हिमालय की ओर: राम ठाकुर की सिद्धाश्रम यात्रा

हिमालय की ओर: राम ठाकुर की सिद्धाश्रम यात्रा

 गुरु का बुलावा

राम ठाकुर की आध्यात्मिक यात्रा का आरंभ बाल्यावस्था में ही हो गया था। उन्होंने छोटी आयु में ही सांसारिक बंधनों को त्याग दिया और सत्य की खोज में निकल पड़े। अपने जीवन का लगभग आधा भाग उन्होंने दुनिया की नज़रों से छिपकर विभिन्न तीर्थों और सुदूर स्थलों में साधना करते हुए बिताया। इन वर्षों में कई रहस्यमयी अनुभव उन्हें हुए, जिनके बारे में वह कभी-कभार संक्षेप में संकेत भर किया करते थे – अपनी गुरु-परंपरा के रहस्यों और कुछ अलौकिक घटनाओं की झलक उन्होंने निकटस्थ भक्तों को दी, यद्यपि उन गुप्त वर्षों का क्रमिक विवरण किसी को ज्ञात नहीं। एक युवा सन्यासी के रूप में उनकी आत्मा एक मार्गदर्शक की तलाश में थी, और अंततः भाग्य ने उनका साक्षात्कार एक महान सिद्ध गुरु से करा दिया।

एक एकांत पर्वतीय स्थान में राम को अपने गुरु के दर्शन हुए। गुरु एक तेजस्वी, करूणामयी विभूति थे – सरल सफ़ेद वस्त्र धारण किए, शांत मुखमुद्रा, पर आँखों में गंभीर गहराई। पहली भेंट में ही राम ठाकुर ने अनुभव किया कि उन्हें अपनी मंज़िल मिल गई है। हृदय में अपार श्रद्धा उमड़ पड़ी और उन्होंने निस्संकोच स्वयं को गुरु के चरणों में समर्पित कर दिया। गुरु ने स्नेहपूर्वक अपने नये शिष्य को उठाकर गले लगाया। उसी क्षण से राम ठाकुर अपने गुरु के सान्निध्य में रहकर साधना और सेवा में लीन हो गए। समय के साथ गुरु ने उन्हें विभिन्न योग-अभ्यास और ध्यान की गहराइयाँ सिखाईं। राम के अन्य गुरुभाइयों से भी उनका परिचय हुआ – गुरु के कुल चार प्रमुख शिष्यों में वृंदारण्य, चैतन्य तथा शंकरानंद जैसे साधक शामिल थे। इन गुरुभाइयों ने एक साथ कठिन तप में गुरु का साथ दिया था और आपस में घनिष्ठ आत्मीय संबंध था।

कुछ वर्षों पश्चात एक दिन गुरु ने संकेत दिया कि समय आ गया है एक विशेष अभियान का। उन्होंने राम ठाकुर तथा दो अन्य गुरुभाइयों को बुलाकर कहा कि वे एक अत्यंत महत्त्वपूर्ण यात्रा पर चलने वाले हैं – यह यात्रा हिमालय के उन अज्ञात प्रदेशों की ओर होगी जहाँ सिद्ध महापुरुष तपस्यारत हैं। गुरु के मुख से "हिमालय" और "सिद्ध आश्रम" जैसे शब्द सुनकर राम ठाकुर का हृदय उत्साह से भर उठा। पर्वतराज हिमालय प्राचीन काल से ही ऋषियों-महात्माओं की साधना स्थली रहा है; कितनी पावन कथाएँ वहाँ की गुफाओं में गुंजित हैं। अब स्वयं वहाँ के दर्शन का अवसर आ रहा था। यद्यपि यात्रा दुर्गम और कठिन होने वाली थी, किन्तु गुरु का आदेश पाकर राम अपने संकोच और संशयों को त्याग चुके थे। उनके लिए सबसे बड़ा सौभाग्य था गुरु की छाया में रहकर आध्यात्मिक मार्ग पर आगे बढ़ना। उन्होंने और दोनों गुरुभाइयों ने तुरंत तैयारी आरंभ कर दी – तन मन से सेवा एवं तप द्वारा अर्जित शक्ति इस यात्रा की पूँजी थी, और अटल विश्वास उनकी ढाल। एक शांत प्रभात में, गुरु के चरण स्पर्श कर आशीर्वाद लेते हुए, तीनों शिष्य हिमालय की ओर प्रस्थान को तत्पर थे। गुरु सबसे आगे चल पड़े और शिष्य श्रद्धा व उत्सुकता के साथ उनके पीछे हो लिए। एक दिव्य अध्याय का आरंभ होने को था।

 हिमालय की ओर प्रस्थान

हिमालय की ओर प्रारंभिक सफर रोमांच से भरा हुआ था। जैसे-जैसे वे उत्तरी दिशा में आगे बढ़ते गए, प्राकृतिक दृश्यों की भव्यता बढ़ती चली गई। समतल मैदानों को पीछे छोड़ कारवाँ पहाड़ी रास्तों पर अग्रसर होने लगा। घने वन, कलकल बहती नदियाँ, ऊँचे देवदारुओं की छाया – राम ठाकुर इन सबमें परमात्मा की झलक देख रहे थे। गुरु अविचल कदमों से आगे बढ़ते जाते, मानो उन्हें रास्तों का पूर्वज्ञान हो। गुरुभाइयों के संग राम चुपचाप गुरु के पदचिह्नों का अनुसरण कर रहे थे। ऊँचाई बढ़ने के साथ हवा पतली और ठंडी होती गई; साँसों में बर्फ़ीली ताज़गी भरने लगी। दिन में चमकती सूरज की किरणें बर्फ़ीली चोटियों को स्वर्णिम बनातीं, तो रात में गहन निस्तब्धता के बीच आकाशगंगा का नृत्य दिखाई देता। तीनों शिष्य गुरु के साथ इन दृश्यों को निहारते हुए भी अंतर्मुखी थे – सबके मन में एक ही संकल्प था कि किसी भी कठिनाई में पीछे नहीं हटना है।

ज्यों-ज्यों कारवाँ आगे बढ़ा, मार्ग और अधिक बीहड़ और दुर्गम होता गया। अब वे मानव-बस्तियों की अंतिम सीमाएँ भी पार कर चुके थे। सामने विस्तार था तो केवल हिम-प्रदेश का – चारों ओर बर्फ़ीली उजाड़ भूमि और उँचे हिमशिखर। उस निर्जन सफेद मरुभूमि में दूर-दूर तक कोई हरियाली या जन-जीवन दृष्टिगोचर नहीं होता था। यह वह क्षेत्र था जहाँ सामान्य मनुष्य के पैर न पड़ें। गुरु अपने शिष्यों को एक दुर्लभ मार्ग से ले जा रहे थे – ऐसा मार्ग जिस पर चलना आम जन के लिए असंभव बताया जाता है। कँपकँपाती ठंड, तेज़ बर्फ़ीली हवाएँ और ऑक्सीजन की कमी – प्रत्येक क़दम एक परीक्षा थी। पर गुरु ने पहले ही उन्हें चेताया था कि इस यात्रा में शारीरिक क्षमता से अधिक योगबल की आवश्यकता पड़ेगी। आगे का रास्ता ऐसा था कि यदि कुछ विशिष्ट योग-सिद्धियाँ अर्जित न की हों, तो प्राण लेकर पार नहीं पाया जा सकता था। विशेषकर लंबे समय तक श्वास रोक पाने की क्षमता (कुंभक) यहाँ अनिवार्य थी, क्योंकि हवा विरल थी और कहीं-कहीं तो श्वास लेना भी दुष्कर होने वाला था। राम और उनके गुरुभाइयों ने गुरु की इस चेतावनी को मन में बाँध लिया। साधना से अर्जित प्राणायाम कौशल का अब वास्तविक परीक्षण होना था।

दुर्गम बर्फ़ीले मैदानों में दिन-प्रतिदिन चलने के बाद, एक शाम गुरु एक अनजान दुर्गंध गुफ़ा के मुख पर आकर रुके। आगे का मार्ग उस गुफ़ा के भीतर से जाता था। भीतर घोर अंधकार फैला था और कुछ भी दिखाई नहीं दे रहा था। शिष्य एक पल को सशंकित हुए, किंतु गुरु निडरता से गुफ़ा में प्रवेश कर गए तो सबने उनका अनुसरण किया। गुफ़ा के भीतर का अनुभव अविस्मरणीय था: चारों तरफ़ इतनी गहरी कालिमा थी कि अपने हाथ तक नज़र नहीं आते थे। पथरीले संकरे रास्ते पर चलने के लिए कोई प्रकाश का साधन नहीं था – सिर्फ़ गुरु की उपस्थिति का एहसास ही मार्गदर्शक था। तीनों शिष्य मन-ही-मन ईश्वर का नाम लेकर गुरु के पीछे बढ़ते चले गए। कभी दीवार टटोलकर, कभी पैर से राह का अंदाज़ा लगाते, वे आगे सरकते रहे। इस अंधकारमय सुरंग में दिन-रात का भान ही खो गया – लगातार चलते रहने से समय का भी पता नहीं चला। पूरे सत्ताईस घंटे बीत गए और वे अब भी उसी सुरंग में अग्रसर थे। इतनी लंबी अवधि तक श्वास को नियंत्रित रखना और शरीर को चलते रहने योग्य ऊर्जा देना साधारण मानव के लिए असंभव था, परंतु गुरु की शक्ति और अपनी योग-साधना के बल पर राम ठाकुर और उनके साथी इस कठिन परीक्षा में सफल हो रहे थे। अंततः लंबी यात्रा के बाद सुरंग का अंतिम भाग आया – दूर क्षीण प्रकाश की एक किरण दिखी और सबने राहत की साँस ली। गुफ़ा से बाहर निकलते ही उन्होंने स्वयं को एक बिल्कुल नए प्रदेश में पाया।

गुफ़ा के उस पार का दृश्य उनकी कल्पनाओं से परे था। महीनों की कठिन यात्रा के बाद वे एक रहस्यपूर्ण स्थान पर पहुँच चुके थे। गुरु ने बताया कि वे अब कौशिक आश्रम के निकट हैं – यह वही लक्ष्य-स्थान था जिसके लिए सबने यह कष्टसाध्य मार्ग चुना था। हिमालय के तुषार-मरुभूमि के बीचोंबीच एक बेहद रमणीय स्थल था, मानो बर्फ़ के रेगिस्तान में सुंदर नखलिस्तान! चारों ओर बर्फ़ की सफेदी के बीच यह आश्रम स्थल किसी चमत्कार से कम नहीं प्रतीत होता था। शिष्यगण प्रकृति के इस अनोखे रूप को निहार ही रहे थे कि गुरु आगे बढ़कर आश्रम के भीतर प्रवेश कर गए। राम ठाकुर और उनके साथी भी श्रद्धा और जिज्ञासा के साथ पीछे-पीछे अंदर पहुँचे – और वहाँ जो देखा, उसे देखकर उनके रोंगटे खड़े हो गए।

रहस्यमयी कौशिक आश्रम

आश्रम के अंदर एक छोटा-सा प्रांगण था जिसे चारों ओर पत्थरों से घेरा गया था। बीचोंबीच पाँच आसन (बैठने के स्थान या चटाई) बिछे हुए थे। दो आसन ख़ाली पड़े थे, जबकि तीन आसनों पर तीन योगी-महापुरुष ध्यानमग्न अवस्था में विराजमान थे। इन सिद्ध पुरुषों का स्वरूप देख कर राम ठाकुर स्तब्ध रह गए। तीनों के शरीर अत्यंत कृश (दुर्बल) थे – ऐसा प्रतीत होता था मानो केवल हाड़-चमड़ा ही शेष है; शरीर पर मांस नाम मात्र को रह गया था और त्वचा सूखकर पसलियों से लग गई थी। उनकी आँखें अंदर को धँसी हुई अवश्य थीं, पर उनमें तेज की अद्भुत ज्योति थी। स्पष्ट था कि ये कोई सामान्य संन्यासी नहीं, परम सिद्ध योगी थे जो न जाने कब से समाधिस्थ अवस्था में वहाँ जड़े बैठे थे।

एक महापुरुष विशेष रूप से ध्यान खींच रहे थे – उनका कद असाधारण रूप से लंबा था। राम ठाकुर ने विनम्रतापूर्वक आगे बढ़कर उनके सम्मुख प्रणाम हेतु झुकना चाहा, तो पाया कि वह योगी आसन पर बैठे-बैठे भी इतने ऊँचे थे कि उनका सिर, खड़े राम ठाकुर की ऊँचाई के लगभग बराबर था। इस अद्भुत दृश्य से राम का हृदय श्रद्धा से भर गया। उन्होंने दोनों हाथ ऊँचे उठा कर उस दिव्य पुरुष को मौन अभिवादन किया। योगी ने भी धीमे से हाथ उठाकर आशीर्वाद की मुद्रा में प्रत्युत्तर दिया। दोनों के बीच एक भी शब्द का आदान-प्रदान नहीं हुआ, पर यह मूक अभिवादन भी मानो आत्माओं का संवाद था। बाक़ी दो सिद्ध पुरुष अपनी तल्लीन दशा में स्थिर थे; आँखें मूँदे शांत बैठे थे मानो बाहरी दुनिया से उनका नाता बहुत पीछे छूट चुका हो। आश्रम में उस क्षण घोर निस्तब्धता छाई थी – केवल तीनों संतों के मद्धिम श्वास-प्रश्वास की ध्वनि या हृदय की धड़कन-सी कोई हल्की कंपन ही महसूस हो रही थी। राम ठाकुर और उनके दो साथियों ने निश्चल खड़े रहकर उस नज़ारे को अपने भीतर उतारा। यह जीवन में पहली बार था जब वे ऐसे सिद्धमहापुरुषों के साक्षात निकट आए थे। उनके मन श्रद्धा, विस्मय और आनंद से भर उठे।

कुछ देर पश्चात गुरु ने धीमे स्वर में कहा कि “तुम तीनों को कुछ समय के लिए यही रुकना होगा।” शिष्यों ने चौंककर गुरु की ओर देखा। गुरु ने अपनी आँखों से आश्वासन दिया कि वे निष्चिंत रहें और आदेश का पालन करें। उन्हें यह समझते देर न लगी कि गुरु उन्हें इन तपस्वी महात्माओं की सेवा के लिए छोड़ना चाहते हैं। राम ठाकुर सहित तीनों ने तत्काल आज्ञा शिरोधार्य की। गुरु ने तीनों सिद्ध पुरुषों की ओर आदर से दृष्टि डाली, मानो उनकी अनुमति ले रहे हों, फिर बिना कोई विस्तृत चर्चा किए वहाँ से प्रस्थान किया – अकेले ही किसी अन्य गूढ़ गंतव्य की ओर। राम और उनके गुरुभाई पलभर के लिए गुरु के विछोह से विचलित अवश्य हुए, किन्तु उन्हें पूरा विश्वास था कि गुरु की इच्छा में अवश्य कोई गहरा अर्थ है। उन्होंने नतमस्तक होकर गुरु को जाते हुए देखा और मन ही मन प्रार्थना की कि वे उनके द्वारा सौंपे गए कार्य को पूर्ण निष्ठा से निभा सकें।

गुरु के जाते ही अब आश्रम में केवल राम ठाकुर, उनके दो साथी और वे तीन सिद्धयोगी रह गए। वह एक अनूठी स्थिति थी – युवा साधक और अज्ञात आयु के प्राचीन तपस्वी एक ही स्थान पर, निशब्द। कुछ क्षण सभी शांत रहे। तीनों योगी अपने ध्यान में लीन थे, उन्होंने न आँखें खोलीं न किसी प्रतिक्रिया का संकेत दिया। राम ने अपने साथियों की ओर देखा और निगाहों-ही-निगाहों में मानो तय हुआ कि अब उनका कर्तव्य है इन योगियों की सेवा करना। ये महान आत्माएँ वर्षों से यहाँ तपस्यारत थीं; उनके शरीर जर्जर हो चुके थे। ज़ाहिर था कि वे अपनी देखभाल स्वयं नहीं कर पा रहे थे – न कहीं भोजन का संकेत था न अन्य सुविधाओं का। ऐसे में गुरु का उन्हें यहाँ छोड़ जाने का अर्थ स्पष्ट था: इन सिद्धों की सेवा-सुश्रूषा कर उनकी तपस्या में सहायक बनना।

राम ठाकुर और उनके दोनों गुरुभाइयों ने तुरंत सेवा का कार्यभार संभाल लिया। सबसे पहले उन्होंने आश्रम परिसर को अच्छे से साफ़ करना शुरू किया। तीनों मिलकर प्रतिदिन आश्रम को झाड़-बुहार कर पवित्र बनाए रखते। आश्रम के ठीक बाहरी किनारे पर कुछ दुर्लभ जंगली पौधे उगे थे जिनमें कमल सदृश सुंदर फूल खिलते थे। उन पौधों की बड़ी-बड़ी पत्तियाँ थाल की तरह चौड़ी थीं। राम और उनके साथियों ने निश्चय किया कि वे प्रतिदिन इन फूलों और पत्तियों का उपयोग पूजन एवं भोजन के लिए करेंगे। हर भोर वे उठकर हिम-नदी में स्नान करते, फिर उन पौधों से तीन फूल तथा तीन पत्ते सावधानीपूर्वक तोड़ लाते थे। आश्रम में साधुओं के समीप वे इन पत्तियों को पवित्र आसन की भाँति रख देते और प्रत्येक पत्ते पर एक-एक फूल अर्पित कर देते – ये फूल वे उन तपस्वियों को ईश्वरीय अर्पण समझकर भेंट करते, मानो उनका अनुष्ठान पूजन कर रहे हों। इसके पश्चात वे थोड़ा और पीछे हटकर विनम्रतापूर्वक प्रतीक्षा करते। फिर वे पास ही एक विटप की ओट में जाकर सूखे फलों व कंद-मूलों से जो भी अल्पाहार तैयार कर पाते, वह उन पत्तियों पर सजाए गए फूलों के पास छोटी कटोरियों में रख आते। यह उनका नित्य का क्रम बन गया।

प्रारंभिक कुछ दिनों में उन्हें समझ नहीं आया कि अन्नजल ग्रहण करने के लिए उन सिद्धों को कैसे प्रेरित करें, पर जल्द ही उन्होंने एक उपाय ढूँढ निकाला। वे तीनों मिलकर एक सुराही में स्वच्छ पानी और जंगली जड़ी-बूटियों से बनी हल्की पेय तैयार करते। फिर तीन मिट्टी के कटोरे भर उस पेय को साधुओं के लिए रखते। भोजन के रूप में जंगल में उपलब्ध कंद-फल या जौ के दाने आदि भिगोकर नरम करते और थोड़ा-थोड़ा उन कटोरियों में डाल देते। यह लघु भोग वे उन ध्यानमग्न योगियों के समक्ष उसी चौड़ी पत्ती पर रख देते और दूर हट जाते। कुछ समय बाद जब वे देखने आते तो आश्चर्य होता – फूल और पत्तियाँ यथास्थान रहतीं, मगर कटोरियाँ ग़ायब होतीं! इससे यह संकेत मिलता कि साधुजन ने अर्पित द्रव्य स्वीकार कर लिया है। सचमुच, कई बार उन्हें प्रत्यक्ष कुछ नज़र नहीं आता था, पर जितना भी अन्न-पानी उन्होंने अर्पित किया होता, वह अंततः अदृश्य रीति से ग्रहण कर लिया जाता। शायद उन योगियों ने सूक्ष्म अवस्था में उसे सेवन किया हो या किसी योगबल से उसे तुरंत आत्मसात् कर लिया हो – राम ठाकुर इस चमत्कार को देख दंग थे, पर इससे उनकी आस्था और बढ़ी। उन्हें विश्वास हो गया कि उनकी सेवा व्यर्थ नहीं जा रही, सिद्धपुरुष उसे स्वीकार कर रहे हैं।

दिन, सप्ताह और महीने इसी प्रकार बीतने लगे। उस निर्जन हिम-प्रदेश में तीनों युवा साधक इन तपस्वियों की सेवा में रत रहे। वहाँ मौसम बहुत निर्मम था – बाहर बर्फीली आँधी चलती, कभी-कभी पूरी रात हिमपात होता, तापमान असहनीय रूप से गिर जाता। मगर आश्रम के भीतर एक अजीब-सी शांत गर्माहट बनी रहती थी, जैसे किसी अदृश्य शक्ति ने एक सुरक्षा-घेरा बना रखा हो। संभवतः वह उन योगी-महात्माओं की तपस्याओं का तेज था जो आश्रम के परिवेश को संतुलित रखे हुए था। राम ठाकुर प्रायः रात में ध्यानमग्न होते तो उन्हें अनुभव होता मानो स्वयं उनके भीतर भी उसी ऊर्जा का संचार हो रहा है। सुदूर हिमालय के हृदय में गुज़रे वे दिन-रात मानो एक स्थिर शाश्वत वर्तमान की अनुभूति दिला रहे थे। सूर्योदय से पहले उठकर तीनों सेवा में लग जाते, दिन में अपने लिए भी कंद-मूल का थोड़ा भोजन जुटाकर ग्रहण कर लेते, फिर संध्या को फिर से आश्रम की देखभाल, जल की व्यवस्था, और रात्रि में ध्यान-साधना – यही दिनचर्या बन गई थी। शब्दों का प्रयोग लगभग शून्य था; आपस में भी वे बहुत कम बोलते ताकि आश्रम की निस्तब्धता भंग न हो। धीरे-धीरे उनके अंतर्मन में गहरी निश्चलता उतरने लगी।

छः महीने यूँ ही निकल गए और इस बीच कोई बाहरी व्यक्ति वहाँ नहीं आया। समय का भान जैसे मिट गया था – न कोई तिथि, न समाचार, बस तपोमय दिन-रात। राम ठाकुर मन ही मन सोचते कि गुरु कब वापस आएंगे, पर धैर्य बनाए रखते। उन्होंने इस सेवा को ही साधना मान लिया था। एक परम संतोष का अनुभव उन्हें होने लगा – संसार से दूर, महान तपस्वियों की छाया में, गुरु-कृपा से सेवा करते हुए जीवन धन्य हो रहा था। कभी-कभी रात के सूने पहर में वे उन योगियों की ओर देखते, जो निरंतर ध्यान-मग्न बैठे थे; उनके मुखमंडल पर अद्भुत तेज और शांति थी। राम कल्पना करते कि न जाने ये विभूतियाँ कितनी सदियों से यहाँ आराधना कर रही हैं, और क्या दिव्य लक्ष्य इनकी प्रतीक्षा में है। इन विचारों से उनकी रीढ़ में सिहरन दौड़ जाती और वे फिर से नेत्र मूँदकर ईष्ट का स्मरण करने लगते।

एक ओर जहाँ वे तीनों गुरुभाई सेवा व तपस्या में लीन थे, वहीं दूसरी ओर उनके हृदय में अपने गुरु के लिए उत्कंठा भी बनी हुई थी। हर आहट पर लगता कि शायद गुरु वापस आ गए हों। उन लोगों ने आशा नहीं छोड़ी थी कि गुरु दोबारा उनसे मिलने अवश्य आएंगे और अगला मार्गदर्शन देंगे। छः मास के इस सेवा-काल ने उनकी दृढ़ता, भक्ति और धैर्य की परीक्षा ली और परिपक्व किया। अंततः वह दिन भी आया, जब गुरु की प्रतिज्ञा पूर्ण होनी थी। एक सुबह, जब सूर्योदय की लालिमा पहाड़ियों पर फैल रही थी, अचानक आश्रम के द्वार पर एक परिचित आभा प्रकट हुई। राम ठाकुर ने पीछे मुड़ कर देखा – उनके परम पूज्य गुरु, शांत मुस्कान लिए, वहाँ खड़े थे! गुरु को देखते ही राम की आँखें भर आईं। उन्होंने दौड़कर गुरु के चरण पकड़ लिए। अन्य दोनों गुरुभाइयों ने भी हर्षातिरेक से गुरु को प्रणाम किया। महीनों का बिछोह क्षण भर में मिट गया। गुरु ने तीनों को प्रेमपूर्वक उठाकर अपने हृदय से लगाया। उनकी आँखों में प्रसन्नता झलक रही थी, मानो वे अपने शिष्यों की परीक्षा से संतुष्ट होकर लौटे थे।

गुरु की वापसी और सिद्धों का रहस्य

गुरु के लौटते ही आश्रम में नए प्राण संचारित हो गए। तीनों योगी-महात्माओं ने भी जैसे गुरु की उपस्थिति को अन्तर्यामी होकर भाँप लिया, क्योंकि लंबे अंतराल के बाद पहली बार तीनों ने एकसाथ नेत्र खोले और मंद्र स्वर में “ॐ” का उच्चारण किया। यह एक अलौकिक क्षण था – उन सिद्धों ने मूक कृतज्ञता से गुरु की ओर दृष्टि उठाई, और गुरु ने भी हाथ जोड़कर दूर से ही उन्हें प्रणाम किया। फिर, संकेतात्मक भाषा में, गुरु ने उन तपस्वियों से विदा लेने की अनुमति माँगी। योगियों ने हल्का-सा मस्तक हिलाया मानो आशीर्वाद दे रहे हों। गुरु ने राम तथा अन्य शिष्यों को इशारा किया कि वे प्रस्थान की तैयारी करें। सेवा का कार्य संपन्न हो चुका था और अब आगे बढ़ने का समय था। विदा-क्षण की पावन गंभीरता में राम ठाकुर और उनके साथियों ने विनम्रतापूर्वक तीनों योगियों के चरण छुए, यद्यपि वे अपनी जगह से हिले नहीं, किंतु उनकी आँखों में अपार करुणा और आशीर्वाद झलक रहा था। राम को लगा मानो वे कह रहे हों – जाओ, कल्याण हो!

कुछ ही देर में गुरुदेव अपने शिष्यों को लेकर उस आश्रम से निकल पड़े। बाहर निकलते-निकलते राम ठाकुर ने अंतिम बार मुड़कर उन दिव्य संतों और उस अद्भुत कौशिक आश्रम को निहारा। उन्हें विश्वास था कि जीवन भर यह दृश्य उनके मन में अंकित रहेगा – बर्फ़ीली मरुभूमि में वह छोटी-सी तपस्थली, पाँच आसन, तीन महापुरुषों की ध्यानमूर्ति और दो ख़ाली आसन जिनके रहस्य अभी अज्ञात थे। चलते-चलते वे स्वयं को भाग्यशाली मान रहे थे कि गुरु-कृपा से उन्हें इतने निकट से ऐसे सिद्ध पुरुषों की सेवा करने का अवसर मिला।

आश्रम से पर्याप्त दूर निकल आने के बाद राह में गुरु धीरे से मुस्कुराए। उन्होंने शिष्यों की ओर देखा और बोले, “मैं तुम सबसे प्रसन्न हूँ। तुमने समर्पित भाव से सेवा की है, अब आगे की यात्रा में चलो।” गुरु के इन शब्दों को सुनकर राम ठाकुर को असीम संतोष हुआ। उनका रोम-रोम गुरु के प्रति कृतज्ञता से भर उठा। कुछ देर सभी शांतिपूर्वक चलते रहे। हिमालय के सुनसान मार्गों पर गुरु सबसे आगे थे और तीनों अनुयायी पीछे। राम ठाकुर के मन में पिछले छः महीनों की स्मृतियाँ घुमड़ रही थीं और कई प्रश्न भी सिर उठा रहे थे। अंततः उन्होंने साहस करके गुरु से विनीत स्वर में पूछा, “गुरुदेव, यदि आज्ञा हो तो एक बात जानना चाहता हूँ – आपने हमें उन महापुरुषों के पास अचानक छोड़कर क्यों चले गए थे?” यह प्रश्न पूछकर राम संकोचवश चुप हो गए। गुरु कुछ क्षण चुप रहे, फिर प्रेमपूर्ण निगाहों से राम की ओर देखकर विस्तार से समझाने लगे।

गुरु ने बताया कि उन तीनों सिद्धयोगियों की शारीरिक दशा बहुत गिर चुकी थी। वे लोग अनेकों वर्षों से कठोर तप में लीन थे और निराहार रहने के कारण उनके शरीर जवाब देने की कगार पर थे। उनकी प्रतिज्ञा थी कि वे अपने आसन (ध्यान की जगह) को त्यागकर कहीं नहीं जाएंगे – अर्थात् न तो भोजन-वस्त्र की खोज में बाहर निकलेंगे, न भिक्षा माँगेंगे। इसी नियम के कारण उनके लिए आहार जुटाना संभव नहीं रह गया था। परंतु विधि का विधान अभी उनका शरीर छोड़ने (परमधाम जाने) का समय नहीं आया था; उनके वर्तमान शरीर से कुछ महत्वपूर्ण कार्य अभी शेष थे जो उन्हें पूर्ण करने थे। यदि समय से पहले उनके पार्थिव शरीर नष्ट हो जाते, तो उनकी साधना का उद्देश्य अधूरा रह जाता। इन महान साधकों की तपस्या सफल हो, इसके लिए आवश्यक था कि उनके शरीर कुछ और समय तक चलें। यही कारण था कि गुरु उन शिष्यों (राम ठाकुर और गुरुभाइयों) को वहाँ लेकर आए – ताकि उनकी सेवा-शुश्रूषा द्वारा उन तपस्वियों के शरीर को आवश्यक पोषण और सहारा मिल सके और वे अपनी साधना को विधिवत पूर्ण कर सकें। राम ठाकुर और बाकी दो शिष्यों ने जो छह माह उनकी देखभाल की, उसी से वे तीनों महात्मा मृत्यु के मुख में जाने से बच गए और उनकी साधना अब अपने अंतिम चरण पूरे कर सकेगी। यह रहस्य जानकर राम ठाकुर की आँखें श्रद्धा से छलछला आईं। उन्होंने अनुभव किया कि गुरु की करुणा और दूरदर्शिता अपरंपार है। जिस प्रेम से उन्होंने अनजान सिद्धों की प्राण-रक्षा के लिए इतनी बड़ी योजना बनायी, वह सचमुच अद्भुत थी। राम के हृदय में गुरुदेव के प्रति सम्मान और भी गहरा हो गया।

गुरु की बात सुनकर एक प्रश्न जो राम के मन में कई दिनों से था, वह भी उमड़ पड़ा। उन्होंने पूछा, “गुरुदेव, जब हमने आश्रम में प्रवेश किया था, तब पाँच आसन थे – तीन पर वे सिद्ध पुरुष विराजमान थे, मगर दो आसन ख़ाली थे। क्या उन ख़ाली आसनों का भी कोई रहस्य है?” इस पर गुरु के चेहरे पर रहस्यमयी मुस्कान आयी। उन्होंने बताया कि वे दो खाली आसन भी साधुओं के ही थे, जो इस समय वहाँ उपस्थित नहीं थे। दरअसल वे दो सिद्धपुरुष कुछ विशेष कार्य से संसार (बाहरी लोक) में गए हुए थे। उन्होंने लोककल्याण हेतु सामान्य मानव की भाँति जन्म लिया है और अपने कर्तव्य का निर्वाह कर रहे हैं। जैसे ही उनका वह कार्य पूर्ण होगा, वे पुनः वापस उसी आश्रम में, अपने-अपने आसन पर लौट आएंगे। यह सुनकर राम ठाकुर पर मानो एक और रहस्योद्घाटन हुआ। दो महात्मा अब भी सांसारिक स्वरूप लेकर कहीं जनकल्याण में जुटे हैं – कौन जानते थे कि किसी साधारण मानव के रूप में कोई परम सिद्ध यहाँ से भेजा गया है! इसे सोचकर राम को रोमांच हो आया। गुरुदेव ने समझाया कि ईश्वरीय लीला बड़ी विचित्र होती है। कई बार दिव्य आत्माएँ मनुष्यों के बीच जन्म लेकर महान कार्य संपन्न करती हैं और फिर वापस अपनी अदृश्य लोकस्थिति में लौट जाती हैं। शिष्यों ने श्रद्धा से सिर हिलाया – सचमुच, उन ख़ाली आसनों के विषय में वे जो कल्पना भी नहीं कर सकते थे, गुरु ने वह सत्य उजागर कर दिया था।

इस प्रकार गुरु से वार्तालाप करते हुए राम ठाकुर और उनके साथी उस अज्ञात हिमालयी प्रदेश में आगे बढ़ते रहे। अब उनका गंतव्य कौशिक आश्रम नहीं, उससे भी आगे कहीं था। गुरु का नेतृत्व उन्हें और गहरे रहस्यों की ओर ले जा रहा था। हृदय में भक्ति और मस्तिष्क में जिज्ञासा लिए शिष्य चलते गए – पर्वतों की गोद में नए अनुभव उनकी प्रतीक्षा कर रहे थे।

सिद्धाश्रम की दिव्य झलक

कौशिक आश्रम से विदा लेकर गुरु और शिष्यों का यह छोटा काफिला आगे ऊँचाइयों की ओर चढ़ता गया। कुछ दूर चलने पर अचानक पर्वतीय ढलान पर उन्हें हरियाली के चिह्न दिखाई देने लगे। ऊँचे-नीचे रास्तों के किनारे अब झाड़ियाँ और पेड़ मिलने लगे – मानो वे किसी छुपी घाटी में प्रवेश कर रहे हों जहाँ प्रकृति की गोद फिर हरी-भरी थी। चलते-चलते एक स्थान पर पहुंचकर राम ठाकुर की निगाह सामने पड़े दृश्य पर ठिठक गई। उन्होंने आँखें मसलकर दुबारा देखा – दूर तक अनगिनत अनार (दाड़िम) के पेड़ों की कतारें फैल रही थीं! हर एक पेड़ फलों से लदा हुआ था। कच्चे हरे अनार, सुनहरे पके अनार, यहाँ तक कि कुछ फल अधिक पककर फट गए थे और उनसे झाँकते लाल चमकते दाने सूरज की रोशनी में लाल-माणिक जैसे दमक रहे थे। ज़मीन पर भी ढेरों गिरे हुए फल बिखरे थे – प्रकृति उदार होकर मानो फल बरसा रही थी। यह नज़ारा एक काल्पनिक राजकीय बग़ीचे-सा था, जो निर्जन पहाड़ों के बीच अप्रत्याशित रूप से प्रकट हो गया था। राम और उनके साथियों ने जीवन में कभी इतनी प्रचुरता एक साथ नहीं देखी थी। इस अनारों के राज्य के किनारे-किनारे चलते हुए उन्हें कई मील हो गए, मगर पेड़ों की श्रेणी ख़त्म होने का नाम ही न ले रही थी। ऐसा लगता था मानो इन फलों का कोई लेवालाचारी नहीं; यह धरा स्वयं इनका रसपान करती हो।

आश्चर्य यह कि इतनी लम्बी यात्रा और श्रम के बाद भी राम ठाकुर को न भूख का अहसास था न प्यास का। और यही स्थिति उनके साथियों की थी। गुरु की उपस्थिति में, उस दिव्य वातावरण में, मानो उन सबके भीतर कोई आंतरिक पोषण हो रहा था। फलस्वरूप किसी ने एक भी अनार तोड़कर खाने की इच्छा नहीं जताई। वस्तुतः उन्हें इन फलों की आवश्यकता ही महसूस नहीं हुई – उनके लिए प्रकृति का यह चमत्कार दृश्य मात्र था, भोक्तव्य वस्तु नहीं। गुरु मंद-मंद मुस्कुरा रहे थे; शिष्यों की आत्म-संतुष्टि देखकर उन्हें प्रसन्नता हो रही थी। एक शिष्य ने हँसते हुए कहा भी कि “अगर इस रास्ते का पता व्यापारियों को चल जाए तो दो-चार साल में ही अनार बेचकर धनकुबेर बन जाएँ!” इस पर सब हल्का-सा मुस्कुरा दिए और अपनी यात्रा जारी रखी।

आखिरकार लगभग आठ-दस मील लंबे उस अनारवन को पार कर लेने के बाद वे एक ऊँचे झरने के पास पहुँचे। उस झरने का पानी बिलकुल पारदर्शी क्रिस्टल-सा था और चांदी की धारा समान नीचे बह रहा था। सूरज की किरणें पानी पर पड़कर इंद्रधनुषी छटा बिखेर रही थीं। यहीं पास से एक संकरा मार्ग दूसरी ओर मुड़ता था। गुरु ने उसी राह पर कदम बढ़ाया। थोड़ी देर बाद उन्हें घने वृक्षों से घिरा एक खुला मैदान सा दिखा, जिसके बीचोंबीच प्राचीन पत्थरों से बनी कुछ छोटी कुटियाँ और मंदिर जैसी संरचनाएँ थीं। यह स्थान अत्यंत शांत और निःशंक प्रतीत होता था। जैसे ही उन्होंने वहाँ प्रवेश किया, राम ठाकुर के रोम-रोम ने अनुभूति की – यह कोई साधारण स्थल नहीं, बल्कि एक छिपा हुआ दिव्य आश्रम है। गुरु ने धीरे से कहा, “यह सिद्धाश्रम है।” शिष्यों ने यह शब्द पहले भी सुन रखे थे – शास्त्रों और संत-कथाओं में वर्णित एक गुप्त आश्रम जहाँ महान सिद्ध पुरुष तपस्या करते हैं। यह स्थान हर दृष्टि से उसी कल्पना को साकार कर रहा था।

सिद्धाश्रम का वातावरण अलौकिक था। वहाँ एक असीम निश्चिंतता और शांति व्याप्त थी, ऐसी शांति जो सीधे आत्मा को छू ले। चारों तरफ़ हरियाली थी, वृक्षों पर रंग-बिरंगे पक्षी बिना भय विचरण कर रहे थे। सबसे विस्मयकारी दृश्य तो वहाँ के जंगली जानवरों का था – आश्रम के इर्द-गिर्द विभिन्न जीव बिल्कुल सहज भाव से घूमा फिरा रहे थे। राम ठाकुर ने देखा कि एक पत्थर की छाया में एक विशाल बंगाल टाइगर सुस्ता रहा है और कुछ ही दूरी पर हिरणों का एक झुंड चर रहा है; मगर बाघ की आँखों में शिकारी चमक नहीं, अपितु एक सौम्य शांत भाव था। पास ही एक काला भालू मधुरता से जमीन से जड़ें नोचकर खा रहा था और उसकी बगल से ही नीलगायों का समूह गुज़र रहा था, कोई तनाव नहीं, कोई डर नहीं। पक्षी पेड़ों पर चहकते अवश्य थे, पर उनकी बोली में हल्की सरगम थी मानो भजन गा रहे हों। ऐसा अद्भुत सम दृश्य देखकर राम और उनके साथी अभिभूत हो गए। उनके लिए यह आँखों देखी सच्चाई सहज स्वीकारना कठिन था – क्या सचमुच बाघ और हिरण एक घाट पानी पी सकते हैं? यहाँ प्रकृति का नियम कैसे बदल गया? उनके मन में अनेक प्रश्न उमड़ पड़े, पर इस समय वे सिर्फ़ दृश्य को आत्मसात कर रहे थे।

तीनों शिष्य गुरु के पीछे-पीछे चलते हुए आश्रम के भीतर आ गए। गुरु ने एक स्थान पर रुककर सबको बैठने का संकेत किया। हरे-भरे घास के तुझे पर बैठते ही मन में अपूर्व शांति का संचार होने लगा। ऐसा लगता था मानो इस भूमि में ही औषधीय गुण है जो मन की समस्त थकान हर लेता है। राम ठाकुर ने निश्चल बैठकर चारों ओर दृष्टि डाली। उन्होंने पाया कि आश्रम में कुछ सफ़ेद-वस्त्रधारी ऋषि-दर्शन व्यक्ति भी दिखाई दे रहे हैं, जो दूरी पर पेड़ों तले ध्यानस्थ थे। स्पष्ट था कि यह सिद्धों की गोपनीय तपोभूमि थी, जहाँ बाहरी दुनिया का कोई व्यवधान नहीं था।

राम के चेहरे पर अभी भी विस्मय के भाव थे। गुरु ने उनके अंतर्मन को पढ़ लिया। शिष्यों का कुतूहल स्वाभाविक था – आख़िर उन्होंने जीवन में पहली बार प्रकृति का इतना सौहार्दपूर्ण रूप देखा था, जहां हिंसक-निर्दोष जीव साथ-साथ रहते हैं। गुरु ने सहज भाव से समझाना शुरू किया। उन्होंने कहा, “यह सब देख कर तुम्हें आश्चर्य हो रहा है न? लेकिन बात उतनी जटिल नहीं। सत्य तो यह है कि यदि मनुष्य के भीतर हिंसा न हो, तो बाकी जीव-जंतु भी हिंसा नहीं करते – उलटे वे कई बार मनुष्य के मित्र बनकर उसकी सहायता करते हैं। इस आश्रम में रहने वाले संतों ने अपने हृदय से सभी द्वेष, क्रोध, हिंसा का पूर्णतः नाश कर दिया है। उनकी उपस्थिति में यह संपूर्ण वातावरण अहिंसा और प्रेम से परिपूर्ण हो गया है, इसलिए यहाँ बाघ भी मेमने की भाँति शांति से रहता है। किसी को किसी से भय नहीं।” गुरु के इन शब्दों ने शिष्यों के मन के संशय हर लिए। सच ही तो है, जिस साधु ने अपने भीतर के राग-द्वेष जीत लिए, उसके आसपास का जगत भी प्रेमपूर्ण हो जाता है। राम ठाकुर को गुरु की बात पर तुरंत ही दो-तीन घटनाएँ याद आ गयीं जो उन्होंने पूर्व में सुनी थीं: Vrindavan में एक बार एक पागल हिंस्र बंदर ने पीड़ित राम ठाकुर की सेवा की थी, और एक अन्य भक्त "दामिनी माँ" के दो विषैले साँप बिल्कुल पालतू जीवों जैसे उसके साथ रहते थे (दोनों प्रसंग गुरु ने उन्हें पहले सुनाए थे)। आज सिद्धाश्रम में प्रत्यक्ष यह सिद्धांत देखने को मिल रहा था। राम ठाकुर की आँखें नम हो गईं – उन्होंने मन ही मन संकल्प लिया कि वे भी अपने हृदय से समस्त आसुरी प्रवृत्तियों को सदा के लिए मिटा देंगे, ताकि ईश्वर की सृष्टि के प्रति केवल प्रेम शेष रहे।

सिद्धाश्रम में कुछ समय गुरु और शिष्यों ने विश्राम किया। वहाँ की अद्भुत शांति ने उनके शरीर-मन की संपूर्ण थकान हर ली। ऋषि-महात्माओं की उस अघोषित उपस्थिति ने उनके अन्तःकरण को आलोकित कर दिया। उन्हें अनुभव हुआ मानो वे सतयुग की किसी पावन भूमि में आ पहुंचे हों – न संघर्ष, न भय, न कोई कलुषता, केवल आनंद और प्रकाश। उन्होंने भी एक ओर बैठ कर ध्यान लगाया और प्रकृति की गोद में ईश्वर का स्मरण किया। उस ध्यान में राम ठाकुर के अंतर में एक विलक्षण आनंद का प्रस्फुरण हुआ – जैसे उनके भीतर किसी दिव्य प्रकाश का उदय हो रहा हो। कुछ ही क्षणों में वे गहन समाधि जैसी स्थिति में चले गए। गुरु ने दूर से यह दृश्य देखा तो प्रसन्नता से मुस्कुरा दिए। परम शांति के उन क्षणों में उन्हें आभास हो गया था कि उनका शिष्य आत्मिक उत्थान की एक सीढ़ी चढ़ चुका है।

जब राम ठाकुर ध्यान से जागे तो सूर्य पश्चिम की पर्वतमालाओं की ओर झुक चला था। संध्या का सुंदर स्वर्णिम प्रकाश सिद्धाश्रम पर पड़ रहा था। गुरु ने संकेत किया कि अब उन्हें लौटना चाहिए। यद्यपि शिष्यों का मन वहाँ से हटने का नहीं हो रहा था – ऐसी अनुपम जगह कौन छोड़ना चाहेगा – पर वे जानते थे कि उनका कर्तव्य संसार में उनकी प्रतीक्षा कर रहा है। तीनों ने उस धरती को नमन किया, दूर बैठे ध्यानरत संतों को अन्तर्मन से प्रणाम किया, और स्मृतियों में सिद्धाश्रम की छवि संजोकर गुरु के साथ बाहर की ओर चल पड़े। जैसे ही वे आश्रम की सीमा से निकले, एक मृदु समीर का झोंका आया, मानो उस पावन धरा ने उन्हें अंतिम आशीर्वाद दिया हो।

 लौटना और ज्ञान की विरासत

हिमालय की गोपनीय गुफाओं और सिद्धाश्रम के दिव्य अनुभवों से समृद्ध होकर अब राम ठाकुर की यात्रा वापसी की ओर थी। गुरु ने एक भिन्न मार्ग चुना, जो अपेक्षाकृत सुगम था – संभवतः यह भी उनकी किसी योगशक्ति का ही प्रभाव था कि लौटते समय वे किसी अंधेरी सुरंग से नहीं गुज़रे और रास्ता सहज होता गया। धीरे-धीरे बर्फ़ीले पहाड़ पीछे छूटने लगे और हरियाली फिर प्रकट होने लगी। कुछ दिनों के भीतर वे समतल भूमि के नज़दीक पहुँच गए जहाँ मनुष्यों की बस्तियाँ आरंभ होती थीं। लंबे समय बाद मनुष्य-सभ्यता के दर्शन हो रहे थे। राम ठाकुर के हृदय में एक अजीब-सा भाव उत्पन्न हुआ – एक ओर सिद्धभूमि से बिछुड़ने का हल्का दुःख था, तो दूसरी ओर अपनी जन्मभूमि के समाज में वापस जाने की उत्सुकता भी। गुरुदेव ने मार्ग में उन्हें लोक-व्यवहार के संबंध में कुछ आवश्यक बातें समझाईं। उन्होंने कहा, “जिस जगत को तुमने पीछे छोड़ा था, अब पुनः वहीं जाना है। परंतु तुम अब पहले जैसे नहीं रहे। संसार को तुम्हारी अनुभूत शांति और तपोबल से लाभ पहुँचे, यही ईश्वर की इच्छा है।” राम ठाकुर ने हामी में सिर हिलाया। वे गुरु की हर आज्ञा को जीवन का मार्गदर्शन मानते थे।

अंततः एक प्रातः काल वह भी आया जब कई वर्षों तक लापता रहने के बाद राम ठाकुर पुनः लोक में प्रकट हुए। लगभग सत्रह-अठारह साल हिमालय समेत विविध तीर्थों में गुप्त रूप से बिताने के बाद उन्होंने कोलकाता के निकटवर्ती क्षेत्र में दुबारा कदम रखा। इस लंबे अंतराल में बहुत कम लोगों को उनके बारे में कोई जानकारी थी। जो पुराने परिचित उन्हें जानते थे, वे हैरत में थे कि अचानक यह दिव्य पुरुष कहाँ से वापस आ गया। पर राम ठाकुर ने स्वयं अपने गुप्त वर्षों की कोई कहानी सार्वजनिक रूप से नहीं सुनाई। वह स्वभाव से ही अल्पभाषी और विनम्र थे। उन्होंने अपनी सिद्धाश्रम यात्रा का ज़िक्र कभी-कभार बहुत अंतरंग शिष्यों के सम्मुख किया भी, तो बस उतना ही जिससे आध्यात्मिक प्रेरणा मिले, विवरण नहीं बताए। उन्होंने अपने गुरु, हिमालय प्रवास और अलौकिक अनुभवों के विषय में कुछ संकेत अवश्य दिए, किंतु इस कालखंड का क्रमिक वर्णन उन्होंने कभी प्रकट नहीं किया। लोग उनके इन रहस्यमय सालों के बारे में पूछते तो वे अक्सर मुस्कुरा कर बात टाल देते या ईशभक्ति की ओर conversación मोड़ देते। ऐसा लगता था मानो वे अध्याय उन्होंने अपनी आत्मा में संजोकर रखे थे, दुनिया की उत्सुक निगाहों से दूर।

राम ठाकुर के व्यक्तित्व में इस हिमालय यात्रा के पश्चात एक अद्भुत निखार आ गया था। पहले भी वे दिव्यता से भरपूर थे, किन्तु अब उनकी उपस्थिति मात्र से शांति की लहर फैल जाती थी। जो भी उनके पास आता, वह अपने चिंताभारित हृदय को हल्का पाता। लोगों ने अनुभव किया कि राम ठाकुर कठिन से कठिन परिस्थिति में भी अटल शांत और प्रसन्न रहते हैं। उनके भीतर सेवा का जो भाव जगा था, वह लौटने के बाद जनहित के असंख्य कार्यों में प्रकट हुआ। उन्होंने निराश्रितों, दुखियों, यहाँ तक कि जिन्हें समाज तिरस्कृत करता था – उन सबको गले लगाया, अपने हाथों से उनको भोजन कराया, आश्रय दिया। उनके व्यवहार में हिंसा या क्रोध नाममात्र को न था; वे सरलता की मूर्ति बन चुके थे। स्पष्ट था कि सिद्धाश्रम की अहिंसा और प्रेम की शिक्षा उन्होंने जीवन में उतार ली थी। वन के हिंस्र पशु जिस व्यक्ति को अहित नहीं पहुँचा सके, उस संत का हृदय मानव-मात्र के प्रति करुणा से लबालब था। उनके भक्त कवि नवीनचंद्र सेन ने उनके बारे में लिखा भी है: “साँप डसने आते-आते रुक जाता है, गाय-बैल आक्रमण को बढ़ते हैं, और राम ठाकुर के केवल ‘ना’ कहने भर से शांत होकर लौट जाते हैं”। सचमुच, राम ठाकुर अब चलते-फिरते दया और प्रेम की जीवंत मिसाल बन चुके थे।

गुरु के प्रति उनकी भक्ति और कृतज्ञता अटूट थी। उन्होंने गुरु द्वारा दिए गए प्रत्येक पाठ को जन-जन तक अपने आचरण के माध्यम से पहुँचाया। हिमालय की उस दिव्य यात्रा ने उन्हें जो ज्ञान मोती दिए थे, वे दूसरों को शब्दों की अपेक्षा कर्म एवं दृष्टि से बांटे। जो भी उनके संपर्क में आया, उसने उनके व्यक्तित्व में एक अनूठी गहराई और विरक्ति का अनुभव किया। साधारण बंगाली वेशधारी इस संत पुरुष के भीतर छिपा था हिमालय के सिद्धों का तेज और गुरु का प्रसाद।

इस प्रकार राम ठाकुर की हिमालय-यात्रा और सिद्धाश्रम के अनुभव एक गाथा बन कर उनके जीवन में रच-बस गए। उन्होंने भले ही स्वयं इस गाथा का विस्तार से बखान न किया हो, किंतु उनके शिष्यों-भक्तों ने उनके मुख से फूटे कुछ शब्दों और घटनाओं को सहेज कर रखा है। उन्हीं की बदौलत हमें आज पता चलता है कि मानव आत्मा की क्षमता क्या कुछ कर सकती है – एक किशोर संन्यासी कठोर तप द्वारा योगसिद्धियाँ अर्जित करता है, रहस्यमय मार्गों से होकर एक अज्ञात आश्रम में पहुँचता है, जहाँ कालजयी योगी एक ही आसन पर दशकों तक अचल ध्यान में बैठे हैं; वह उनकी सेवा कर उनके प्राणों की रक्षा करता है; फिर गुरु से और गूढ़ शिक्षा पाकर ऐसी भूमि में प्रवेश करता है जहाँ पशु-पक्षी सभी अहिंसा के सुर में सुर मिला रहे हैं; और अंत में वही युवक वापस लोक में आकर ज्ञान और करुणा की अविरल गंगा प्रवाहित कर जाता है। यह कोई कहानी नहीं, वास्तविक घटना थी – राम ठाकुर के जीवन का वह अध्याय जो एक लंबे समय तक रहस्य के आवरण में छिपा रहा, पर जिसने उनके शेष जीवन और शिक्षाओं को गहराई से प्रभावित किया।

आज, इस कथा को सुनते हुए ऐसा प्रतीत होता है मानो हम भी दो घंटे के लिए राम ठाकुर के संग हिमालय की उन बर्फ़ीली गुफ़ाओं और शांत घाटियों में घूम आए हों। उस हिम यात्रा की स्मृतियाँ किसी सजीव चलचित्र की भांति हमारे नेत्रों के सम्मुख उभरती हैं: गुरु का दृढ़ हाथ थामे युवा राम दुर्गम पहाड़ चढ़ रहा है; घने अंधकार में श्रद्धा की जोत के सहारे पग बढ़ रहे हैं; एक शांत आश्रम में क्षीणकाय योगियों की आँखों से दिव्य ज्योति झलक रही है; निस्वार्थ सेवा से तीन शिष्य महान तपस्वियों के शरीर को संबल दे रहे हैं; फिर गुरु का पुनरागमन और रहस्यों से परदा उठना; आगे एक मधुर वन में प्रकृति का स्वर्गिक रूप जहाँ हिंसा का नामो-निशान नहीं; और अंत में संसार में लौटकर एक संत का रूपांतरण। इस सम्पूर्ण यात्रा में रोमांच है, चकित कर देने वाले प्रसंग हैं, भावनात्मक गहराई है और है एक अंतर्निहित संदेश – यदि श्रद्धा अटल हो, गुरु पर विश्वास अडिग हो, और हृदय करुणा-प्रेम से भरपूर हो, तो मानव सीमाओं का अतिक्रमण कर दिव्य अनुभूतियों को पा सकता है।

राम ठाकुर की हिमालय यात्रा और सिद्धाश्रम के प्रसंग केवल व्यक्तिगत आध्यात्मिक उपलब्धि की कहानी भर नहीं हैं, बल्कि वे हम सभी के लिए प्रेरणा हैं कि सत्य की राह में चाहे कितनी ही बाधाएँ आएँ, दृढ़ संकल्प, सेवा और अहिंसा के बल पर उन्हें पार किया जा सकता है। यह कथा समाप्त होते-होते श्रोता के मन में एक अनूठी शांति और व्यापक दृष्टि का संचार कर जाती है – मानो हम भी हिमालय की उस पावन हवा में साँस ले आए हों और सिद्धाश्रम के किसी वृक्ष की छाया तले कुछ पल ध्यान में बैठ आए हों। राम ठाकुर के जीवन का यह अद्भुत अध्याय सुनने के बाद हृदय कह उठता है: “धन्य हैं वो गुरु जो ऐसे शिष्य का निर्माण करते हैं, और धन्य है वो शिष्य जो गुरु-अनुगामी होकर परम सत्य को पा लेता है।” सभी श्रोताओं को यह कथा अपने भीतर के सिद्धाश्रम की यात्रा के लिए उत्प्रेरित करे – इसी कामना के साथ, राम ठाकुर की कहानी यहीं पूर्ण होती है, पर उनकी स्मृति और संदेश अनंत काल तक सबके हृदय में गूंजते रहेंगे।

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