श्रीरामरायजी की अद्भुत जीवनगाथा | Bhaktmaal 01

भक्ति, ज्ञान और वैराग्य का दिव्य संगम

जन्म और बाल्यकाल

सारस्वत ब्राह्मण वंश में अवतरित श्रीरामरायजी का जन्म विक्रम संवत 1540 (ई.1483) वैसाख शुक्ल एकादशी को लाहौर, रावी नदी के तट पर हुआ। पिता श्रीगुरुगोपालजी और माता श्रीयशोमतिजी उच्च आस्थावान भक्त थे। कहा जाता है कि ठाकुर श्रीराधामाधवजी ने स्वप्न में श्रीगुरुगोपालजी को आदेश दिया कि अपनी पत्नी को चरणामृत पिलाएँ, जिससे एक दिव्य संत का अवतार होगा। इस दिव्य संकल्प से यशोमतिजी के गर्भ में स्वयं प्रभु की शक्ति का संचार हुआ। बालक का नाम रामेश्वर, रामराय, रामदास और रामगोपाल जैसे विभिन्न रूपों में पड़ा।

ग्यारह वर्ष की आयु में यज्ञोपवीत संस्कार के समय उन्हें गायत्री मंत्र के साथ राधागोपाल मंत्र की दीक्षा मिली, जो आगे चलकर उनके आध्यात्मिक जीवन का आधार बना।

 

साधना और अद्भुत चमत्कार

श्रीरामरायजी बचपन से ही ज्ञान, वैराग्य और भक्ति में लीन रहते थे। काम, क्रोध, अहंकार, लोभ, मोह और ईर्ष्या जैसे विकारों का उन्होंने पूर्ण त्याग किया। संतों को देखकर उनका हृदय वैसे ही खिल उठता जैसे सूर्य की किरणों से कमल।

बसंत पंचमी (वि.सं. 1552) को श्रीजयदेवजी की जयंती पर उन्होंने बिना किसी सामग्री का प्रबंध किए एक हजार ब्राह्मणों को भोजन कराया। यह अद्भुत घटना दूर-दूर तक प्रसिद्ध हुई और उनके चमत्कारी व्यक्तित्व की गूंज फैल गई।

 

तीर्थयात्रा और वृन्दावन प्रवास

राधामाधवजी की आज्ञा से वे हरिद्वार, अलीगढ़, काशी और अन्य तीर्थों की यात्रा करते हुए अंततः वृंदावन पहुँचे। हरिद्वार में नाना के बड़े भाई श्रीआसुधीरजी से मिलकर उन्हें भी वृंदावन लाए। काशी में उनकी शोभायात्रा में श्रीमाधवेन्द्रपुरी, श्रीबल्लभाचार्य, कवि रंगनाथ जैसे महापुरुष सम्मिलित हुए।

वृन्दावन में यमुनातट पर उन्हें श्रीराधामाधवजी के दिव्य दर्शन हुए। बाद में वे जगन्नाथपुरी भी गए और वहाँ लाहौर से आए भक्तों को वृन्दावन का दर्शन कराया।

 

महान संतों से दिव्य संगम

श्रीरामरायजी ने अपने जीवन में कई महान संतों से गहन संवाद किया।

·        श्रीनित्यानंद महाप्रभु ने उन्हें संकर्षण भगवान का स्वरूप बताया।

·        श्रीचैतन्य महाप्रभु ने उन्हें "साक्षात रामभद्र" कहा और उनसे गीतगोविंद की अष्टपदी सुनकर प्रसन्न हुए।

·        श्रीमाधवेन्द्रपुरी ने उन्हें श्रीनाथजी की सेवा का उत्तरदायित्व सौंपा।

·        श्रीबल्लभाचार्य ने उनकी भक्ति और विनम्रता की भूरि-भूरि प्रशंसा की।

इन दिव्य सान्निध्यों ने उनके जीवन को और भी तेजस्वी बना दिया।

 

श्रीनाथजी की सेवा और रसवर्षा

गोवर्धन में श्रीनाथजी की प्राकट्य लीला के पश्चात श्रीरामरायजी को उनकी सेवा का दायित्व सौंपा गया। उन्होंने अनेक उत्सवों का आयोजन कर ब्रज में भक्ति-रस की धारा बहाई। अंततः उन्होंने यह सेवा श्रीबल्लभाचार्यजी को सौंप दी और स्वयं साधना में लीन हो गए।

श्रीगौरांग महाप्रभु के साथ अक्रूरघाट पर भजन-कीर्तन करते हुए उनका जीवन भक्ति और प्रेम का अनुपम उदाहरण बन गया।

ग्रंथ और साहित्य

श्रीरामरायजी केवल संत ही नहीं, एक महान ग्रंथकार भी थे। उन्होंने संस्कृत में बारह प्रमुख ग्रंथों की रचना की। इनमें ब्रह्मसूत्र पर गौरविनोदिनी वृत्ति, आदिवाणी, और गीतगोविंद पदावली विशेष रूप से प्रसिद्ध हैं। उनकी वाणी को 'आदिवाणी' कहा गया, जो आज भी भक्तों को प्रेरणा देती है।

अंतिम समय और विरासत

अपने अंतिम दिनों में वे वंशीवट और बन-विहार में भजन-ध्यान में लीन रहे। विक्रम संवत 1600 (लगभग 1543 ई.) तक वे इस धरती पर भक्ति की अमर ज्योति बनकर रहे। उनके 12 प्रमुख शिष्य थे, जिनमें श्रीभगवानदासजी, श्रीकेशवदासजी, और श्रीराधिकानाथजी जैसे महान संत शामिल हैं।

निष्कर्ष

श्रीरामरायजी का जीवन भक्ति, ज्ञान और वैराग्य का अद्भुत संगम है। उनकी साधना, सेवा और आध्यात्मिकता आज भी हमें यह संदेश देती है कि ईश्वर प्रेम और निष्काम भक्ति ही मानव जीवन का परम लक्ष्य है। उनकी लिखी आदिवाणी और गीतगोविंद पदावली भक्ति मार्ग पर चलने वालों के लिए अमूल्य निधि हैं।

श्रीरामरायजी की यह दिव्य गाथा हमें याद दिलाती है कि जब मनुष्य अपने भीतर की ईश्वर-स्मृति को जागृत कर लेता है, तब वह स्वयं भगवान के प्रेम का साक्षात अनुभव कर सकता है।

Back to blog

Leave a comment