे। दिन में सूर्य की तपिश और रात में कठोर सर्दी – मौसम की मार लगातार झेलते हुए हमारे वस्त्र जर्जर हो चले थे, और शारीरिक थकान भी बढ़ रही थी। हमारा भोजन भी साधारण हो गया था: सूखा त्सम्पा और कभी-कभार मिला याक का सूखा मांस। चाय और मक्खन मिलना अब दुर्लभ हो गया था क्योंकि आबादी से दूर थे। ऐसे में, एक दिन, हम एक ऊँची बंजर घाटी में चल रहे थे। पेट में अन्न का दाना सुबह से नहीं गया था और पानी भी सीमित ही था।
दोपहर हुई तो क्षितिज पर कुछ आकृतियाँ दिखाई दीं – शायद लोग या घोड़े। पास आने पर दिखा कि एक सम्मानित-सा दिखने वाला लामा तीन शिष्यों के साथ यात्रा कर रहा था। उनके पास घोड़ों पर सामान था, और वे शायद कहीं जा रहे थे। हम वैसे तो आमतौर पर राह में दूसरों से बचते-बचाते चलते थे (डर था कि कहीं कोई हमें पहचान न ले कि मैं विदेशी स्त्री हूँ), मगर इस निर्जन स्थान पर उनसे दूर रहना संभव नहीं था। भूख-प्यास के मारे हालत भी ख़राब थी, तो सोचा इनसे भिक्षा में कुछ चाय-खाने को मिल जाए तो जीवनदान जैसा होगा।
हमने करीब पहुँचकर विनम्रता से उस लामा का अभिवादन किया। वह एक अधेड़ वृद्ध थे, शांति और गरिमा से युक्त चेहरा, बढ़िया ऊनी चोगा और टोपी पहने हुए। उनके तीन युवा शिष्य भी भालुओं की खाल के जैकेट पहने घोड़ों के पास खड़े थे। हमें देखते ही वे समझ गए कि हम साधारण तीर्थयात्री हैं। मैंने गौर किया कि हमारे मैले-कुचैले कपड़े और थके चेहरे देखकर शायद उन्हें हम पर दया भी आई।
उनके कारवाँ ने पहले से ही एक छोटी आग जला कर आराम करना शुरू कर दिया था। हमने देखा कि लाल मिट्टी की एक केतली में चाय उबल रही थी और वे खाना खा रहे थे। हमारे चेहरे पर उन पकवानों को देख ललचाहट ज़रूर आ गई होगी। लामा ने हामी भरी और हमें पास बैठने का संकेत किया। उन्होंने तिब्बती में कहा, "बिना संकोच के बैठो, यन्त्र (भिक्षु) लोग!" और अपने शिष्यों को कुछ इशारा किया।
एक शिष्य ने प्रसाद-स्वरूप हमारे कटोरे में गर्म चाय डाली और थोड़ा त्सम्पा भी दिया। हम कृतज्ञ थे। गर्म चाय का घूंट पेट में जाते ही जैसे जान लौट आई। योंगदेन और मैंने थोड़ा भोजन कर लिया और पेट में आग बुझी तो दिमाग फिर सोचने लगा – मैंने ध्यान दिया, उस लामा के पास एक मिट्टी का मटके जैसा बर्तन खाली पड़ा था जिसपर दही का लेप लगा हुआ था। शायद उन्होंने अभी थोड़ी देर पहले ही छाछ या दही पिया था। मेरी भारतीय परवरिश में दही-छाछ से आत्मीयता थी और महीनों से कुछ भी ताज़ा या दुग्धजन्य नहीं चखा था। उस दही के अवशेष को देख मेरे मुँह में पानी आ गया। वह बर्तन ज़रा दूरी पर रखा था और मैं उसे एक टक घूरने लगी।
योंगदेन को भी मेरा मन पता चल गया। मैंने धीमे से उससे अपनी भाषा में कहा, "जब लामा यहाँ से चले जाएंगे तो उस फार्म (वहाँ पास में एक फार्म या घर दिख रहा था) पर चलकर थोड़ा दही मांग लेना, अगर मिल सके तो।" यह बात मैंने बहुत धीरे फुसफुसाकर कही थी, और हम लामा से कुछ दूर थे। मुझे लगा किसी ने नहीं सुना होगा। लामा अपने शिष्यों से कुछ बात कर रहे थे और हम अलग किनारे बैठे थे।
अचानक, उस शांत वातावरण में एक अप्रत्याशित चीज़ हुई। लामा, जो अब तक हमसे ज़्यादा बात-चीत में रुचि नहीं दिखा रहे थे, ने हमारी ओर एक पैनी नज़र डाली। उन्होंने तिब्बती में एक शब्द कहा – "निँज्हे!" ("निingजे" जिसका अर्थ करुणा या दया के भाव में "अरे बेچارों" जैसा कुछ है)। फिर उन्होंने अपने शिष्यों से बातचीत रोक दी और पास खड़े घोड़ों की तरफ देखने लगे। उसी क्षण, उनके बंधे घोड़ों में से एक अचानक हिनहिनाया और बिदक कर भागने लगा। एक शिष्य तुरंत पीछे रस्सी लेकर दौड़ा। घोड़ा दूर एक खेत की ओर भाग रहा था। हम देखते रह गए कि घोड़ा एक दूर के कृषक के घर (फार्म) की ओर चला गया। वह शिष्य उसे पकड़ने गया, मगर घोड़ा ठिठककर उस घर के पास रुक गया। फिर शिष्य ने उसे काबू में कर लिया और रस्सी से एक पत्थर के खूँटे से बाँध दिया।
लेकिन हैरत की बात ये हुई – उस शिष्य ने, घोड़ा बाँधने के बाद, अचानक इधर-उधर देखा और सीधा उस घर की ओर चल दिया। वह घर, जिससे कुछ दूरी पर हम बैठे थे, शायद दही-छाछ बनाने वाला फार्म ही था। हमने देखा, कुछ देर बाद वह शिष्य वापस लौटा तो उसके हाथ में लकड़ी का वही मिट्टी लेपा बर्तन था जिसे हमने पहले देखा था – और अब वह दही से भरा हुआ था! उसने आकर प्रश्नसूचक दृष्टि से अपने गुरु, उस लामा, को देखा मानो पूछ रहा हो, "आपने दही मंगाया था?" लामा ने बिना कुछ बोले अपनी ठोड़ी एक हल्की हाँ में हिलाई और इशारा किया कि बर्तन मुझे दे दे। मैं आश्चर्य से भौंचक्की थी। शिष्य ने आज्ञाकारी भाव से वह भरा बर्तन मेरे हाथों में थमा दिया।
मेरी आँखों में अविश्वास और कृतज्ञता एक साथ उमड़ पड़े। मैंने काँपते स्वर में धन्यवाद दिया। दही गाढ़ा और ताज़ा था। मैंने योंगदेन को भी दिया, हम दोनों ने चाव से कुछ चम्मच खाए। वह सच्चे अर्थों में अमृत था उस घड़ी। लेकिन मेरे मन में उथल-पुथल मची थी – यह सब हुआ कैसे? मैंने इतनी धीमी आवाज़ में अपनी इच्छा ज़ाहिर की थी कि निकट बैठे योंगदेन के अलावा कोई सुन नहीं सकता था, वह भी मुश्किल से। तो क्या उस लामा ने मेरे मन को पढ़ लिया? या ऐसी कोई इंद्रिय है जिससे उसने हमारी फुसफुसाहट सुन ली? और फिर घोड़े का यूँ भागना और ठीक उसी फार्म के पास जाकर रुकना जहां से दही मिला – यह तो मानो सोची-समझी योजना थी।
लामा चुपचाप मुस्कुरा रहे थे। उनके आँखों में एक चमक थी, मगर उन्होंने कुछ कहा नहीं। मैंने हिम्मत करके धीरे से उनसे पूछा, "कृपालु लामा, आपने कैसे जाना कि मैं दही की इच्छा रखती हूँ?" इस पर वे मंद हँसी हँसे और बोले, "बेटी, पहाड़ों में प्रार्थनाएँ हवा के साथ उड़ती हैं। मैंने तो बस सुनी और मान ली।" उनकी उत्तर देने की शैली अपरिहार्य थी, उन्होंने सीधे यह स्वीकार नहीं किया कि वे मन की बात जानते हैं, मगर उनका संकेत स्पष्ट था। शिष्यों ने शायद ध्यान नहीं दिया या जानते थे अपने गुरु की क्षमताओं को, क्योंकि वे निर्विकार भाव से अपनी पैकिंग में लगे थे।
अब मेरे मन में उस चमत्कार से जुड़ा संशय जाता रहा। मैंने प्रत्यक्ष अनुभव किया था कि दूर-दूर (या पास-पास भी) मानसिक संदेश संप्रेषित करना तिब्बत के इन सिद्धों के लिए संभव था। मेरे सामने एक भिक्षु ने मेरे मस्तिष्क की तरंग को पढ़कर न सिर्फ समझा, बल्कि सूझबूझ से मेरी जरूरत पूरी भी की, बिना सार्वजनिक रूप से हमारा दान लिया हुआ स्वाभिमान आहत किए। मन ही मन मैंने उस दयालु लामा को धन्यवाद दिया।
हमने वो दही बचा रखा, शाम के लिए भी। वह दल अब आगे बढ़ने को तैयार था। चलते समय लामा ने मुझसे कहा, "आगे यात्रा में मन मजबूत रखना। कभी निराशा घेर ले तो हवा से कहना, वह संदेश पहुँचा देगी, सहायतार्थ कोई न कोई आ ही जाएगा।" मैंने उनकी ओर कृतज्ञता से देखा, और मन में सोचा संभवतः वह मेरे गुरुजनों को इंगित कर रहे हैं जो सोचों के माध्यम से भी मार्गदर्शन करते हैं।
योङदेन और मैं जब उनकी टोली से विदा लेकर विपरीत दिशा में चल पड़े तो काफी देर तक हम बोल नहीं पाए। अंततः मैंने धीमे से कहा, "क्या यह सपना-सा नहीं था?" योङदेन, जो खुद एक युवा lama था और इन बातों पर मुझसे ज्यादा विश्वास रखता था, बोला, "मेरी माँ बताया करती थी कि कुछ संन्यासी गुरु दूर बैठे अपने चेलों से बात कर लेते हैं। आज मैंने भी पहली बार देखा। गुरुजी ने आपके मन की बात 'सुनी' और मेरे खयाल से, उन्होंने अपने एक शिष्य के मन में विचार डाल दिया कि जाओ, उस फार्म से दही लाओ।" मैंने सहमति में सिर हिलाया। घटना का जो भी स्पष्टीकरण हो, इतना तो साफ़ था कि टेलीपैथी – मानसिक संदेश – तिब्बत के इन योगियों के लिए कोई दुष्प्राप्य चमत्कार नहीं, बल्कि एक सीखी-सिखाई विद्या थी।
उस दिन शाम को हमने आग सेंकते हुए दही और त्सम्पा मिलाकर खाना खाया। कई दिनों बाद आत्मा तक तृप्ति महसूस हुई। खाते हुए मैं बार-बार उस लामा को याद करती और मन ही मन आशीर्वाद भेजती। शायद, अगर वास्तव में टेलीपैथी इतनी सामान्य है यहाँ, तो उसे मेरा आभार भी महसूस हो जाए! यह सोचकर मैं मुस्कुरा दी।
उस रात सोने से पूर्व मैंने योंगदेन से कहा, "तुम जानते हो, पश्चिम में बैठे लोग इन बातों पर यक़ीन नहीं करेंगे। वे इसे संयोग या मनगढ़ंत कहानी कहेंगे। पर आज मैंने जाना कि इस वीराने की धरती पर एक अलग ही विज्ञान पनपता रहा है – मन की ताक़त का विज्ञान।" योंगदेन ने हामी भरी। तिब्बत की नीरव रात में दूर आसमान के तारों ने भी मानो अपनी झिलमिलाहट से हामी भरी – हाँ, यहाँ विचार भी पंख लगाकर उड़ते हैं और दिल की आवाज़ सुनी जाती है।
मैंने आँखें मूँदीं तो अपने गुरु केलज़ांग लामा (जिनसे पहले मिली थी) का स्मरण आया। उन्होंने कहा था कि कुछ अनुभवी लामाओं में उनके शिष्य बिना किसी प्रयास के गुरु के विचार समझ लेते हैं। आज मुझे प्रत्यक्ष प्रमाण मिला कि गुरु चाहे पास हो या दूर, एकाग्र चित्त से संप्रेषित विचार शिष्य ग्रहण कर लेता है। इसे ये लोग "मानसिक संदेश हवा पर भेजना" कहते हैं। कहीं-कहीं इसे "मे-वर" (शाब्दिक अर्थ: आग का तार) भी कहते हैं, जैसे हमारे तार-घर के तार होते हैं, वैसे ही मानसिक तरंगें।
मैंने सोचा, मनुष्य की आत्मिक क्षमता कितनी अद्भुत है। भौतिक दूरी महज एक भ्रांति है यदि मन एक हो और तरंगें समान आवृत्ति पर हों। विज्ञान की भाषा में सोचना चाहूँ तो शायद दिमाग किसी रेडियो संचार यंत्र जैसा है, जिसे ट्रेनिंग देकर सिग्नल भेजना और पकड़ना सिखाया जा सकता है। अंतर बस इतना है कि ये संचार किसी यंत्र से नहीं बल्कि साधना से होते हैं। तिब्बत के इन कठिन प्रदेशों में जहाँ कोई तार या डाक व्यवस्था नहीं, वहाँ यह 'टेलीपैथी' सचमुच काम की चीज़ रही होगी – शायद यही उनकी संचार प्रणाली रही सदियों तक। एक लामा यहाँ सोचे कि दूसरे मठ में आगंतुक आने वाले हैं, और दूसरा लामा उसे भाँप ले। सुनने में जादू, पर मेरे लिए अब हक़ीक़त।
इन ख्यालों के साथ मैं तिब्बत की शांत रात में सो गई। एक मीठी तसल्ली साथ थी – कि इस बियाबान में भी मैं कभी अकेली नहीं, मेरे विचार, मेरी प्रार्थना, कहीं न कहीं किसी न किसी तक पहुंच जाएगी। मन से मन का यह संवाद मेरे हृदय को हुलसा गया। अगले दिन हमें फिर कठिन रास्तों पर चलना था, पर आज मन हल्का था, मानो कोई अदृश्य साथी साथ चल रहा हो।
वायुगति योगी
तिब्बत के विस्तृत ऊँचे पठारों और रेगिस्तानी मैदानों में यात्रा करते-करते हमने बहुत कुछ देखा था: बर्फ का साम्राज्य, निर्जन शिखर, और दूर-दूर फैली निष्प्राण लगती भूमि। लेकिन ये भूमि निष्प्राण नहीं थी – यहाँ रहस्य हर दिशा में बिखरे थे। एक ऐसे ही निर्जन, समतल मैदान में मुझे तिब्बत के एक और चमत्कार का साक्षात्कार हुआ – वह था एक "लुंग-गोम्पा" (वायु-दौड़ साधक) से मुलाकात, अर्थात् एक ऐसा योगी जो अनवरत और असाधारण वेग से दौड़ सकता है।
उस दिन हम चांगथांग के उजाड़ मैदान में यात्रा कर रहे थे, जो उत्तरी तिब्बत का विशाल पठार है। चारों ओर घास का बियाबान था, पर न मानव, न वृक्ष, न पशु – बस दूर क्षितिज में नीला आकाश और सुनसान धूरि-धूल भरा समतल। हम घोड़ों पर नहीं, बल्कि पैदल और कभी-कभी याक पर सवार थे। मेरे साथ योंगदेन तो था ही, हमने बीच-बीच में स्थानीय किराए के गाइड और जानवर साथ किए थे, जो कुछ दूर चलकर लौट जाते। मगर इस इलाके में कई दिनों से हमें कोई नहीं मिला था।
दोपहर ढल रही थी, हम मंद गति से चल रहे थे, क्योंकि ऊँचाई पर साँस फूलती थी। अचानक योंगदेन, जो मुझसे कुछ कदम आगे था, रुक गया और उंगली उठाकर दूर इशारा किया, "देेखो!" मैंने आंखें मिचमिचा कर आगे देखा। दूर क्षितिज पर एक छोटा-सा काला बिंदु हिलता-ढुलता दिखा, जैसे कोई चलती मानव आकृति। इतना दूर कि नंगे आँख से कुछ साफ़ नज़र नहीं आ रहा था। हमारे साथ एक स्थानीय कुली भी था, उसने अपना माथे से छाया कर देख कर कहा, "किसी आदमी जैसा लगता है।" मुझे हैरत हुई कि इन वीरानों में कोई अकेला पैदल यात्री? और अगर है तो वह तेज़ी से चल रहा था, तभी तो दूर से भी गतिमान दिख रहा था।
हमारे पास दूरबीन (फील्ड ग्लास) था, मैंने कमर से लटकती छोटी दूरबीन निकाली और देखने लगी। मेरी आँखों ने जो देखा उसपर विश्वास करना कठिन था – वह सचमुच एक मानव आकृति थी, गहरे भूरे वस्त्रों में लिपटा कोई साधु, जो ज़मीन पर कदम कम, छलांग ज़्यादा मारता प्रतीत हो रहा था। वह अकेला व्यक्ति, बिना घोड़े के, बिना किसी संगति के इस निर्जन मरुभूमि को पार कर रहा था। और उसकी चाल अस्वाभाविक रूप से तेज थी, मानो वह धरती को छूते ही वापस हवा में उछल जाता हो। मैंने कभी मनुष्य को ऐसी गति से चलते नहीं देखा था।
मैंने वह दूरबीन योंगदेन को पकड़ाई और पूछा, "क्या तुम भी वही देख रहे हो जो मैं देख रही हूँ?" उसने कुछ पल देख चुपचाप मुझे देखा, उसके चेहरे पर अविश्वास और रोमांच मिला-जुला था। कुली ने चकित होकर कहा, "ये कोई साधारण प्राणी नहीं हो सकता।" तभी कुली के मुँह से निकला, "लामा लुंग-गोंग पा छिग दा..." (यानी "वह एक लुंग-गोम्पा लामा है" तिब्बती भाषा में)। मैंने ये शब्द पहले सुने थे, कहानियों में। मेरे रोंगटे खड़े हो गए। वर्षों से मैंने इस 'लुंग-गोंग' की कहानियाँ सुन रखी थीं – तिब्बत में ऐसी साधना जहाँ योगी हवा सा हल्का होकर निरंतर दौड़ते जाते हैं, कई दिनों तक बिना रुके।
क्या वाकई हमारी किस्मत हमें एक ऐसे जीवित लुंग-गोंग पा से मिलवाने जा रही थी? मुझे अपनी आँखों पर यकीन नहीं हो रहा था। मैंने सुना था ये साधक इतने दुर्लभ हैं कि सालों भटकने पर भी एक-दो से ज़्यादा से शायद ही भेंट हो।
मैंने तेजी से सोचा – हमें उसे रोककर बात करनी चाहिए या कम से कम पास से देखना चाहिए! पर तभी कुली ने घबरा कर कहा, "रोकना नहीं, महाशय, इन्हें रोकना नहीं! कहते हैं इनका ध्यान टूट जाए तो प्राण जाते हैं।" मैंने पहले भी यह सुना था: कि लुंग-गोम्पा ध्यानावस्था में खास तरह की लय से दौड़ते हैं, उन्हें अचानक रोक दिया तो भीतरी संतुलन बिगड़ सकता है, जान को खतरा हो सकता है।
मेरी जिज्ञासा प्रबल थी, लेकिन मैं किसी की जान जोखिम में नहीं डालना चाहती थी। हमने निर्णय किया कि दूर से ही देखते हैं और मार्ग से हट जाते हैं ताकि उसे पता भी न चले कि हम हैं, जिससे वो बिना बाधा आगे बढ़ जाए। हम रास्ता थोड़ा मोड़कर एक ओर ऊँची जमीन पर चले गए ताकि बेहतर दिख सके और सामने न पड़ें।
कुछ ही मिनटों में वह अद्भुत धावक हमारे निकट आ गया। अब बिना दूरबीन भी साफ़ दिखने लगा था। वह कोई चालीस-पैंतालीस वर्ष का भिक्षु प्रतीत होता था, औसत कद, दुबला बदन, लाल-भूरी चरमराहट-भरी पोशाक, और कंधे पर छोटा झोला या कुछ। लेकिन सबसे विचित्र था उसका दौड़ने का ढंग – उसकी आँखें अजीब तौर पर ऊपर की ओर उठी हुई थीं, जैसे किसी trance (उन्माद) में हो, और वह लयबद्ध कदमों से लगभग उछलता हुआ आ रहा था। हर बार उसका पैर ज़मीन से लगता तो शरीर ऐसा उछलता कि दो-तीन मीटर आगे जा गिरता, फिर तुरंत अगला कदम। ऐसा लग रहा था जैसे वह धरती को छू नहीं रहा, बस फिसल रहा हो हवा में।
हम सांस रोके देख रहे थे। उसने हमारी ओर शायद ध्यान नहीं दिया; हम भी एक चट्टान की ओट में थे। समीप आने पर मैंने उसके होंठों को फड़फड़ाते देखा, संभवतः वह कोई मंत्र जप रहा था। हाथ में एक छोटी माला थी जो कमर के पास झूल रही थी, शायद दौड़ते-दौड़ते भी वह जाप रखे हुए था। यह दृश्य मानव क्षमताओं का अतिक्रमण करता दिख रहा था – बिना थके, बिना रुके वह सीधा चला आ रहा था, मानो मशीन हो। और सबसे बड़ा आश्चर्य: उसके पैरों की आहट तक नहीं सुनाई दे रही थी, जो इस शांत मैदान में सुनाई देनी चाहिए थी। उसकी चाल इतनी हल्की थी कि कोई आवाज़ नहीं।
मैं कुछ बोलना चाहती थी पर गला सूख गया था। योंगदेन ने धीरे से मेरे कान में कहा, "दिखने में ये साधारण लगते हैं पर इनका मन वायु में विलीन रहता है।" मैंने सहमति में सिर हिलाया।
जब वह हमारे सामने से गुजरा, हम कुछ दस-बीस कदम दूर थे, तो एक पल को मैंने सोचा आवाज़ दूँ। पर तभी मेरे मन में कुली की चेतावनी गूँज उठी। मैंने खुद को रोका। हमने सिर्फ मौन प्रणाम किया, भले उसे दिखे न दिखे। एक क्षण को ऐसा लगा कि उस व्यक्ति ने अपनी निर्निमेष (पलकों से स्थिर) नजरों के कोने से हमें देखा है, पर उसकी ध्यानावस्था भंग नहीं हुई। उसने ना गति कम की, ना दिशा बदली। कुछ ही पलों में वह आगे निकल कर दूर होता गया।
मैं अब भी स्तब्ध थी। फिर मुझे ध्यान आया – दूरबीन! मैंने फुर्ती से वापस दूरबीन निकाली और उसकी जाती हुई छवि को निहारा। वो अब भी उसी रफ़्तार से बढ़ रहा था। मेरे मन में एक दु:साहसिक ख़याल आया – उसकी तस्वीर खींचना चाहिए थी! पर इस बीहड़ यात्रा में न मेरे पास कैमरा था, न ही उस पल कोई होश कि तस्वीर सोची जाए। खैर, वह चित्र मेरी स्मृतियों में हमेशा के लिए बस गया।
जब वह आकृति बिंदु बन कर ओझल हो गई, तो हम पत्थर की ओट से बाहर निकले और पुनः रास्ते पर आने लगे। कुली अचंभित था और बार-बार आँखें मलकर उस दिशा को देख रहा था। बोला, "मैंने बचपन से कहानियाँ सुनी थीं लुंग-गोम्पाओं की, पर देखा कभी न था। धन्य हूँ जो आज देखा।" मैं भी धन्य महसूस कर रही थी, लेकिन एक जिज्ञासा मन में कुलबुला रही थी – क्या ये लोग जन्मजात ऐसे होते हैं या वर्षों के अभ्यास से बनते हैं? योंगदेन ने बताया कि तिब्बती लोग मानते हैं कई भिक्षु इस अभ्यास की कोशिश करते हैं पर सच्चे लुंग-गोम्पा बहुत कम ही बन पाते हैं। उन्हें वर्षों प्राणायाम, एकचित्त ध्यान, और विशेष मंत्रों से खुद को "हल्का" बनाना होता है। सुना है वे अक्सर रात के सुनसान में अभ्यास करते हैं – एक लंबे रास्ते पर दौड़ना शुरू करते हैं, ख़ुद को कल्पना में हिरण या पक्षी जैसा अनुभूत करते हैं, और धीरे-धीरे शरीर की सीमा भूल जाते हैं।
कई असफल भी होते हैं – कहते हैं कोई-कोई पागल हो जाता है इस चक्कर में या दम तोड़ देता है। जो सफल होते हैं, वो अपनी उपलब्धि छिपा कर रखते हैं, क्योंकि दिखावे से शक्ति क्षीण हो जाती है और विनम्रता तिब्बती मूल्य है। इसलिए ऐसे धावक प्रायः एकांत में सफ़र करते हैं।
उस दुर्लभ दर्शन ने मुझे रोमांच से भर दिया। मैं सोचने लगी – एक आम मनुष्य एक दिन में बीस-तीस किलोमीटर पैदल चले तो बहुत है, पर ये योगी तो घोड़े से तेज़ चलते हैं और दिन-रात चलते रहते हैं। पुराने ग्रंथों में पढ़ा था कि महामिलारेपा (एक प्रसिद्ध तिब्बती सिद्ध योगी) एक महीने का रास्ता कुछ ही दिनों में पार कर लेता था। आज समझ आया कि यह किंवदंती एक वास्तविक साधना से उपजी थी।
हमने अनुमान लगाया कि वह धावक शायद पास के किसी मठ से किसी मिशन पर निकला होगा या किसी गुरुकर्म से। तिब्बत जैसे विशाल देश में तेज आवागमन हेतु यह कौशल कभी-कभी काम आता होगा। पर हमारे लिए तो यह इंसानी क्षमता का एक अविश्वसनीय प्रदर्शन था। मैं मन ही मन उस अनजान लामा को प्रणाम करने लगी – उन्होंने बिना रुके दिखा दिया कि हौसला और साधना से हम प्राकृतिक सीमाओं को लांघ सकते हैं।
उस शाम जब हम एक अस्थायी झील किनारे रुके, तो मेरे पैर दिन भर चलने से दुख रहे थे। आग तापते हुए मैंने उन लामा की याद की जो न जाने कितने घंटे और मील बिना थके निकल गए होंगे। मैंने मजाक में योंगदेन से कहा, "काश हम भी लुंग-गोम्पा होते, तो यह पूरी यात्रा चुटकियों में पूरी कर लेते!" वह हँस दिया, "हाँ, पर फिर रास्ते के किस्सों का सुख कहाँ मिलता? हमें भी सब्र और आनंद लेते चलना चाहिए, यही हमारी साधना है।"
मैंने स्वीकार में सिर हिलाया। हर किसी की अपनी यात्रा और अपनी गति है। लुंग-गोम्पा अपनी वायु-वेग यात्रा का आनंद लेते हैं, और हम अपने धीमे पदयात्रा का। लेकिन आज से मेरी चाल में एक नई ऊर्जा आ गई थी – प्रेरणा की ऊर्जा। जब भी पैर भारी लगते, मैं उस उड़ते साधु को याद करती और लगता जैसे वह मुझे कह रहा हो – "चलते चलो, मत रुको, अपनी सीमाएं मत मानो।" यह विचार मेरे मन में पंख बाँध देता।
आगे आने वाले कठिन रास्तों पर जब-जब थकान हद पार करने लगती, मैं कल्पना करती कि मेरे पैर हल्के हो रहे हैं, शरीर तितली जैसा हो रहा है, और मैं उस गुमनाम योगी की लय दोहराने की कोशिश करती। सच मानिए, इससे मुझे मदद मिली – मैं किसी हद तक आगे बढ़ती रही, और तिब्बत की अनंत भूमि मेरे सामने सिमटती गई। उस लुंग-गोम्पा योगी की छवि हमेशा के लिए मेरी प्रेरणा बन गई।
श्मशान का भयानक अनुष्ठान
तिब्बत के रहस्यों की खोज में हमारा सफर जारी था। हिमालय की गोद में बसे इस देश ने हमें प्रकृति और मानव-मन की अद्भुत क्षमताओं से परिचित कराया था। पर अभी एक ऐसा पहलू शेष था जिसके बारे में मुझे जितना आकर्षण था उतना ही भय भी – वह था आत्माओं, प्रेत-प्रयोगों और मृत्यु से जुड़े तंत्र-मंत्र का पहलू। खासकर एक अनुष्ठान के बारे में मैंने कई स्थानों पर सुना था, जिसका नाम है छोद (जिसका अर्थ होता है 'काटना' या 'छेदन करना')। कहते हैं इस साधना में साधक घोर रूप से अपने अहं को और भय को काटता है, और प्रक्रिया इतनी भयंकर होती है कि कई novices (नवीन साधक) डर से पागल हो गए या वहीं प्राण त्याग दिए। मैं जितनी उत्सुक थी इसे देखने के लिए, उतनी ही सशंकित भी – क्या मैं इसका साक्षात्कार सह पाऊँगी?
अवसर अप्रत्याशित ढंग से आया। देर शरद ऋतु का समय था। हम एक बंजर पहाड़ी क्षेत्र में थे जहां आसपास बस छोटे-छोटे गाँव थे और कहीं-कहीं चोरडेन (स्तूप) या छोटे स्मारक। एक शाम हम एक गाँव में पहुँचे तो देखा गाँव में अजीब-सी हलचल है। कुछ लोग फुसफुसाकर बातें कर रहे थे और बच्चे असामान्य रूप से चुप थे। पता चला कि उस रात पूर्णिमा है और गाँव के ही श्मशान-स्थल (कब्रिस्तान) पर एक महान योगी 'छोद' अनुष्ठान करने वाले हैं। बाहर से भी कुछ लामा आए हैं इसमें भाग लेने। गाँववालों में कौतूहल भी था और डर भी – वो स्थल जहां ये अनुष्ठान होगा, वह पर्वत तल पर एक पुराना श्मशान था, जिसे भुतही कहानियों के लिए बदनाम किया जाता था।
मैंने तुरंत निश्चय किया – चाहे जो हो, मुझे वहाँ जाना है। योंगदेन पहले तो राज़ी नहीं था, बोला, "ये बड़ा भयानक होता है, और हम बाहरी लोगों को शायद न जाने दें।" पर मेरी जिज्ञासा उसने भी देखी और आखिरकार हामी भर ली कि हम छिपकर दूर से देखेंगे अगर संभव हुआ तो। एक ग्रामीण परिवार, जिनके यहाँ हम रुके थे, उन्हें हमने यह सोच बताई। पहले तो उन्होंने भी कहा, "आप लोग यात्री हैं, न जाएं भला वहां, बुरी शक्तियाँ मंडराती हैं आज की रात।" लेकिन फिर एक बुजुर्ग ने कहा, "यदि जाना ही चाहती है तो इनके संरक्षण के लिए कोई मंत्र जपते रहना।" उन्होंने हमें एक ताबीज़ और प्रार्थना चक्र भी दिया अपने संग रखने को।
रात घिरने से पहले ही हम उस दिशा में बढ़ चले। पूर्णिमा का चाँद विशाल और पीला-सा क्षितिज पर निकल रहा था, उसकी रोशनी इतनी तेज़ कि लालटेन की ज़रूरत नहीं पड़ी। ठंडी हवा में एक अजीब-सा सन्नाटा था, जैसे प्रकृति भी थमी हो। श्मशान घाट गाँव से दूर एक टीले के पीछे था। वहाँ पहुँचते-पहुँचते घना अंधेरा और सायं-सायं करती हवा ने मन में भय पैदा करना शुरू कर दिया। लेकिन मैं हिम्मत बांधे रही।
जैसे ही हम करीब पहुँचे, एक जोरदार, अप्रत्याशित आवाज़ ने चौंका दिया – "फाssट्!" यह एक तीखा और गूँजता हुआ उच्चारण था, आधा शब्द चीख़ जैसा, आधा युद्ध उद्घोष जैसा। मैं सहमकर रुक गई। योंगदेन ने कंधे पर हाथ रख आश्वस्त किया कि यह अनुष्ठान का ही हिस्सा होगा। हमने पास छिपकर देखने के लिए एक उपयुक्त जगह खोजी – कुछ शिला-खंडों के पीछे से हम झाँक सकते थे।
दृश्य रौंगटे खड़े करने वाला था। चाँदनी में चमकते उस वीरान श्मशान में एक मानव आकृति खड़ी थी जिसके चारों ओर मोटे कपड़े या पट्टियों से घेरा-सा बना था, और कई निशान (symbols) भूमि पर खींचे हुए थे। पास में एक ऊँची डंडे पर खोपड़ी जैसी कोई वस्तु टंगी थी (बाद में पता चला वह एक मानव खोपड़ी का बना कप था जिसमें प्रसाद या बलि का द्रव्य रखते हैं)। वह व्यक्ति – योगी – ने अपने शरीर पर एक कंकाल जैसे चित्र वाला काला कपड़ा ओढ़ रखा था, जिससे वो किसी भूत जैसा लग रहा था। उसके हाथ में डमरू (एक छोटा दोमुंहा छोटा ढोल) और एक नरमुंड से बनी तुरही (हड्डी की तुरही जिसे "कांगलिंग" कहते हैं) थी।
आसपास कुछ दूरी पर दो-तीन अन्य लामा भी बैठे थे, शायद उसके सहायक या शिष्य, जो मंत्र बुदबुदा रहे थे। बाकी कोई भीड़ नहीं थी – ये कोई सार्वजनिक तमाशा नहीं, बल्कि एक गुप्त साधना थी, जिसमें हम अनाधिकार चेष्टा कर रहे थे। मैंने साँस रोककर देखा।
योगी ने अपना डमरू बजाना शुरू किया। डमरू की आवाज़ रात की निस्तब्धता को चीरती हुई अजीबो-गरीब प्रतिध्वनि पैदा कर रही थी। साथ ही वह क्रमश: गला साफ़ कर कोई मंत्र जोर से बोलता और अचानक फिर चिल्लाता, "फ़ट्!" हम हर बार उस अनपेक्षित चीत्कार पर सिहर उठते। वह संभवतः अपने मन के किसी भय को काटने के लिए यह बीजमंत्र फेंक रहा था।
इसके बाद योगी ने नृत्य जैसा कुछ शुरू किया – वह मंद्र गति से गोल-गोल घूमने लगा, अपने कदम किसी ज्यामितीय आकार में रख रहा था। कभी एक पैर पर घूमता, कभी उछलकर कूदता। हर हरकत के साथ उसकी छोटी घंटी (डोरजे घंटी) और डमरू भी ताल दे रहे थे। सहायक लामा लोग धीमे स्वरों में एक गूढ़ पाठ गा रहे थे जो श्मशान की रीति से सम्बंधित रहा होगा।
कुछ देर यह चलता रहा, फिर एकाएक सब थम गया। योगी बीच मंडल में खड़ा हो गया, दोनों हाथ आकाश की ओर उठाए। मैंने देखा, उसके चेहरे पर भयंकर तेज था, जैसे क्रोध और एकाग्रता का मिश्रण। अचानक उसने हाथ में पकड़ी हड्डी की नरसिंघी (तुरही) को होंठों से लगाया और एक भयानक, कर्कश ध्वनि उत्पन्न की। यह वही आवाज़ थी जिसे हमने पहले दूर से सुना था – एकसाथ घोर और हृदयभेदी, मानो कई सियार मिलकर रोए हों और हवा को चीर रहे हों। मैं कल्पना कर सकती थी कि अगर कोई निडर न हो तो इस आवाज़ से ही भयभीत हो भाग खड़ा हो।
यह स्वर कई बार दोहराया गया। उस बीच सहायक लामाओं ने एक अलग लय पकड़ी और उन्होंने भी ज़ोर से गाना शुरू किया, जिसके शब्द स्पष्ट नहीं थे पर लगा कि कोई प्रसाद या निमंत्रण दिया जा रहा है। बाद में समझ में आया – यह "आत्माओं और भूत-प्रेतों को भोज के लिए बुलावा" था! चöd साधना में साधक मानता है कि आस-पास सूक्ष्म जगत के प्राणी (भूखे भूत, दुष्ट आत्माएँ आदि) होते हैं, जिनको वह आमंत्रित करता है कि आओ, मेरे शरीर को भोज में स्वीकार करो।
इसके बाद जो हुआ वह मेरे जीवन के सबसे भीषण yet सम्मोहक दृश्यों में एक था। योगी ने आँखें बंद कर लीं और ऐसा जान पड़ा मानो समाधि में चला गया हो। फिर वे अपने स्थान पर स्थिर खड़ा-खड़ा गाने लगे, एक तेज़, आवेशपूर्ण स्वर में – मानो किसी देवता की वाणी बोल रही हो। तिब्बती में उन शब्दों का अर्थ कुछ इस प्रकार रहा होगा (बाद में मुझे ज्ञात हुआ): "मैं अपने इस शरीर का दान देता हूँ। जन्मों-जन्मों से मैंने इस शरीर को जिनसे पोषित किया है, उनका ऋण अब चुकाता हूँ। आओ ओ भूख-प्यास से तड़पती आत्माओ, आओ दुष्ट राक्षसो, आज मैं अपना माँस तुम्हें अर्पित करता हूँ, अपना रक्त तुम्हारी प्यास बुझाने अर्पित करता हूँ। मेरे अस्थि-मज्जा से तुम संतुष्ट हो जाओ। मेरे अहंकार का हर अंश मिट जाए, तुम्हारा भक्षण मुझे शुद्ध करेगा।"
जैसे ही यह अंतरा पूरा हुआ, मुझे अपने चारों ओर माहौल में एक सनसनी-सी महसूस होने लगी। अचानक हवा तेज़ हो गई, झाड़ियों की सरसराहट बढ़ गई। लगा जैसे सचमुच कोई अदृश्य मेहमान वहाँ जमा होने लगे हों। मैं कंपकंपा उठी और योंगदेन ने मेरा हाथ पकड़ लिया।
योगी ने पुनः हड्डी की तुरही फूंकी और जोर से चिल्लाया। फिर वह बिल्कुल शांत खड़ा हो गया। अब सारा क्रियाकलाप उसके मन के भीतर चल रहा होगा जिसे हम देख नहीं सकते थे। किंतु उसकी मुख-मुद्रा, भंगिमा से काफी कुछ अनुमान लगाया जा सकता था। उसने अपनी आंखें बंद ही रखीं, पर चेहरे के हाव-भाव कभी संकुचित, कभी विकृत, कभी शांत होते – मानो वह अंदर कोई विकराल दृश्य देख रहा हो। मैं जानती थी कि छोद अभ्यास में साधक भयानक कल्पना का सहारा लेते हैं: वे मानते हैं कि एक देवी प्रकट होती है जो तलवार से उनका सिर काट देती है, फिर उनके शरीर को अंग-अंग विभाजित कर देती है। फिर अगणित राक्षस, प्रेत, डाकिनी-शाकिनी आदि उन कटे अंगों को भक्षण करने उमड़ पड़ते हैं। इस समूची कल्पना-लीला को साधक को साक्षी-भाव से देखना होता है और "स्वयं" की बलि चढ़ाकर भी निर्विकार रहना होता है। कल्पना इतनी तीव्र और सच्ची होती है कि कभी-कभी सच में प्रेतात्माओं का आभास होने लगता है।
योगी अब जोर-जोर से साँसें ले रहा था, उसके कपड़े हवा में फड़फड़ा रहे थे। अचानक वह घूमा, जैसे किसी अदृश्य आकृति की ओर कुछ बोला – लगा डाँट रहा हो: "लो, और लो! मैं अपने पूरे अस्तित्व को अर्पण कर चुका, अब भी संकोच क्यूँ?" ऐसी ही कुछ गर्जना उसने की होगी (हमें तिब्बती के सब शब्द समझ नहीं आए, पर उस लहजे का भाव ऐसा ही लगा)। इसी बीच सहायक लामाओं के मंत्रोच्चार और तेज़ हो गए, वे अपने ढोल-मंजीरे बजाकर माहौल की गंभीरता बढ़ा रहे थे।
मैं दिल थामे देख रही थी कि कहीं कोई वास्तविक चमत्कार या भूत-प्रेत प्रकट तो नहीं होने वाला। हमारा सामूहिक चेतन शायद कुछ ऐसा ही अपेक्षा कर रहा था। हालाँकि किसी भौतिक भूत को मैंने नहीं देखा, पर उस घड़ी मेरे लिए हर छाया डरावनी शक्ल ले रही थी। एक बार मुझे लगा किसी चट्टान के पीछे मानो एक हँसता हुआ कंकाल खड़ा है – मैंने आंखें ज़ोर से झपका कर दुबारा देखा तो कुछ नहीं था। शायद यह मेरा मन था जो ऐसे खेल कर रहा था, या शायद वास्तव में कुछ मायावी शक्तियाँ खेल कर रही थीं।
काफ़ी देर तक यह भीषण नाटक चलता रहा। फिर सहसा योगी का स्वर बदलने लगा। उसके ऊँचे स्वर मद्धम पड़ने लगे। वह कुछ थकान और करवट से बैठ गया। सहायक लामाओं ने भी अपनी वाद्य और मंत्र रोक दिए। सन्नाटा पसर गया। मैंने देखा योगी शांत मुद्रा में बैठा गहरी साँसें ले रहा है, मानो भीषण युद्ध के बाद शांत हुआ हो। फिर उसने धीमी आवाज़ में कोई शांति पाठ शुरू किया – शायद उन आमंत्रित आत्माओं को विदा दे रहा था, उन्हें तृप्ति का आशीष देकर जाने को कह रहा था।
धीरे-धीरे वातावरण की घबराहट कम हुई। हवा फिर स्थिर होने लगी, अभिभूत कर देने वाली ठंडक थोड़ी कम अहसास हुई। ऐसा लगा जैसे आसपास जो भी अदृश्य विभीषिकाएँ एकत्र थीं, वे चली गई हैं, भोजन कर संतुष्ट होकर। योगी कुछ बुदबुदाता रहा और आखिर में मौन हो गया। पास बैठे सहायक आगे आए और उन्होंने उसे अपने चोगे से ढक लिया। संभवतः यह संकेत था कि अनुष्ठान पूर्ण हुआ।
मैं और योंगदेन अभी भी अपनी जगह साँस रोके बैठे थे। भीतर जाने या सामने आने का तो सवाल ही नहीं था, हम अवैध दृष्टा थे और हमें चुपचाप वापस लौट जाना चाहिए था। चाँद काफी ऊपर चढ़ आया था, रात आधी बीत चुकी थी। हमने देखा कि सहायक लामाओं ने योगी को सहारा देकर उठाया। शायद उस मानसिक एवं शारीरिक परिश्रम से वह बेहद अशक्त हो गया था। वे उसे धीरे-धीरे टहलाते हुए घाटी से ऊपर मठ की दिशा में ले चले। थोड़ी ही देर में वहाँ कोई न रहा – रह गया सिर्फ वो सन्नाटा, टूटी हुई आग की ठंडी हो रही लकड़ियाँ, और कुछ अधजले मशालों की गंध।
हमने भी साँस ली और उधर से निकलने लगे। मगर ज्यों ही हम खड़े हुए, मेरे पाँव तले सूखे पत्ते चरमराए और एक पत्थर लुढ़क गया। यह हल्की-सी आवाज भी उस सन्नाटे में बड़ी प्रतीत हुई। तुरंत योंगदेन ने मेरे होंठों पर अंगुली रखी संकेत से कि एकदम शांत रहो। हमें अहसास हुआ कि वहाँ अभी कुछ हो न हो, पर डर का साया ज़िंदा था। हम ठहर गए।
अचानक, बिल्कुल हमारे करीब, एक पतली दुखभरी सी कराह सुनाई दी – "ओह्ह..." मैंने सिहर कर उस ओर देखा। एक बड़ी चट्टान की ओट में किसी व्यक्ति के पड़े होने की आहट थी। हम गए तो अवाक् रह गए: एक युवा तिब्बती भिक्षु जमीन पर पीठ के बल अचेत-सा पड़ा था, चेहरा फक्क सफेद, आँखे फटी हुईं और शरीर काँप रहा था। शायद वह भी हम जैसे छिपकर अनुष्ठान देखने आया कोई नौसिखिया भिक्षु था, जो भयावह दृश्य सह न सका और मूर्च्छित हो गया।
वो अब होश में आता जान पड़ता था, लेकिन हमें देख वह बौखला गया, मानो हमें भी कोई भूत समझ लिया। उसने चीखने की कोशिश की लेकिन गला से आवाज़ ही न निकली, सिर्फ हाँफता रहा। मैंने जल्दी से अपना हुड हटाया ताकि उसे मेरा मानवीय चेहरा दिखे। "डरो मत, मैं मनुष्य हूँ," मैं तिब्बती में बोली, "हम भी यात्री हैं, उसी ने जो तुमने देखा।" मगर वह तो तंद्राहीन-सा था, कुछ समझ ही नहीं रहा था। बस कांपता हुआ बुदबुदाया, "मा...मा रिग" ("मुझे नहीं पहचानना...") और अपनी आँखें मींच ली।
योङदेन ने स्थिति सँभाली। वह उसके पास घुटनों के बल बैठा और कोमल पर दृढ़ आवाज़ में बोला, "शांत हो जाओ, कोई भूत नहीं यहाँ। तुम सुरक्षित हो। हम तुम्हें मठ पहुंचा देंगे।" फिर हमने अपना लाया पानी उसके चेहरे पर छींटा। उसे थोड़ी चेतना आई। उसकी नज़र अब हमारे भिक्षु-वस्त्रों और दयालु चेहरों पर पड़ी तो कुछ भरोसा हुआ। वह सुबकने लगा और बस यही कह पाया, "मुझे लगा...मेरी जान..." उसके आगे शब्द नहीं निकले।
बाद में पता चला, वह पास के मठ का नएदीक्षित साधु था जिसे जिद्द हुई छिपकर यह अनुष्ठान देखने की। गुरु ने मना किया था लेकिन वह नहीं माना, और परिणाम – भय के कारण मूर्च्छा। हमने उसे धीरे-धीरे सहारा देकर चलाया। रास्ते में रात के खामोश वातावरण में बस उसकी सूखी सिसकियाँ और हमारे कदमों की आवाज़ थी।
जब हम गाँव के नज़दीक पहुँचे तो उसने खुद को सँभाल लिया था। हमें कृतज्ञता से देखते हुए कहा, "आप लोगों ने मेरी जान बचाई, नहीं तो मैं वहाँ ठंड से या डर से ही मर जाता। गुरु जी सही कहते हैं, आगे बढ़ने से पहले पात्रता होना जरूरी है।" मैंने धीमे से कहा, "कभी-कभी अनजान खतरों से दूरी ही भली। तुमने बहादुरी करने की कोशिश की, पर सच में बहादुरी अपने भय का सामना सही समय पर करने में है, गुरु की आज्ञा से।" वह शर्मिंदा हो गया और बोला, "मुझसे भूल हुई।"
गाँव के छोर पर हमें विदा देकर वह मठ की ओर चला गया। और हम अपने ठिकाने पर लौट आए। मेरे मन में मिश्रित भावनाएँ उमड़ रही थीं – एक ओर मैंने मानव मनोबल के चरम को देखा था उस योगी के रूप में जिसने मृत्यु का रौद्र रूप सामने लाकर भी धैर्य रखा, अपना अहं काट दिया; दूसरी ओर एक साधारण मानविक कमजोरी भी देखी कि कैसे भयंकर भय एक युवा को तोड़ सकता है।
उस रात मैं करवटें बदलती रही। आँख बंद करती तो दृश्य फिर सामने आ जाता – हड्डियों की नरसिंघी से निकलती सिहरन भरी ध्वनि, चाँदनी में चमकती उस योगी की आँखें और उसके चारों ओर मंडराते कल्पना-भूत। पर साथ ही एक चीज़ और थी – उन अंतिम वचनों की स्मृति: "मैं अपना यह शरीर अर्पित करता हूँ..." यह असल में बौद्ध धर्म का परम परोपकार और त्याग का सन्देश ही था, जिसे इस नाटकीय रूप में वो योगी आत्मसात कर रहा था।
सुबह हुई तो मुझे लगा मैं एक कठिन परीक्षा देकर निकली हूँ। उस अनुष्ठान को देखना अपनेआप में मेरे लिए भी एक परीक्षा थी – अपने डर पर कितनी काबू पा सकी, इससे मेरा आत्मविश्वास भी तय होना था। मैं मानती हूँ, पल भर को मैं भी बुरी तरह डर गई थी, पर अंततः मैंने सामना किया। इससे मुझमें एक नई दृढ़ता आई। अगर भविष्य में कभी किसी अदृश्य ख़तरे का सामना होगा, तो शायद मैं इतनी आसानी से घबराऊंगी नहीं – यह अनुभूति मन को मजबूत कर रही थी।
तिब्बत ने एक और शिक्षा दे दी थी: भय को जीतने के लिए उसे आँखों में झांकना पड़ता है, भले काल्पनिक रूप से सही। और यदि हम अपने सबसे बड़े डर – मृत्यु और पीड़ा – को स्वीकर कर लें, तो फिर हमें कोई भी ताकत तोड़ नहीं सकती। उस अनाम योगी ने, जिसके बारे में न दुनिया जानेगी न उसका यश गूँजेगा, अपने कर्म से मुझे यह पाठ पढ़ा दिया था। मैं नतमस्तक थी।
मृत्यु से परे जीवन
कुछ हफ़्तों बाद हम तिब्बत के एक और दुर्गम अंचल में थे, जहाँ लोगों से बातें करते मुझे एहसास हुआ कि तिब्बती लोकविश्वास भूत-प्रेत, पुनर्जन्म और आत्माओं के किस्सों से भरा है। पहले मुझे ये दंतकथाएँ लगती थीं, लेकिन यहाँ बिताए समय और खुद अपने अनुभवों ने मुझे सिखा दिया था कि कई कथाओं के पीछे वास्तविक घटनाओं का सार होता है। खासकर "रोंग" (या रो-लांग, जिसका मतलब होता है 'मुर्दा जो उठ खड़ा हुआ') की कहानियाँ मुझे कई बार सुनने मिलीं। आज तक पश्चिम में मैंने ज़ोंबी जैसी बातें सिर्फ कहानियों में सुनी थीं, पर तिब्बत के ग्रामीण उसे हकीकत मानते थे।
एक शाम हम एक बड़े से अलाव के पास गांववालों के साथ बैठे थे। ठंडी हवा को धुएँ और आग की गर्मी से काटते हुए हम एक दूसरे को किस्से सुना रहे थे। मैंने भी अपने देश के कुछ रोचक किस्से सुनाए और उन्होंने तिब्बत के। फिर बात आई भूत-प्रेत की। एक वृद्ध ने सिकुड़ी आँखों से आग में झांकते हुए कहा, "यह धरती सिर्फ हमें मानवों को आश्रय नहीं देती, बहुत सी असंतुष्ट आत्माएँ भी यहीं भटकती हैं।" मैंने गहरी रुचि दिखाई तो वे आगे बताने लगे, "कई बार मृतक ठीक से विदा न किया जाए या उनके कोई मनोकामना पूर्ण न हुई हो, तो उनकी लाश में किसी बुरी शक्ति का वास हो जाता है और वह लाश चलने लगती है, जीवित लोगों पर हमला करती है।"
मैंने पूछा, "क्या आपने स्वयं ऐसा कुछ देखा है?" कुछ और ग्रामीण भी पास सरक आए, माहौल रहस्यमय हो चला था। एक अधेड़ औरत ने कहा, "हमारे पड़ोस के गाँव में हुआ था कई बरस पहले। तीन लोग एक मृत व्यक्ति की लाश की रक्षा (पहर) कर रहे थे रातभर, जैसा रिवाज़ है कि अंतिम संस्कार से पहले अकेला न छोड़ा जाए। आधी रात को उनमें से एक ने शंका से शव को देखा – लगा मानो उसकी उंगली हिली। उन्होंने इसे वहम समझ दोबारा प्रार्थना जपना शुरू किया। तभी अचानक उस शव ने आँखें खोल लीं!" उस औरत ने यह कहते हुए अपनी दोनों आँखे फाड़कर दिखाईं मानो दृश्य अभी भी उसके जेहन में हो।
एक युवक ने आगे कहानी ली, "हाँ, मैंने भी सुना है वह घटना। फिर क्या, वह मुर्दा उठ बैठा और उन भिक्षुओं पर झपटा! किसी के गले जा पकड़ा, किसी का हाथ। कहते हैं वह 'रोंग' (मुर्दा) जिसे छू ले वो खुद वहीं ढेर हो जाता है – प्राण खींच लेता है। सुबह तीनों व्यक्ति मृत मिले और लाश फिर ख़ामोशी से लेटी थी पर उसके इर्द-गिर्द हाहाकार मचा हुआ था।"
सन्नाटा छा गया। मैंने पूछा, "फिर उस रोंग का क्या हुआ?" वृद्ध ने उत्तर दिया, "फिर तो लामा लोग आए। उन्होंने विशेष मंत्र और रस्म से उस लाश को फिर से शांत किया – उसके हाथ-पाँव बांध दिए, और चेहरे पर पवित्र चित्र बना कर जलाया या पानी में बहाया, मुझे ठीक नहीं पता। पर तब जाकर गाँववालों ने चैन की सांस ली।" मैंने देखा कई लोग सिर हिला रहे थे, जैसे यह एक सर्वमान्य सत्य हो।
इस कहानी से किसी को भी भय लगता, लेकिन मेरे मन में अजीब ढंग से बहुत ज़्यादा भय नहीं उपजा, क्योंकि शायद 'छोद' के दृश्य के बाद मुझे लगा था इससे तो कम ही भयानक होगा। फिर भी, मेरे वैज्ञानिक मन ने सक्रिया होकर प्रश्न किया, "मृत व्यक्ति का चलना-फिरना चिकित्सकीय रूप से असंभव है, यह कोई भ्रम हो सकता है या वे लोग ज़हर से मरे हों?" योङदेन ने मेरी ओर देखा जैसे कहना चाहता हो कि सब कुछ तर्क से न जांचो। पर ग्रामीणों ने मेरी बात सुनी नहीं, वे अपने किस्से में मग्न थे।
एक अन्य ने हँसकर कहा, "ऐसा कुछ देखने का शौक़ हो तो यहाँ से तीन दिन दूर एक झील के पास पुराने खंडहर हैं, वहाँ अक्सर रोंग घूमता है।" कुछ लोगों ने उसे डाँटा कि काहे डरावनी बात कहता है, मेहमान को क्या उस ओर भेजना चाहता है? वो व्यक्ति बोला, "नहीं, मैं बस कह रहा, आजकल कोई उधर नहीं जाता।" मैंने मन ही मन सोचा, जरूर कोई पुराना शमशान या त्यागा गया गढ़ होगा जहां रात को ऐसी घटनाएँ घटती हों।
बाद में मुझे ज्ञात हुआ कि तिब्बती बौद्ध परंपरा में, विशेषकर निचले ज़माने में तांत्रिक लामा कभी-कभी शव को साधना के लिए इस्तेमाल करते थे। कुछ दुर्नाम साधक 'रोंग' तैयार भी करते थे – मृत शरीर में मंत्रों से अस्थायी चेतना फूंक कर उसे उठाकर कोई काम कराना। यह खतरनाक कला थी, और कई बार कहते हैं नियंत्रण से बाहर हो जाती थी। संभवतः ऐसी कुछ घटनाओं से ये जनश्रुतियां बनी थीं।
इन किस्सों से हमारा मन बोझिल हुआ, तो मैंने माहौल हल्का करने को पूछा, "कोई अच्छी आत्माओं की कहानी भी सुनाओ, जो मदद करने आती हों?" इसपर एक युवा लामा, जो वहाँ मौजूद था, बोला, "हां, क्यों नहीं। जितने दुष्ट किस्से हैं उतने ही पुनीत भी। आपने शायद 'तुल्पा' का नाम सुना होगा?" मैंने चौंककर कहा, "हाँ, सुना है – विचार से निर्मित आकृतियाँ।" वह प्रभावित हुआ, "ठीक, बहुत कम विदेशी ये जानते हैं। ऐसा कहते हैं कुछ बड़े लामा अपने मन की शक्ति से एक सजीव-सी प्रतीति (entity) बना लेते हैं, जो कुछ समय उनके साथ रहती है। वह पूर्ण मानव जैसी लगती है, लोग धोखा खा जाएँ, पर असल में वह गुरु के दिमाग की उपज है।" मैं इस पर मंद-मंद मुस्कुराई क्योंकि मुझे अपना एक छोटा-सा निजी अनुभव याद आ गया।
दरअसल कई महीनों से, गहन एकांत के समय, मैंने खुद भी एक मानसिक खेल खेला था – मैं एक काल्पनिक साथी का स्वरूप गढ़ती थी। रास्ते की नीरसता काटने के लिए कभी-कभी मन में एक दोस्त 'बना' लेती थी जिससे बात करती। मैंने एक छोटे भिक्षु का मृदु-सा रूप कल्पना में कई बार रचा जो हमारे कारवाँ में था। मैं जानती थी ये केवल मेरा मन है, पर मैं उससे बातें करती और उत्तर खुद अपने से पाती। हैरानी की बात ये थी कि धीरे-धीरे मेरी इस कल्पना ने एक भिन्न स्वतंत्रता ग्रहण कर ली – कभी-कभी मुझे सच में आभास होता मानो वह पात्र पास चल रहा है। योंगदेन से छिपाकर यह खेल खेलती रही थी, पर अब मुझे लगा मुझे सतर्क हो जाना चाहिए, क्योंकि कहीं ऐसा न हो कि मेरी कल्पना हकीकत का जामा पहन ले। मेरे अंदर एक सिहरन दौड़ गई – तुल्पा की शक्ति मैं अनजाने आजमा रही थी! मैंने तुरंत उस कल्पित साथी को अपने मन से विदा किया, भले ही उसमें मुझे स्नेह महसूस होने लगा था।
उस युवा लामा की बात और मेरी खुद की समझ से मुझे तुल्पा के बारे में स्पष्ट हुआ: अतिशय एकांत और ध्यान में मन कभी अजीब करामात दिखा सकता है, और तिब्बती योगी इसका प्रयोग जानते हैं, पर चेतावनी यह है कि कहीं उनकी बनाई भ्रम-छाया सचमुच भटकती आत्मा न बन जाए। किस्से थे कि कुछ तुल्पा अपने स्वामी की मर्ज़ी के बिना घूमने लगे, शरारतें करने लगे और अंत में उन्हें 'भंग' करना पड़ा।
इन सब घटनाओं और चर्चाओं ने मेरे मन में मृत्यु और जीवन के बीच के परदे को बहुत पतला कर दिया था। मुझे अब मृत्यु भयानक नहीं, रहस्यमय ज़रूर लगती थी – एक अवस्था परिवर्तन जैसा। तिब्बतियों की सहजता देखिए: वे दिनभर आत्माओं और पुनर्जन्म की बात ऐसे करते जैसे बात मौसम या खेत की हो। मृत्यु उनके लिए जीवन का ही हिस्सा थी, इसलिए उनसे जुड़ी उलटी-सीधी संभावनाएँ भी जीवन का हिस्सा थीं। भूत हों या देव, सबको भोज-प्रसाद देकर संतुष्ट करना, उनसे डरकर भागना नहीं, बल्कि सामना करके अपने पथ पर डटे रहना – यह मैंने उनसे सीखा।
एक दिन एक वृद्ध लामा ने मुझसे कहा था, "हम सब अनगिनत बार मर चुके हैं और फिर जन्म ले चुके हैं। तो क्या भूत से डरना? हम खुद भी तो अनगिनत बार उन लोकों से गुज़रे होंगे। बस नैतिक जीवन जियो, प्रार्थना करो, किसी प्राणी का बुरा न चाहो, तो कोई बुरी आत्मा तुम्हारा कुछ नहीं बिगाड़ सकती।" कितनी सीधी मगर गहरी बात! मैं मुस्कुराई थी, "सही कहते हैं आप।"
मेरी यात्रा अब अपने अंतिम चरण की ओर थी। मैं तिब्बत के उन हिस्सों की ओर बढ़ रही थी जो पूर्णतः प्रतिबंधित और गुप्त थे – अर्थात् ल्हासा, और उसके आसपास के क्षेत्र। वर्षों की खोज-यात्रा के बाद आखिर मेरा मकसद था "वर्जित नगर" को अपनी आँखों से देखना, तिब्बत की इस रहस्यमयी गाथा का अंतिम अध्याय वहाँ जाकर पूर्ण करना। लेकिन मन में अब एक गहरी समझ बैठ चुकी थी: सबसे बड़े रहस्य बाहर नहीं, हमारे भीतर हैं। तिब्बत ने मुझे अपने अंदर झांकना सिखाया था।
इस सबके बावज़ूद, रोमांच अभी शेष था – ल्हासा तक पहुँचना कोई साधारण काम नहीं था। आख़िर, मृत्यु, भूत, साधना इन सबसे बचकर हम अब एक और वास्तविक खतरे की ओर कदम बढ़ा रहे थे: तिब्बत सरकार के पहरेदार और गुप्तचर, जिन्हें विदेशियों को पकड़ने का आदेश था। शायद मेरा सबसे बड़ा चमत्कार वही होगा कि मैं एक यूरोपीय होते हुए भी भेष बदलकर ल्हासा जा पहुँचूँ और सकुशल लौट भी आऊँ। मन में हजारों विचार उमड़ रहे थे – कहीं पकड़ी गई तो? लेकिन पिछली घटनाओं ने मुझे हिम्मत दी: मैंने भय से भीषणतर चीजों का सामना किया है, तो ये सांसारिक भय मुझे क्या रोकेंगे।
रास्ते में कई बार तिब्बती सैनिकों के गश्त या चेकपोस्ट आए, पर भाग्य और हमारी तैयारी ने साथ दिया – कभी हम पहाड़ के रास्ते चोरी-छिपे बच निकले, कभी स्थानीय भेष और लहजे में बात कर शक टाल दिया। एक बार तो हमने एक पुराने खंडहर में पूरा दिन छिपकर बिताया क्योंकि खबर थी कि आगे रास्ते में जांच चल रही है। वह दिन हमने एक सुखाये मांस के टुकड़े और बर्फ का पानी चूसकर निकाला। उस वीरान खंडहर में जब मैं अंधेरे कोने में दुबकी थी, मेरे सामने दिये की हल्की लौ में उन सभी आत्माओं और प्रेतों की छायाएं झिलमिला रही थीं जिनकी कहानियाँ सुनी थीं – पर इस बार मुझे डर नहीं लगा, उलटे कुछ अजीब किस्म की संगति लगी उनसे, जैसे वे कह रही हों: "हम तो मन के रूप हैं, असल दुनिया के खतरों से ज़्यादा ख़तरनाक नहीं।"
आखिरकार, एक सुनहरी सुबह, हमने पहाड़ियों के पीछे से ल्हासा घाटी में प्रवेश किया। दूर-विहंगम दृष्य ने हमारी सांस रोक दी: बड़े मैदान के बीचोंबीच एक भव्य नगर बसा था, जिसके बीचोंबीच पहाड़ी पर श्वेत महल दमक रहा था – पोताला महल, दलाई लामा का निवास। सूर्य की रोशनी में उसकी सुनहरी छतें चमचमा रही थीं। उसके नीचे बिखरे थे सैकड़ों मकान, मंदिरों के कलश। हमने वहीं ऊपर से कुछ देर उस दृश्य का आनंद लिया – विश्वास नहीं हो रहा था कि आखिर हम इस 'वर्जित नगरी' के सामने थे, जिसका सपना लिए मैं वर्षों घूमती रही।
वहाँ से शहर तक का उतरना अभी जोखिम भरा था। हमें एक बार फिर अपने भेष का सहारा लेना था। मैले-कुचैले कपड़े, पीठ पर गठरी, चेहरे पे धूल-कालिख, बाल उलझे – हम से ज़्यादा असंग ध्यान खींचने वाला कोई नहीं लगता था। तिब्बत के अंदरूनी लोग भी हमें देख सोचते होंगे दूर के कोई गरीब तीर्थयात्री हैं। हमने शहर के किनारे प्रवेश किया। गलियों में जीवन उमड़ रहा था – याकों के काफिले, दुकानदार, भिक्षु, रईस घोड़े पर, और भिक्षुणियाँ प्रार्थना चक्र घुमाती हुईं। बीच-बीच में "ॐ मणि पद्मे हूँ" की मधुर ध्वनि सुनाई देती जो लोग जपते चलते। कोई हम पर ध्यान नहीं दे रहा था, यह सुखद था।
मुख्य बाज़ार के पार जाकर हम जोखांग मंदिर पहुँचे, जो तिब्बत का सबसे पवित्र बौद्ध मंदिर है। वहाँ पर ज़मीन पर लेट-लेटकर दंडवत करते हुए तीर्थयात्री, घंटियाँ, धूप की महक, और एक प्रगाढ़ आध्यात्मिक उर्जा महसूस हुई। हमने बाकी यात्रियों की तरह ही श्रद्धा से मंदिर में प्रवेश किया। मुझे अंदर ले जाते समय एक पल को लगा, "ये स्वप्न है या सच?" जिस स्थान की तसवीरें और वर्णन बरसों से पढ़ती आई, आज मैं उसमें चल रही थी, उसे छू रही थी। मैंने दीपक के लिए घी चढ़ाया और बुद्ध को प्रणाम किया। आँखों से आँसू बह निकले – संपूर्णता के, कृतज्ञता के। यह अत्यंत भावुक पल था। एक लम्बी, जोखिम भरी, अविश्वसनीय कथा का अब चरम सामने था।
ल्हासा में हमने कुछ सप्ताह बिताए। अपनी असल पहचान छुपाकर मैंने एक स्थानीय भिक्षुणी (संन्यासिनी) का रूप धरा और बुद्ध तथा अन्य तीर्थस्थलों के दर्शन किए। मैंने वहाँ भी कई रोचक अनुभव संजोए – जैसे जोखांग में एक दिव्य-सी दिखने वाली राहिबा से मिलना जो वास्तव में एक योगिनी थी और मुझसे कुछ क्षण बात करके ही जान गई कि मैं विदेशी हूँ लेकिन उसने मुस्कुराकर आशीर्वाद दिया और मेरा भेद नहीं खोला; या एक दिन तिब्बत की राज्य-चालक "नेचुंग ऑरेकल" (सरकारी देववाणी देने वाले माध्यम) का जुलूस देखा, जिसमें एक साधक भक्तिरस में झूमता-चिल्लाता भविष्यवाणियाँ कर रहा था और अधिकारी लोग सिर झुकाए सुन रहे थे।
धीरे-धीरे मैंने निर्णय लिया कि अब वापस लौटने का समय है। बहुत हो चुका, मैंने जितना सपना था उससे कहीं अधिक पाया था। अब मुझे इन रहस्यों को अपनी कलम के माध्यम से दुनिया के सामने लाना था। वसंत ऋतु आते-आते हमने ल्हासा से प्रस्थान किया, उसी तरह गुपचुप जैसे आए थे, और नेपाल की ओर का रास्ता लिया जो अपेक्षाकृत आसान था। सीमा पार करके जब मैं फिर से "खुले संसार" में आई तो मन में अजीब खलिश थी – तिब्बत में बीते वो वर्ष और घटनाएँ जैसे किसी दूसरे लोक की कहानी लग रहे थे। मैं पीछे मुड़कर पहाड़ों की ओर देखने लगी जहाँ दूर बर्फ की चोटियाँ दिखती थीं, और सोचा: क्या सचमुच मैंने वह सब अनुभव किया? अपने हाथ-पैरों के निशानों और मन में बसे चित्रों ने जवाब दिया: हाँ, बिलकुल सच।
हिमालय की गोद से विदाई
जब मैं अंततः अपने देश लौटी और लोगों को अपने अनुभव बताए, तो अनेक ने अविश्वास से सर हिलाए। कुछ ने सोचा, यह महिला शायद उन्माद या भ्रम की बातें करती है; कुछ ने माना कि मैंने ज़रूर अफ़वाहों को बढ़ा-चढ़ा कर लिखा होगा। मैं ये सब प्रतिक्रियाएँ समझ सकती हूँ – आखिर एक बाहरी व्यक्ति के लिए तिब्बत की बातें परी-कथा से कम न थीं। लेकिन मैं जानती थी कि मैंने जो देखा, महसूस किया, वह सब सत्य था, भले ही वह सत्य तर्क-परीक्षणों से परे हो।
इस लम्बी यात्रा ने मुझे जितना बदला था, उतना शायद किसी और चीज़ ने नहीं। आज, वर्षों बाद, मैं एक शांत कमरे में बैठी उन यादों को ताज़ा कर रही हूँ तो ऐसा लगता है मानो कल ही की बात हो। मैं अपनी आँखें बंद करती हूँ तो फिर से हिमालय की ठंडी हवा मेरे चेहरे को छूती है, ल्हासा की सुनहरी धूप आँखों में चमकती है, किसी दुर्गम गुफा में गूँजती मंत्र-ध्वनि कानों में बज उठती है।
मैं याद करती हूँ उन तपस्वियों को जो बर्फ़ में अग्नि जलाना जानते थे – और मन में सोचती हूँ, क्या आधुनिक मानव के भीतर भी ऐसी ही कोई सुप्त ऊर्जा है जिसे हम जागृत करना भूल गए हैं? वो योगी जो बिना पहनावे के हिम-प्रांतर में बैठे, उनके चेहरे का तेज मुझे प्रेरणा देता है कि शारीरिक सीमाएँ मन के दृढ़ निश्चय के आगे छोटी पड़ जाती हैं। मुझे अब ठंड से पहले जैसा भय नहीं लगता; एकांत भी अब दुश्मन नहीं मित्र लगता है, क्योंकि मैंने देखा कि एकांत में आत्मा का दर्पण साफ होता है।
फिर मुझे ध्यान आता है उस वृद्ध लामा का जिन्होंने मुझे मानसिक शक्ति से दही का कटोरा दिलवा दिया। वहाँ मुझे मानव हृदय की करुणा और दिव्य संवाद की झलक मिली थी। सोचती हूँ, यदि हम सब अपने भीतर थोड़ी भी उस लामा जैसी क्षमता विकसित करें – मतलब दूसरों की अनकही पुकार सुनने की – तो दुनिया में कितना प्यार और समझ बढ़ जाए। अक्सर शब्दों के जाल में फँसकर हम एक-दूसरे को नहीं समझ पाते, लेकिन एक सूक्ष्म स्तर पर मन तो हमेशा संदेश भेजते-ग्रहन करते हैं। तिब्बत में मैंने यह कला कोमल अंकुर की तरह देखी; क्या एक दिन समूचा मानव-समाज ऐसा टेलीपैथिक सामंजस्य पा सकेगा? सपना लग सकता है, मगर असंभव नहीं।
लुंग-गोम्पा की याद आते ही मेरे होठों पर मुस्कान आ जाती है। वह अद्भुत धावक मानो मेरे भीतर भी एक नया उत्साह भर गया था। आज जब मैं किसी कठिन काम से थकने लगती हूँ, तो मन में उस योगी का स्मरण करती हूँ, और सोचती हूँ – थोड़ा और आगे, निरंतरता रखो, तुम समझ से अधिक सामर्थ्यवान हो। उनके हल्के पैरों की छाप मेरे मन में है, और मुझे रास्ते पर बढ़ते रहने का हौसला देती है।
श्मशान के छूद अनुष्ठान की भयावहता अब मुझे भय नहीं देती, बल्कि उसकी प्रतीकात्मकता प्रभावित करती है। हमने भले ही वहाँ भूत-प्रेत न देखे हों, लेकिन उस योगी ने अपने मन के प्रेत ज़रूर मार गिराए। वह हर साधक का पथ है: अपने भीतर के डर, अज्ञान और अहंकार (जो किसी राक्षसी भूत से कम नहीं) को समर्पण और साहस की ज्वाला में होम कर देना। मुझे भी अपने जीवन में अनेक भय थे – अंजान देश का डर, पकड़े जाने का डर, असफलता का डर – लगता है मैंने भी तिब्बत की यात्रा में एक-एक कर बहुत से डर काट डाले। लौटी तो अधिक निडर और मुक्त होकर।
और वे रौलांग और आत्माओं के क़िस्से – उन्होंने मुझे सिखाया कि करुणा और समझ से बड़े से बड़ा साया मिट सकता है। जब भी मैं किसी नकारात्मकता का सामना करती हूँ, मन में एक दिया जला लेती हूँ प्रार्थना का, जैसे तिब्बती करते हैं – बुरी आत्माओं को भी प्रेम और शांति मिले। यह सोच खुद मुझे सुकून देती है और शायद आसपास का माहौल भी बदल देती है।
तिब्बत से आने के बाद की मेरी शेष ज़िंदगी भले ही शांतिपूर्ण और स्थिर रही हो, पर मेरे भीतर एक 'तिब्बत' सदा बस गया है – रहस्य और आध्यात्म का एक संसार, जो मुश्किल क्षणों में मेरा पथप्रदर्शन करता है। कभी-कभी आधी रात को मैं ध्यान में बैठती हूँ तो मेरे चारों ओर फिर हिमालय की श्रंखलाएँ खड़ी हो जाती हैं, ऐसा आभास होता है मानो कोई अदृश्य लामाओं की मंडली मेरे साथ जप कर रही हो, और मेरा चित्त उस महान शून्यता में विलीन होने लगता है जिसे मैंने तिब्बत के गुफाओं और मठों में महसूस किया था।
मैंने उस यात्रा से यही सीखा कि मानव-जीवन की क्षमताएँ असीमित हैं, बस उन्हें खोले के लिए संकल्प, साधना और धैर्य चाहिए। चाहे वह शरीर का नियंत्रण हो, मन की एकाग्रता हो या आत्मा की उदारता – तिब्बती योगियों ने दिखाया कि समर्पण से असंभव कुछ भी नहीं। उन्होंने यह भी सिखाया कि चमत्कारों के पीछे कोई जादुई छड़ी नहीं, बल्कि वर्षों का तप है। और उन चमत्कारों का लक्ष्य दिखावा नहीं, बल्कि आत्म-विकास और करुणा की पूर्णता है।
आज हिमालय की हिमाच्छादित पर्वत-श्रृंखलाएँ हमसे दूर हो सकती हैं, मगर उनकी रहस्यमयी पुकार सदा मानवता के कानों में गूंजेगी। कुछ जिज्ञासु, कुछ प्यासे हृदय हमेशा उस पुकार पर चले आएंगे, जैसे मैं गई थी। और वे लौटकर इसी तरह की कहानियाँ लाएंगे, जो सुनने वालों को अचरज में डाल देंगी। किंतु उन किस्सों में संकेत छिपा होगा कि हमारी दुनिया सिर्फ भौतिक नहीं; अदृश्य शक्तियाँ, अटल विश्वास और अनदेखे अनुभव भी इसके ताने-बाने में बुने हैं।
जब भी रात को एकांत में सितारों भरा आकाश देखती हूँ, मुझे हिमालय के निर्जन में बिताई रातें याद आ जाती हैं – जहाँ उस नीले अंधकार में मुझे रहस्य और जादू झलकते दिखे थे। अब मैं सभ्यता के बीच रहते हुए भी उन सितारों में वही झलक खोज लेती हूँ। अंतर बस दृष्टि का है: तिब्बत ने मेरी आँखों को वह दृष्टि दे दी कि हर क्षण में अद्भुत को पहचान सकूँ।
अपने अध्याय के अंत में, मैं उन सभी गुरुओं, लामाओं, साधुओं और सहयात्रियों को ह्रदयपूर्वक नमन करती हूँ जो मेरे मार्गदर्शक बने। उन्होंने एक बाहरी होते हुए भी मुझे अपनाया, रहस्यों के द्वार खोले। सोचती हूँ, यदि मनुष्य में पराए को अपनाने की यही भावना जग जाए तो कोई सीमा, कोई बंदी द्वार रह ही नहीं जाएगा – चाहे वह देश की सीमा हो या दिल की।
हिमालय की गोद से विदा लेकर मैं भौतिक रूप से तो लौट आई, लेकिन आत्मा का एक अंश वहीं रह गया, उसी बर्फीली हवा में, उन्हीं गूँजती घाटियों में। और वहीं से वह मुझे आजीवन प्रेरणा और शांति भेजता रहेगा। तिब्बत के जादू और रहस्य अब मेरे जीवन कथा का हिस्सा हैं। यह वृत्तांत (narrative) सुनाते हुए मेरी कामना है कि आप भी उन दूरस्थ बियाबानों की ठंडी हवा अपनी रुह में महसूस करें, उन प्राचीन मंदिरों की घंटियों की टनकार अपने कानों में सुनें, और उन गुप्त साधनाओं की एक झलक अपने मन की आँखों से पाएं।
शायद आप में से कुछ को ये सब अलौकिक लगे, किंतु याद रखिए – "अलौकिक" का अर्थ है जो सामान्य से परे हो, असंभव नहीं। ये घटनाएँ प्रमाण हैं कि हम अपने सामान्य आचार-व्यवहार से परे भी बहुत कुछ हासिल कर सकते हैं। यह कथा चाहे एक घने कोहरे से ढकी घाटी की तरह रहस्यमय लगे, पर इसके हर मोड़ पर मानव की असीम क्षमता और उत्सुकता की मशाल जल रही है।
आखिर में, मैं एक तिब्बती मंत्र की पंक्ति के साथ अपनी बात समाप्त करना चाहूँगी – वह मंत्र जो हर मुश्किल घड़ी में मैंने दोहराया, और जिसने मुझे सुरक्षित रखा:
"ओम् मणि पद्मे हूं"
इसके उच्चारण मात्र से एक कंपन जागती है, ऐसा अनुभव होता है जैसे करुणा और साहस की अजस्र धारा हृदय में प्रवाहित हो रही है। इसी करुणा और साहस ने मुझे तिब्बत के उन मार्गों पर चलाया और सुरक्षित वापस लाया।
हिमालय की रहस्यमयी भूमि ने मुझे जो ज्ञान और कहानियाँ दीं, वे अब आपके साथ हैं। मैं आशा करती हूँ कि इस वृत्तांत को सुनते-सुनते आपके भीतर भी किसी अनदेखी दुनिया के द्वार खुले हों, या कम से कम, आपने कुछ देर के लिए अपने दैनिक जीवन से ऊपर उठकर बर्फानी पहाड़ों, प्राचीन मठों और जादुई कथाओं की यात्रा का आनंद लिया होगा। यही मेरी यात्रा का सार था और यही इस कहानी का उपहार है। विदा, फ़िलहाल के लिए – फ़्येल प्हे (तिब्बती में अलविदा) – लेकिन यह अलविदा अंतिम नहीं, क्योंकि खोजी आत्माओं की यात्राएँ कभी समाप्त नहीं होतीं। हम सबके भीतर एक तिब्बत है, जिसे जानना अभी बाकी है…