हिमालय में छिपा सिद्धों का आश्रम

हिमालय में छिपा सिद्धों का आश्रम

हिमालय की दुर्गम पहाड़ियों के बीच ज्ञानगंज योगाश्रम (जिसे सिद्धाश्रम भी कहते हैं) एक रहस्यमय आध्यात्मिक नगरी मानी जाती है। प्राचीन मान्यताओं के अनुसार यह एक ऐसा गुप्त स्थान है जहाँ महान योगी, सिद्ध साधु और ऋषि हजारों वर्षों से तपस्यारत हैं। तिब्बती परंपरा में इसे पौराणिक शाम्भाला या कलापग्राम के नाम से भी जाना जाता है। यह आश्रम भौतिक जगत से ओझल, एक अलग आयाम पर स्थित बताया जाता है, जहाँ सामान्य जन अपनी इच्छा से नहीं पहुँच सकते। कहते हैं कि केवल उच्च आध्यात्मिक क्षमता वाले साधक ही गुरु की कृपा से इस दिव्य स्थली के दर्शन कर पाते हैं।

इस रहस्यपूर्ण योगाश्रम का उल्लेख अनेक कथाओं और शास्त्रों में मिलता है। वाल्मीकि रामायण में महर्षि विश्वामित्र का तपस्थान सिद्धाश्रम के नाम से वर्णित है, जो कभी भगवान विष्णु (वामन अवतार) की तपोभूमि रहा। ऐसी पौराणिक कथाएँ संकेत देती हैं कि ज्ञानगंज जैसी सिद्ध भूमियाँ आदिकाल से अस्तित्व में हैं। मान्यता है कि महान गुरु परशुराम और अन्य अमर ऋषि कलियुग में भी हिमालय के इन रहस्यमय आश्रमों में तप कर रहे हैं। इस अलौकिक भूमि का आधुनिक दुनिया में प्रथम सार्वजनिक उल्लेख प्रसिद्ध योगी स्वामी विशुद्धानंद परमहंसजी ने किया था। बाल्यावस्था में किसी सिद्ध गुरु द्वारा वहाँ ले जाए जाने के बाद स्वामी विशुद्धानंदजी ने वर्षों तक ज्ञानगंज में साधना की और लौटकर दुनिया को इसकी झलक प्रदान की। उनके खुलासे के बाद से ज्ञानगंज योगाश्रम आध्यात्मिक जिज्ञासुओं और शोधकर्ताओं के लिए कौतूहल का विषय बन गया।

स्थापना और ऐतिहासिक प्रिष्ठभूमि

ज्ञानगंज आश्रम की स्थापना से जुड़े तथ्य रहस्य के आवरण में लिपटे हैं। प्राचीन ग्रंथों में सीधे 'ज्ञानगंज' का नाम नहीं मिलता, लेकिन सिद्धाश्रम की अवधारणा महाभारत, पुराणों आदि में मिलती है। मान्यता है कि प्राचीन काल में सप्तऋषियों एवं देवयोगियों ने हिमालय में ऐसी गुप्त तपोभूमि स्थापित की थी जो कलियुग तक सुरक्षित रहे। कुछ परंपराओं के अनुसार कलियुग में भी हर युग परिवर्तन पर इस आश्रम का पुनर्जागरण होता रहा है। एक धारणा यह है कि लगभग 1225 ईस्वी में महान योगी स्वामी ज्ञानानंद परमहंस ने इस आश्रम का पुनरुद्धार या पुनर्संगठन किया, जिससे यह वर्तमान स्वरूप में सक्रिय रह सका। इसीलिए ज्ञानगंज को “कलापग्राम के सिद्धसंघ” के रूप में भी जाना जाता है।

आधुनिक इतिहास में ज्ञानगंज का अस्तित्व तब प्रकाश में आया जब 19वीं-20वीं सदी के कुछ सिद्ध साधकों ने इसके बारे में प्रत्यक्ष/परोक्ष जानकारी दी। स्वामी विशुद्धानंद परमहंसजी (1873-1937) ने स्वयं बचपन में वहाँ 18-20 वर्ष तक शिक्षा पाने का विवरण दिया है। उनके अनुसार यह आश्रम तिब्बत के निकट एक दुर्गम घाटी में अवस्थित है जहाँ पहुँचना सामान्य मार्ग से असंभव है। स्वामी जी को उनके गुरु ने आंखों पर पट्टी बाँधकर सूक्ष्म मार्गों से वहाँ पहुँचाया था, जिसमें कुछ दूरी आकाश मार्ग से उड़कर भी तय हुई। वहाँ पहुँचने पर उन्होंने चारों ओर बर्फ़ से ढकी पर्वतश्रेणियों के बीच एक दिव्य नगरी देखी। यह विवरण संकेत करता है कि आश्रम किसी भौतिक स्थान पर होने के साथ-साथ एक सूक्ष्म आयाम में सुरक्षित है। भक्तिशास्त्रों में वर्णित ‘शांभला’ राज्य और सिद्धाश्रम को लोग इसी ज्ञानगंज का पर्याय मानते हैं।

प्रमुख सिद्ध संत और गुरु परंपरा

ज्ञानगंज योगाश्रम किसी एक गुरु द्वारा नहीं संचालित, बल्कि सिद्ध परमहंसों की पूरी शृंखला द्वारा संचालित संगठन है। यहां अनेक उच्चकोटि के योगी हैं जिनकी आयु सैकड़ों वर्ष बताई जाती है। वर्तमान गुरु-मंडल में कुछ प्रमुख नाम परंपरा से ज्ञात हैं:

·        महर्षि महातपा जी महाराजज्ञानगंज के परम गुरु या अध्यक्ष माने जाते हैं। स्वामी विशुद्धानंद के समय में इनकी आयु ~1300 वर्ष बताई गई। हिमालय में मनोहर तीर्थ नामक स्थान पर इनका आसन था। महातपा जी की गुरु को क्षेपा माता कहा जाता था, जो इतनी वृद्ध थीं कि उनके घने लंबे केश उनके शरीर को ढक लेते थे। महातपा जी स्थूल शरीर में रहकर भी दिव्य क्षमता से युक्त थे और आज भी कठिन हिमालयी स्थानों में गमन करने में समर्थ बताये जाते हैं।

·        स्वामी भृंगुराम परमहंसमहातपा जी के शिष्य मंडल में सबसे अधिक शक्तिशाली परमहंस माने जाते हैं। स्वामी विशुद्धानंद को योग एवं साधना की दीक्षा इन्होंने ही दी थी। उस समय (1880 के दशक) इनकी आयु ~500 वर्ष मानी गई। भृंगुराम जी अत्यंत तेजस्वी एवं ज्योतिर्मय शरीर वाले योगी थे। पं. गोपीनाथ कविराज की पत्नी ने एक बार उन्हें बनारस में विशुद्धानंद जी के पूजा-कक्ष में देखा तो उनकी प्रभा से मूर्च्छित हो गईं। कई शिष्यों ने भी मध्यरात्रि में भृंगुराम जी को बंद कमरों में प्रकट होते देखा था।

·        स्वामी ज्ञानानंद परमहंसयह ज्ञानगंज के एक रहस्यमय परमहंस हैं जिनका दूसरा नाम कुथूमी बाबा बताया जाता है। थियोसोफिकल सोसायटी के पश्चिमी साधकों के बीच ये कुथूमी बाबा के नाम से प्रसिद्ध हैं। कहा जाता है कि मैडम हेलेना ब्लावात्स्की और कर्नल ओल्कोट्ट जैसे थियोसॉफी के संस्थापकों को पर्वतों में कुथूमी बाबा से दर्शन मिला था, जो वस्तुतः स्वामी ज्ञानानंद ही थे। गुरु परंपरा के अनुसार स्वामी ज्ञानानंद जी ने विदेशी शिष्यों को भी अध्यात्म का ज्ञान दिया और ज्ञानगंज आश्रम के कार्य का विस्तार विश्व पटल पर किया। उनकी आयु भी सैकड़ों वर्ष मानी जाती है (विशुद्धानंद जी के अनुमान में पाँच-छह सौ वर्ष) कुछ कथाओं में यह भी कहा जाता है कि 13वीं शताब्दी में ज्ञानानंद परमहंस ने ज्ञानगंज आश्रम का पुनर्निर्माण/पुनर्संगठन किया था।


कुथूमी बाबा

 

·        परमहंस श्यामानंदज्ञानगंज के विज्ञानाचार्य परमहंस, जिन्होंने स्वामी विशुद्धानंद को सूर्य-विज्ञान की शिक्षा दी। आश्रम में समस्त योगिक विज्ञान के विषयों के विभागाध्यक्ष अलग-अलग परमहंस हैं और श्यामानंद जी सूर्यविज्ञान के श्रेष्ठ ज्ञाता थे। श्यामानंद परमहंस आश्रम के अन्य वैज्ञानिक शोधों की भी देखरेख करते थे। उन्हें ज्ञानगंज केमहानतम गुरुओंमें गिना गया है। उनके विषय में विस्तृत जनजानकारी कम उपलब्ध है, किंतु स्वामी विशुद्धानंद की शिक्षा में उनकी भूमिका अत्यंत महत्वपूर्ण थी।

·        स्वामी निमानंद परमहंसएक वरिष्ठ गुरु जिन्होंने बालक भोलानाथ (स्वामी विशुद्धानंद) को ज्ञानगंज तक मार्गदर्शन दिया। जब भोलानाथ 14 वर्ष की उम्र में संन्यास लेकर घर छोड़ने को तत्पर हुए, तब निमानंद जी ने उनकी दृढ़ता की परीक्षा ली और अंततः अपनी शक्ति से उन्हें तथा उनके मित्र हरिपद को आश्रम तक पहुँचा दिया। कहा जाता है स्वामी निमानंद जी स्वयं ~500 वर्ष से अधिक आयु के थे। बाद में भी वे यदाकदा बाहरी संसार में प्रकट होते रहे। उदाहरणतः, एक बार गुरु की कुटिया में भयंकर कुत्ते के काटने पर उन्होंने उपचार किया और बालक भोलानाथ को अपने साथ आश्रम ले गए। निमानंद जी जैसे गुरु बाहरी जगत में आश्रम के कार्यों हेतु कभी-कभी प्रकट होते हैं।

·        स्वामी अभयानंद परमहंसज्ञानगंज के एक और सिद्ध गुरु, जो यदा-कदा सार्वजनिक स्थानों पर दिख जाते थे। एक बार उन्हें पश्चिम बंगाल के वर्धमान नगर में देखा गया और एक बार कोलकाता में गंगा तट पर। स्थानीय पुलिस इंस्पेक्टर और कई प्रत्यक्षदर्शियों ने उनके दिव्य स्वरूप का वर्णन किया है। उपलब्ध चित्रों में उनका व्यक्तित्व भगवान महेश्वर (शिव) के समान तेजस्वी प्रतीत होता है। अभयानंद जी का अचानक प्रकट होकर अंतर्ध्यान हो जाना दर्शाता है कि ज्ञानगंज के सिद्ध अपनी इच्छानुसार कहीं भी -जा सकते हैं।

·        भैरवी माताएंआश्रम में पुरुष परमहंसों के समकक्ष अत्यंत उन्नत योगिनियाँ भी रहती हैं, जिन्हें भैरवी माता कहा जाता है। ये योगबल द्वारा अमरत्व प्राप्त तपस्विनियाँ हैं। ऐसी ही एक गुरुमाता क्षेपा माता महातपा जी की समकालीन थीं जिनकी आयु महातपाजी से भी अधिक (~1300+ वर्ष) बताई गई। भैरवी माताएं प्रायः आश्रम की आतंरिक ऊर्जा और व्यवस्थाओं को संचालित करती हैं। अनेक भैरवी ब्रह्मचारिणियाँ और कुमारिकाएं भी आश्रम में प्रशिक्षणरत बताई जाती हैं। ये सिद्ध माताएं कभी-कभी बाहर भी प्रकट होती हैंउदाहरणस्वरूप 1930 के प्रयाग कुम्भ मेले में स्वामी विशुद्धानंद के साथ दो अपरिचित युवतियां देखी गईं, जिनके बारे में बाद में बाबा ने बताया कि वे ज्ञानगंज की भैरवी साधिकाएं थीं।

·        स्वामी विशुद्धानंद परमहंसये उन विरले सिद्धों में हैं जिन्होंने ज्ञानगंज में शिक्षा पाकर बाहरी दुनिया में लौटकर ख्याति पाई। बाल्यकाल में इनका नाम भोलानाथ था और बंगाल में जन्म हुआ। 14 वर्ष की आयु में गुरुओं ने इन्हें ज्ञानगंज ले जाकर 20 वर्षों तक कठोर साधना योग-विज्ञान की शिक्षा दी। वहाँ इन्हें नया आध्यात्मिक नाम "विशुद्धानंद" प्रदान किया गया। शिक्षापूर्ति के बाद गुरु ने आदेश दिया कि गृहस्थ रूप में लौटकर लोककल्याण करें। स्वामी विशुद्धानंद अपने अद्भुत चमत्कारों के कारण जगत में "गंध बाबा" नाम से विख्यात हुए। इन्होंने अंग्रेज़ी हुकूमत के दौर में हतोत्साहित जनमानस में आध्यात्मिक विज्ञान का नया प्रकाश फैलाया। इन्होंने सूर्य की किरणों के माध्यम से पदार्थों की रचना और रूपांतरण जैसी विलक्षण विद्याएं कीं। बनारस में अपने आश्रम "विशुद्धानंद कानन" में इन्होंने कई बार वैज्ञानिकों के समक्ष भी प्रयोग दिखाएजैसे धूप के एक आवर्धक लेंस से रुई या रूमाल पर किरणें केंद्रित कर मनचाहा रसायन, धातु या रत्न प्रकट कर देना। एक वस्तु को दूसरी में बदलना तो उनके लिए बाएं हाथ का खेल था। इन चमत्कारों के कारण पं. मदनमोहन मालवीय, वैज्ञानिक तारिणी प्रसाद, आदि कई विख्यात जनों ने उनसे प्रेरणा ली। स्वयं विशुद्धानंद जी ने कहा था:

"मैं बचपन में विभूतियों (सिद्धियों) की बातों को कोरी कल्पना मानता था। किन्तु ज्ञानगंज जाकर देखा कि वहाँ सब कुछ अचरज भरा है – मानो कोई मायापुरी। वहां क्या होता है और क्या नहीं, उसका वर्णन नहीं किया जा सकता। वे सब शक्तियों के चमत्कार देखकर उन्हें पाने का दृढ़ संकल्प हुआ। सिद्धियां मिलने पर लोगों को दिखाने का चाव भी लगा, ताकि देखकर लोगों का श्रद्धा-विश्वास जगे कि हमारे शास्त्र सत्य हैं।"

स्वामी विशुद्धानंद की दिखाईं अलौकिक शक्तियों ने जनता में यह विश्वास पक्का किया कि प्राचीन योगविद्याएं वास्तविक हैं, कोरी कहानी नहीं। उनके प्रमुख शिष्य प्रख्यात विद्वान पंडित गोपीनाथ कविराज थे, जिन्होंने "विशुद्धानंद प्रणीत ज्ञान-विज्ञान" का व्यापक प्रसार किया। विशुद्धानंद जी को अपने गुरुओं से निरंतर संपर्क प्राप्त था। एक अवसर पर उनके गुरु भृंगुराम जी ने ज्ञानगंज से पत्र भेजकर कहा था – "तुम्हारे वर्तमान शिष्यों में 697 में से 432 श्रेष्ठ हैं, जिन्हें 4 वर्ष में सभी सिद्धियाँ प्रत्यक्ष हो जाएँगी", तथा बताया कि बाबा जब भी नया शिष्य बनाते थे तो पहले ज्ञानगंज से उसकी स्वीकृति आती थी। यह प्रसंग दर्शाता है कि ज्ञानगंज आश्रम अपने बहिरंग शिष्यों पर भी सूक्ष्म दृष्टि रखता है और गुरुओं की अनुमति के बिना कोई गूढ़ विद्या हस्तांतरित नहीं होती।

इन विशिष्ट व्यक्तित्वों के अलावा भी ज्ञानगंज के कई अन्य सिद्ध साधकों के नाम आते हैं, जैसे स्वामी उमानंद परमहंस, धवलानंद परमहंस, उपानंद स्वामी, आदि। पुरातन मान्यता तो यह भी कहती है कि महर्षि वशिष्ठ, विश्वामित्र, अत्रि, शनकादि ऋषि, महायोगी गोरखनाथ, आदिशंकराचार्य, हनुमान जी, अश्वत्थामा जैसे अमर योगी भी समय-समय पर सिद्धाश्रम (ज्ञानगंज) में दर्शन देते हैं। संभव है ये नाम रूप बदलकर उसी गुरु-परंपरा का अंग हों। कुल मिलाकर, ज्ञानगंज योगाश्रम सिद्ध पुरुषों और देवयोगिनियों की एक अदृश्य सभा है जो युगों से आध्यात्मिक ऊर्जा का केंद्र बनी हुई है।

स्वामी विशुद्धानंद परमहंस

अलौकिक घटनाएँ और सिद्ध शक्तियाँ

ज्ञानगंज आश्रम से जुड़े अनेक चमत्कार और अद्भुत घटनाएँ प्रचलित हैं, जिन्हें सुनकर आधुनिक बुद्धि चमत्कृत हो जाती है। यहाँ के योगियों ने योग-साधना और विज्ञान के समन्वय से ऐसी सिद्धियाँ अर्जित की हैं कि प्राकृतिक नियम भी उनके सामने नतमस्तक प्रतीत होते हैं। कुछ प्रमुख अलौकिक घटनाओं पर दृष्टि डालते हैं:

·        आकाशगमन (हवा में उड़ना दूरस्थ गमन): ज्ञानगंज के सिद्धों को अंतरिक्ष में उड़कर दूरस्थ स्थानों तक पहुँचने की विद्या प्राप्त है। स्वयं स्वामी विशुद्धानंद परमहंस आवश्यकता पड़ने पर बनारस स्थित अपने आश्रम से हिमालय की दुर्गम घाटियों में बसे ज्ञानगंज योगाश्रम तक आकाश मार्ग से उड़ते हुए पहुँच जाया करते थे गुरुदेव तैलंग स्वामी और योगी गोरखनाथ के संबंध में भी उल्लेख मिलता है कि उन्हें आकाश में विहार की सिद्धि प्राप्त थी। स्वामी निमानंद जब बालकों को आश्रम ले गए तो कुछ मार्ग उन्होंने नेत्र बांधकर उड़ते हुए पार कराया था। ये घटनाएँ दर्शाती हैं कि गुरुओं ने भौतिक दूरी और गुरुत्वाकर्षण पर विजय प्राप्त की हुई थी।

·        सूक्ष्म लोक एवं अंतर-आयामी यात्रा: ज्ञानगंज को एक ऐसे सूक्ष्म आयाम पर स्थित बताया जाता है जो सामान्य दृष्टि से ओझल है। योगबल से सिद्ध व्यक्ति भौतिक देह छोड़कर सूक्ष्म शरीर से विभिन्न लोकों में आने-जाने में सक्षम होते हैं। आश्रम में साधक आत्मा की अंतर्जगत यात्रा (Astral Travel) के रहस्यों पर भी शोध करते हैं। उदाहरणस्वरूप, योगियों द्वारा सूर्यलोक, चंद्रलोक जैसे ऊर्ध्व लोकों से संपर्क स्थापित करने की कथाएँ हैं। कहा जाता है कि कुछ सिद्ध योगी सूर्य मंडल तक सूक्ष्म रूप में गमन कर वहां से ऊर्जा एवं ज्ञान लेकर आते हैंइसे सूर्यलोक यात्रा कहते हैं। स्वामी विशुद्धानंद द्वारा विकसित सूर्य-विज्ञान वस्तुतः सूर्य के किरणों का ऐसा उपयोग था जिससे दूरस्थ पदार्थों को भी प्रकट किया जा सके। उन्होंने त्रिकालदर्शिता (भूत, भविष्य देखने) और दूरस्थ संवाद जैसी क्षमताओं का भी प्रदर्शन किया था। एक घटना में एक सिद्ध महात्मा ने साधना द्वारा एक वृक्ष के तने पर प्रकाश-पुंज प्रकट करके उसमें एक युवक का पूरा पिछले जन्म का चलचित्र दिखा दिया, मानो सिनेमा चल रहा हो। यह घटना इंगित करती है कि योगबल से अंतर-आयामी दृश्य प्रकट किए जा सकते हैं।

·        भौतिक पदार्थों का रूपांतरण एवं प्रकट होना: ज्ञानगंज के योगी विज्ञान और मंत्र शक्ति से इच्छानुसार भौतिक पदार्थों को प्रकट अथवा परिवर्तित कर देते हैं। इसे पारकाया प्रवेश और पारद्रव्य सृष्टि कहा जा सकता है। स्वामी विशुद्धानंद ने सूर्य किरणों को लेंस द्वारा केंद्रित कर रुई के फाहे को सुंदर फूल में बदल देने, रूमाल पर सोने की धातु उत्पन्न करने और पत्थरों को कीमती रत्नों में रूपांतरित करने जैसे प्रयोग करके दिखाए। एक वस्तु को दूसरी में बदलना उनके बाएँ हाथ का खेल था यह कौशल उन्होंने ज्ञानगंज में 12 वर्षों के गहन अध्ययन के बाद सीखा था। वस्तुतः वहाँ के महान वैज्ञानिक योगियों का मत है कि योग-शक्ति के द्वारा कोई भी निर्जीव वस्तु या सजीव प्राणी प्राप्त या प्रकट किया जा सकता है अतः आश्रम में कई योगियों द्वारा प्रकृति के गूढ़ रहस्यों पर अनुसंधान कर ऐसी विधियाँ विकसित की गईं जिनसे दैवी शक्तियों को भौतिक रूप दिया जा सके।

·        शरीर पर पूर्ण नियंत्रण और योगिक शक्ति प्रदर्शन: ज्ञानगंज में साधकों को अपने शरीर के प्रत्येक अणु-परमाणु पर नियंत्रण की शिक्षा दी जाती है। स्वामी विशुद्धानंद ने वहाँ नाभि धौति जैसी अति कठिन हठयोग क्रिया सीखी जिससे शरीर शून्यमय (सूक्ष्म) हो जाता है। इस सिद्धि से वे शरीर को इच्छानुसार संकुचित-विस्तारित कर लेते थे। उन्होंने अपनी देह के रोमकूपों के भीतर 400 तक छोटे स्फटिक (क्रिस्टल) गोलक संचित कर रखे थे, जिन्हें आवश्यक होने पर बाहर निकालकर पूजा के बाद वापस शरीर में प्रवेश करा देते थे। अनेक प्रत्यक्षदर्शियों ने देखा कि बड़े-बड़े स्फटिक पदार्थ वे त्वचा के रोमछिद्रों से अंदर बाहर करते थे। शरीर के एक भाग में प्रवेश कराई वस्तु को अंदर ही अंदर दूसरे भाग में ले जाना उनके लिए संभव था। शरीर का कोई अंग वे इच्छा अनुसार हल्का या भारी कर सकते थे। इस अभूतपूर्व शक्ति के उच्चतम स्तर को किरात धौति कहा गया, जिसमें योगी किसी भी अंग में यथेष्टा वायु भर सकते हैं (किरात कुम्भक) इस बल से योगी आकाश में उड़ पाता है और बाहरी चेतना बनाए रखते हुए हवा में विचरण कर सकता है विशुद्धानंद जी जब विशेष क्रियाएं करते थे तो उनके शरीर में प्रचंड ऊष्मा और विद्युत शक्ति उत्पन्न हो जाती थी, जिसे संतुलित करने के लिए वे दो ज़िंदा साँपों को शरीर से लपेट लेते थे और शीतल स्फटिक गोलक धारण कर लेते थे। इन उपायों से शरीर की ऊष्मा-विद्युत संतुलित रहती थी। इस प्रकार उन्होंने मंत्र, तप और समाधि द्वारा असंख्य सिद्धियाँ प्राप्त कीं और उनका उपयोग सदा लोकहित में किया। लोगों के आग्रह पर वे रोग-शोक दूर कर दिया करते थे।

·        असीम आयु, आरोग्यता और देवोपम विकास: ज्ञानगंज के निवासियों की दीर्घायु स्वयं एक चमत्कार है। वहां अधिकांश परमहंसों एवं भैरवी माताओं की आयु कई सौ वर्षों से लेकर आठ-नौ सौ वर्ष तक है। गुरुदेव महातपा जी के आविर्भाव (प्रकट होने) का 1300वाँ उत्सव वहाँ मनाया गया था। इतनी लंबी आयु के बावजूद वे चिरयुवा और शक्तिसंपन्न बने रहते हैं। आश्रम में आयु रोकने और शरीर स्वस्थ रखने के गुप्त विज्ञान विकसित किए गए हैं। उदाहरणस्वरूप, विशुद्धानंद जी का दाएँ पैर का अंगूठा बचपन में कट गया था, जिसे ज्ञानगंज में एक यंत्र की सहायता से पुनः जोड़कर ठीक कर दिया गया। इसी तरह एक धनिक मारवाड़ी व्यक्ति की युवती पुत्री, जिसके उरोज विकास नहीं कर पाए थे (यौवन चिह्न नहीं थे), उसे बाबा ने ज्ञानगंज भेजा। वहाँ से लौटने पर वह केवल पूर्ण यौवन लेकर आई बल्कि अद्वितीय सुंदरता भी उसमें प्रकट हो गई, मानो भगवती स्वरूपा बनकर लौटी। यह भी पता चलता है कि ज्ञानगंज में बधिरता दूर करने के लिए विशेष यंत्र है। उसे बाहर मंगाने में उस समय ₹2000 खर्च आता, इसलिए बाबा कहते थे कि कोई उदार दानी मिले तो वह यंत्र मंगा कर एक शिष्य की बहरेपन की समस्या ठीक करा दें। स्पष्ट है कि वहाँ उन्नत चिकित्सा और कायाकल्प की विधाएँ मौजूद थीं, जो आज भी आधुनिक विज्ञान की पकड़ से बाहर हैं।

·        क्षण भर में संदेश और सामग्री का आदान-प्रदान: आश्रम की एक विलक्षण क्षमता दूरस्थ संचार और टेलीपोर्टेशन (दूरस्थ वस्तु-स्थानांतरण) से जुड़ी है। स्वामी विशुद्धानंद कहते थे कि ज्ञानगंज के साथ कहीं से भी संपर्क स्थापित किया जा सकता हैयह सूर्य-विज्ञान से संभव है आश्रम से औषधि या उपकरण आदि मंगाए जा सकते हैं। अनेक बार उन्होंने इसे प्रदर्शित भी किया। एक घटना में उनके एक शिष्य सुरेन्द्रनाथ मुखर्जी ने ज्ञानगंज की कुमारियों के लिए 50 रंगीन साड़ियां खरीदीं। बाबा के निर्देश पर उन साड़ियों को बनारस स्थित पूजा-कक्ष में एक बंडल बनाकर रखा गया ताकि सूक्ष्म माध्यम से ज्ञानगंज भेजा जा सके। बाबा के पास उत्सुक शिष्यों ने पूछा, "क्या आप सचमुच ये साड़ियां ज्ञानगंज भेज देंगे?" तब बाबा ने ध्यान कर प्रार्थना की और कुछ ही पलों में कमरे के भीतर रखे सभी वस्त्र-बंडल अदृश्य हो गएज्ञानगंज तक पहुँच गए। शिष्यों ने आश्चर्य से खाली स्थान देखा। इसी प्रकार, एक बार शिष्य दत्तगुप्त को विशुद्धानंद जी से एक विशेष लेंस चाहिए था। बाबा ने कहा "मैं ज्ञानगंज से प्रार्थना करूँगा, संभव है मिल जाए" फिर बाबा कुछ देर ध्यानमग्न होकर भीतर गए और वापस आकर बोले कि ज्ञानगंज से अनुमति मिल गई है और एक भैरवी उस कार्य हेतु आवश्यक धनराशि वहाँ ले जाएगी। इस प्रकार आश्रम हर कदम पर निर्देशित करता रहता है। बाबा कहा करते थे कि ज्ञानगंज के साथ कहीं से भी तत्काल संपर्क संभव है और आश्रमवासी आवश्यक वस्तुएँ इच्छानुसार भेज देते हैं यह आधुनिक दूरसंचार से कहीं बढ़कर मानसिक और आध्यात्मिक संचार तंत्र है।

इन सभी उदाहरणों से स्पष्ट है कि ज्ञानगंज योगाश्रम में योग-शक्ति के माध्यम से प्रकृति के अनेक नियमों को अधीन कर लिया गया है। गुरुदेव की विभूतियाँ (शक्तियाँ) देश, काल, और स्थान की सीमाओं को लाँघने में सक्षम थीं। वस्तुतः वहाँ के योगियों के लिए प्रकृति, काल और स्थान सब उनकी इच्छा के अनुचर थे। यही कारण है कि ज्ञानगंज को दिव्य सिद्धभूमि कहा गया है जहाँ घटने वाली घटनाएं सामान्य तर्क से परे हैं।

दुर्लभ तथ्य और गुप्त परंपराएँ

ज्ञानगंज आश्रम के संबंध में अनेक ऐसे तथ्य और परंपराएं हैं जो बहुत कम लोगों को ज्ञात हैं। ये जानकारियाँ मुख्यतः आश्रम से जुड़े शिष्यों के संस्मरण, obscure पुस्तकों या गुरु-परंपरा की गोपनीय शिक्षाओं में मिलती हैं। कुछ दुर्लभ एवं रोचक तथ्य निम्नलिखित हैं:

·        गुप्त आयाम पर स्थित मुख्यालय: ज्ञानगंज केवल एक आश्रम नहीं बल्कि ऋषि-संतों का संघ है जिसका मुख्यालय एक अदृश्य आयाम में है। कुछ आध्यात्मिक मत बताते हैं कि पूरे ब्रह्मांड में ऐसे आठ गुप्त गुरुकुल हैं और उनका केन्द्रीय मुख्यालय ज्ञानगंज है। ज्ञानगंज के अमर सिद्ध योगी समय-समय पर ब्रह्मांड के अन्य लोकों में स्थित उन सात गुरुकुलों में जाकर प्रशिक्षण देते हैं। इसे संकेत रूप में अलग-अलग संस्कृतियों में शांग्री-ला, सिद्धाश्रम, ग्यानगंज आदि नामों से पुकारा गया है। यद्यपि प्रत्यक्ष प्रमाण अति दुर्लभ हैं, किंतु विभिन्न गुरुमुखी परंपराओं में इस अवधारणा का जिक्र मिलता है।

·        विज्ञान और योग का मेलआकाशयान का रहस्य: आश्रम में योग के साथ-साथ भौतिक विज्ञान का अनूठा समन्वय देखने को मिलता है। कहा जाता है कि ज्ञानगंज में एक विशेष आकाशयान (फ्लाइंग मशीन) बना हुआ है जो हर रात्रि पूर्ण चंद्रमा की तरह प्रकाशमान रहता है। यह योग-विज्ञान से संचालित विमानों जैसा यंत्र हो सकता है जो आश्रम के भीतर आवागमन या रक्षा के कार्य आता है। आधुनिक संदर्भ में लोग इसकी तुलना यूएफओ जैसी रहस्यमय उड़नतश्तरी से करते हैं, किंतु यह वास्तव में वहाँ के योग वैज्ञानिकों की उच्च साधना का प्रतिफल है। इस आकाशयान सहित आश्रम में कई अद्भुत यंत्र और घटनाएँ घटती हैं। उदाहरणार्थ, पुराने शिष्यों ने वर्णन किया है कि आश्रम में कठिन रोगों का इलाज वैज्ञानिक यंत्रों की सहायता से किया जाता था। ये यंत्र आध्यात्मिक ऊर्जा से संचालित जड़ी-बूटी या किरण-चिकित्सा उपकरण हो सकते हैं। बधिरता ठीक करने वाला यंत्र इसका एक उदाहरण है। ऐसे यंत्रों के प्रयोग से वहाँ कायाकल्प, अंग-विकास, रोगनिवारण जैसे कार्य संपन्न होते थेजो कि बाहर चमत्कार सरीखे लगते हैं।

·        कुमारी भोजन और मायावी सेविकाएँ: ज्ञानगंज आश्रम में एक विशिष्ट परंपरा कुमारी-भोजन की बताई जाती है। जब आश्रम में कुमारी पूजन या भोजन का आयोजन होता है, तो सहस्रों कुमारिकाएं जाने कहाँ से प्रकट होकर सेवा हेतु उपस्थित हो जाती हैं। ये कन्याएँ आश्रम की ही प्रशिक्षु ब्रह्मचारिणियाँ होती होंगी या फिर दिव्य लोकों से आविर्भूत अप्सराएंइसका रहस्य स्पष्ट नहीं है। परंतु इस अद्भुत विवरण का अर्थ है कि ज्ञानगंज में बड़े स्तर पर आयोजन होने पर भी सभी प्रबंध सूक्ष्म जगत से पूरे हो जाते हैं। कोई बाहरी संसाधन या जनशक्ति की आवश्यकता नहीं होती; मानो प्रकृति स्वयं सेवा में हाज़िर हो जाती है। भैरवी माताओं की अगुवाई में ये कुमारियां आश्रम के यज्ञ, अन्नदान आदि कर्मकांडों में भाग लेकर पुनः अंतर्धान हो जाती हैं। यह परंपरा अन्यत्र सुनने को नहीं मिलती, इसलिए इसे ज्ञानगंज का एक गोपनीय पक्ष माना जा सकता है।

·        बाहरी दुनिया में गोपनीय निगरानी: ज्ञानगंज के सिद्ध केवल आश्रम तक सीमित नहीं हैं, बल्कि सूक्ष्म रूप में बाहरी संसार पर नजर रखते हैं। पूर्वोक्त गुरु-पत्र के प्रसंग में भृंगुराम जी ने लिखा था कि "मैं सम्यक दृष्टि से हर एक शिष्य के घर जाता हूं, सबको देखता हूं, तुम्हें चिंता करने की आवश्यकता नहीं" यानी गुरुवर्ग अदृश्य रूप में शिष्यों की प्रगति की निगरानी करता रहता है। इतना ही नहीं, कई घटनाओं में ज्ञानगंज के गुरुओं ने अप्रत्यक्ष हस्तक्षेप कर शिष्यों की प्राणरक्षा या मार्गदर्शन किया है। स्वामी विशुद्धानंद जब गृहस्थाश्रम स्वीकारने में हिचक रहे थे तो दादा गुरु ने मन की बात जानकर आश्वस्त किया कि उनकी सिद्धियाँ नष्ट नहीं होंगी। एक बार किशोरावस्था में पहाड़ से गिरकर बेहोश हुए भोलानाथ को भृंगुराम जी आकाशमार्ग से उठाकर ले गए और डांटते हुए कहा कि "जिस आम के लिए प्राण जोखिम में डाले, पहले उसे खा कर दिखाओ" – फिर औषधि लगाकर चेतावनी दी। ऐसे अप्रत्याशित मार्गदर्शन से शिष्य सीख लेते थे। इसके अलावा, ज्ञानगंज से जुड़े गुरु अनजान वेष में दुनिया में भ्रमण भी करते हैं वर्धमान और कोलकाता में अभयानंद परमहंस का प्रकट होना, कुम्भ मेले में भैरवी माताओं का आनाये उदाहरण दर्शाते हैं कि ये सिद्ध भक्तों जरुरतमंदों को समय-समय पर दर्शन देते हैं। अक्सर आम लोग उन्हें पहचान नहीं पाते, किंतु पीछे मुड़कर देखने पर अहसास होता है कि वे साधारण व्यक्ति नहीं थे।

·        पश्चिमी रहस्यवाद से जुड़ाव: एक अत्यंत रोचक तथ्य यह है कि ज्ञानगंज के गुरु केवल भारतीय ही नहीं, बल्कि विश्व के जिज्ञासुओं का भी मार्गदर्शन करते रहे हैं। 19वीं सदी में पाश्चात्य देशों में थियोसोफी आंदोलन के तहत जिस गुप्त महासंघ (Occult Brotherhood) का जिक्र होता है, उसके दो प्रमुख महात्माओं में से एक महात्मा Kuthumi वास्तव में ज्ञानगंज के स्वामी ज्ञानानंद परमहंस ही बताए गए हैं। मैडम ब्लावात्स्की ने तिब्बत में जिन रहस्यमय गुरुओं से शिक्षा पाई, उन्हें महात्मा Kuthumi कहा गयाये वही कुतुपानंद स्वामी थे। ब्लावात्स्की और कर्नल हेनरी ओल्कोट ने अपने पत्राचार में कुथुमी बाबा से प्राप्त शिक्षाओं का उल्लेख किया है। ज्ञानगंज के इतिहास में यह घटना विलक्षण है क्योंकि एक ओर आश्रम की नीतियाँ गुप्त रहने की रही हैं, दूसरी ओर कुछ चुने हुए विदेशियों को भी परोक्ष रूप से शिक्षा मिली। इसका उद्देश्य संभवतः विश्व भर में प्राचीन ज्ञान-विज्ञान का प्रसार करना था। यह तथ्य लंबे समय तक रहस्य ही बना रहा, परंतु पं. गोपीनाथ कविराज आदि ने इसकी पुष्टि की कि गुरु ज्ञानानंद और कुथुमी बाबा एक ही आत्मा हैं।

·        सावधानी और गोपनीयता की मर्यादा: ज्ञानगंज आश्रम अपनी गोपनीयता की मर्यादा हर हाल में बनाए रखता है। कोई भी साधक जो वहाँ पहुँचता है, उससे वचन लिया जाता है कि बिना अनुमति बाहरी जगत को विवरण प्रकट नहीं करेगा। स्वामी विशुद्धानंद ने भी अपने सत्संग में अति विशिष्ट बातें संकेतों में ही बताईं, विस्तार से नहीं। कविराज गोपीनाथ ने अपनी पुस्तकों में यद्यपि ज्ञानगंज का वर्णन किया, फिर भी कई जगह वे उसे सूक्ष्म रूप में ही संकेत करते हैं। आश्रम से संबंधित चर्चा में अक्सर गुरुओं द्वारा अति गोपनीय बातों पर चुप्पी साध ली जाती थी। इसका एक कारण यह है कि बिना पूर्ण योग्यता वाले व्यक्ति के लिए इन रहस्यों का पता होना उचित नहीं। प्रत्येक सिद्धभूमि की यही विशेषता हैपारमार्थिक ज्ञानगंज का पता सभी को चलना संभव नहीं। इसलिए यह आश्रम आज भी उतना ही रहस्यमय बना हुआ है जितना सौ वर्ष पूर्व था। दुनिया की आधुनिक तकनीक (उपग्रह इमेज आदि) भी इसे खोज नहीं पाई है, शायद इसलिए कि यह स्थान अपनी इच्छानुसार मानवी दृष्टि एवं उपकरणों से स्वयं को ओझल रखता है। यह भी कहा जाता है कि ज्ञानगंज स्थूल रूप में तिब्बत के किसी दुर्गम कोने में है, लेकिन समानांतर रूप से सूक्ष्म आवरण में लिपटा हैजिसे केवल दिव्य दृष्टि से ही देखा जा सकता है।

इन दुर्लभ तथ्यों से प्रत्यक्ष होता है कि ज्ञानगंज योगाश्रम न सिर्फ एक स्थान, बल्कि एक जिंदा परंपरा है जो गुप्त रहकर भी विश्व की आध्यात्मिक धारा को प्रभावित करती रही है। इसकी एक झलक मात्र पाकर भी साधकों के हृदय में अध्यात्म के प्रति अगाध श्रद्धा जाग उठती है।

आश्रम का संगठन और प्रशिक्षण पद्धति

ज्ञानगंज आश्रम में शिक्षार्थियों और साधकों का एक सुव्यवस्थित वर्गीकरण और प्रशिक्षणक्रम है। इसे एक गुरुकुल की भांति चलाया जाता है, जहाँ नवदीक्षित ब्रह्मचारियों से लेकर उच्च कोटि के परमहंस तक अलग-अलग स्तर पर साधना में रत रहते हैं। आश्रम के निवासियों को मुख्यतः निम्न श्रेणियों में बांटा जा सकता है:

·        ब्रह्मचारी वर्ग: ये प्रारंभिक स्तर के विद्यार्थी होते हैं जो गुरुकुल में प्रवेश लेकर संयमपूर्वक विद्याध्ययन करते हैं। स्वामी विशुद्धानंद के अनुभव के अनुसार नवागंतुक को सबसे पहले 12 वर्ष तक ब्रह्मचर्य व्रत का पालन करते हुए कठिन तप करना पड़ता है इस अवधि में उस पर संयम, चरित्र, सेवा और आधारभूत योगाभ्यास पर विशेष ध्यान दिया जाता है। ब्रह्मचारी दिवस-रात्रि गुरु-आदेशानुसार शास्त्रों का अध्ययन, ध्यान-साधना और लौकिक स्वावलंबन का प्रशिक्षण पाते हैं। आश्रम में अनेक ब्रह्मचारी कठोरतम साधना में लगे देखे गए, जो दीर्घ काल तक मौन, उपवास, ध्यान आदि अभ्यास करते हैं। ब्रह्मचारी स्तर पर पार करने के बाद ही उन्हें आगे दीक्षा मिलती है।

·        दण्डी एवं संन्यासी वर्ग: प्रारंभिक ब्रह्मचर्य के बाद शिष्यों को संन्यास पथ पर क्रमशः अग्रसर किया जाता है। हले 4 वर्षों तक दण्डी सन्यासी (अर्थात् संन्यास की दीक्षा लेकर दण्ड धारण करने वाले साधु) के रूप में प्रशिक्षण दिया जाता है।दण्डी अवस्था में वे गुरुओं के प्रत्यक्ष मार्गदर्शन में उन्नत योगाभ्यास और विद्याओं को सीखते हैं। इसके उपरांत 4 वर्ष का पूर्ण संन्यास काल होता है, जिसमें शिष्य संसार से पूर्ण विरक्त हो तप करता है। इन कुल 20 वर्षों की तपःशिक्षा के दौरान एक साधक योग के आठों अंगों (यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान, समाधि) में दक्ष हो जाता है। स्वामी विशुद्धानंद के अनुसार यह मार्ग अत्यंत दुर्गम और कंटकाकीर्ण है जिसमें हर कदम पर परीक्षाएँ होती हैं। यदि गुरुकृपा साथ हो तो आने वाली बाधाओं से संरक्षण भी मिलता रहता है। गुरुकुल में शिष्यों को निरहंकारिता और अनासक्ति का विशेष पाठ पढ़ाया जाता है, क्योंकि आसक्ति एवं अहंकार दो प्रधान शत्रु हैं जो योगी का पतन कर सकते हैं। आश्रम के वातावरण में सरलता, सत्यनिष्ठा और सेवा भाव को आत्मसात करना हर साधक के चरित्र का हिस्सा बन जाता है।

·        तीर्थस्वामी एवं परमहंस वर्ग: निर्धारित प्रशिक्षण पूरा होने पर योग्य साधक को उच्चतर जिम्मेदारियाँ सौंपी जाती हैं। लगभग 20 वर्ष की साधना के उपरांत शिष्य को आश्रम में तीर्थ-स्वामी पद पर प्रतिष्ठित किया जाता है। यह दीक्षांत समान हैजिसमें शिष्य को नया नाम (जैसे भोलानाथ -> "विशुद्धानंद") प्रदान किया जाता है और जगत कल्याण के लिए तैयार किया जाता है। तीर्थस्वामी आश्रम के प्रतिनिधि के रूप में बाहरी जगत में कार्य कर सकते हैं, यदि गुरु आज्ञा हो। इसका उदाहरण स्वामी विशुद्धानंद स्वयं थे जिन्हें 35 वर्ष की आयु में गुरु ने गृहस्थ होकर लोकसेवा करने की आज्ञा दी। इससे ऊपर परम-विभूति श्रेणी परमहंस की है, जिसमें आश्रम के सर्वोच्च सिद्ध आते हैं। परमहंस बनने के लिए प्रायः शताब्दियों का तप आवश्यक है, या पूर्वजन्मों का संचित योग होता है। ज्ञानगंज के परमहंसों का दर्जा बहुत उच्च माना जाता हैवे आश्रम के रहस्यों के संरक्षक और विभिन्न विभागों के प्रमुख होते हैं। उदाहरणतः परमहंस श्यामानंद विज्ञान विभाग के अध्यक्ष थे, भृंगुराम योग प्रशिक्षण के, ज्ञानानंद बाह्य संपर्क प्रचार के इत्यादि। परमहंसों की आयु 500-1000 वर्ष तक पाई गई है, जो दर्शाता है कि वे स्थूल देह में रहकर भी मृत्युंजय अवस्था प्राप्त कर चुके हैं। भैरवी माताओं को भी परमहंसा के समकक्ष माना जाता है, जो नारी देह में सिद्धि की पराकाष्ठा का प्रतीक हैं। आश्रम में रहने वाली कुमारिकाएँ भविष्य की भैरवी माता बनने के प्रशिक्षण में रहती हैंउन्हें ब्रह्मचारिणी के रूप में ही दीक्षा दी जाती है।

आश्रम के जीवन में कठोर अनुशासन के साथ-साथ ज्ञान की अद्वितीय खोज भी चलती रहती है। दिन-रात योग-चर्चा और विज्ञान-चर्चा वहाँ होती है। विज्ञान से तात्पर्य यहाँ सांसारिक भौतिकी से नहीं, बल्कि योगिक विज्ञान से है – जिसमें सृष्टि, ब्रह्मांड और चेतना के रहस्यों का अध्ययन शामिल है। स्वामी विशुद्धानंद बताते हैं कि ज्ञानगंज अपने नाम को चरितार्थ करते हुए अनेक धाराओं पर शोध का केंद्र है। विशेषकर निम्न योग-विज्ञान की शाखाओं का वहाँ प्रशिक्षण दिया जाता है:

·        सूर्य विज्ञान: यह सर्वोच्च आध्यात्मिक विज्ञान है जिसे सर्व विज्ञानों का आधार कहा गया है। इसमें सूर्य की ऊर्जा और प्रकाश के माध्यम से सृष्टि के समस्त कार्य-संचालन के रहस्यों का ज्ञान होता है। सृष्टि, स्थिति और संहारये तीनों ही सूर्य (सविता) शक्ति के अधीन होते हैं; और इच्छाशक्ति, ज्ञानशक्ति तथा क्रियाशक्ति का प्रसार भी सूर्य से ही होता है।योग का परम उद्देश्य इसी परम विज्ञान की सिद्धि हैबस मार्ग अलग हो सकते हैं। प्राचीन ग्रंथों में सूर्य उपासना को अतुलनीय सिद्धियों का स्रोत माना गया है। ज्ञानगंज में सूर्य-विज्ञान पर गहन शोध चलता है। इसी की एक शाखा विशुद्धानंद जी ने बनारस में प्रदर्शित की थी जिसमें सूर्य किरणों द्वारा पदार्थ उत्पत्ति की क्रिया शामिल थी। पं. गोपीनाथ कविराज लिखते हैं: "सूर्य ही सभी विज्ञान का आधार है... चंद्र, नक्षत्र, वायु, स्वर एवं देव-विज्ञान आदि सूर्य-विज्ञान के अंतर्गत खंड-मात्र हैं" अर्थात सूर्य विज्ञान एक महासागर है जिसके अंश रूप कई उप-विद्याएं हैं।

·        चंद्र विज्ञान: यह चंद्रमा से संबंधित शक्तियों और मन पर उनके प्रभाव का विज्ञान है। चंद्रमा मन एवं भावनाओं का कारक माना जाता है। ज्ञानगंज में चंद्र-विज्ञान की शोध से मानसिक शक्तियों, ध्यान की गहराई और सोम ऊर्जा के रहस्यों को साधा जाता है। संभवतः इससे जुड़ी विद्याओं में कला विज्ञान (चंद्र कलाओं का ज्ञान), औषध निर्माण और मस्तिष्क की क्षमताओं को बढ़ाना शामिल है। विशुद्धानंद जी ने हठयोग की कठिन नभो-मुद्रा (जिसे नाभि धौति कहा) सिद्ध की थी, उसका संबंध भी सोम-मार्ग से था जिससे शरीर में अमृततुल्य शक्ति प्रवाहित होती है। चंद्र-विज्ञान आश्रम में सूर्य-विज्ञान के सहयोगी अंग की तरह पढ़ाया जाता है।

·        वायु विज्ञान: पांच तत्वों में वायु तत्व पर अधिकार योगियों को अनेक सिद्धियाँ देता हैजैसे शरीर को हल्का करना, उड़ना, प्राण-वायु को नियंत्रित कर रोग हरना आदि। ज्ञानगंज में वायु-विज्ञान पर भी अनुसंधान होता है। किरत कुम्भक द्वारा आकाशगमन इसका प्रत्यक्ष उदाहरण है। इसके अतिरिक्त प्राणायाम की उन्नत तकनीकों, वायु-मंडल से ऊर्जा संग्रह, मौसम नियंत्रण जैसे पक्षों पर भी वहां के सिद्ध प्रायोगिक कार्य करते रहे हैं। कहा जाता है कि वायु-विज्ञान से सिद्ध योगी क्षण भर में सूक्ष्म वायु-तरंगों द्वारा संदेश भेज सकते हैं या दूरस्थ भौतिक वस्तुओं को हिला सकते हैं।

·        स्वर विज्ञान: मानव शरीर में जीवन-शक्ति (प्राण) के प्रवाह और श्वास के नियमों का विज्ञान स्वर शास्त्र कहलाता है। आश्रम में स्वर-विज्ञान एक महत्वपूर्ण विषय है। इसमें दाएं-बाएं नासिका के स्वास प्रवाह (इड़ा-पिंगला) के संतुलन द्वारा नाड़ी-तंत्र को नियंत्रित करना सिखाया जाता है। स्वर विज्ञान से योगी श्वास-प्रवाह के अनुसार संकल्प शक्तियों को जाग्रत करना सीखते हैं। यह विद्या कुण्डलिनी जागरण और मनःस्थितियों को संचालित करने में सहायक होती है। माना जाता है कि ज्ञानगंज के विज्ञान मंदिर में स्वारोडय शास्त्र पर प्रायोगिक उपकरणों से भी अध्ययन किया गयाजैसे विशेष उपकरणों से श्वास के प्रवाह का मापन और उसके प्रभावों का अध्ययन।

·        शब्द ज्ञान (ध्वनि-विज्ञान): सृष्टि की मूल रचना शब्द या ध्वनि (नाद) से मानी गई है"नाद ब्रह्म" ज्ञानगंज में मंत्र एवं ध्वनि विज्ञान पर भी उन्नत शोध होता है। वहाँ के योगी जानते हैं कि किन ध्वनियों (मंत्रोच्चार, संगीत, नाद) से भिन्न परिणाम उत्पन्न किए जा सकते हैं। इस विज्ञान से उन्होंने अदृश्य शक्तियों को नियंत्रित करने, भौतिक पदार्थों की संरचना बदलने, एवं उपचार करने की तकनीक विकसित कीं। स्वयं गंध बाबा के चमत्कारों में सुगंध पैदा करना, संगीत से मोमबत्ती जलाना आदि घटनाएं उनके ध्वनि/स्पंदन ज्ञान का परिणाम थीं (उदाहरणतः उन्होंने भैरवी राग गाकर बंदिशों से दीपक जलाने की विद्या दिखलाई थी, ऐसी किंवदंती है) शब्द ज्ञान के बल पर आश्रम के योगी दूरस्थ संप्रेषण (टेलेकम्यूनिकेशन) भी कर लेते हैंजैसे मन में संदेश स्थापित करना या अलौकिक ध्वनियों द्वारा किसी को मार्गदर्शन देना।

·        क्षण विज्ञान: यह अपेक्षाकृत कम सुना गया विषय है जिसका उल्लेख स्वामी विशुद्धानंद ने किया है। क्षण-विज्ञान से तात्पर्य संभवतः समय (काल) की इकाइयों का ज्ञान और समय को मनोनुकूल अनुभव करने की सिद्धि से है। सिद्ध yogi कहते हैं कि एक "क्षण" में ब्रह्मांड में असंख्य घटनाएं घटती हैं। इस विज्ञान द्वारा वे समय को धीमा या तेज महसूस कर सकते हैं, या भविष्य-दृष्टि प्राप्त कर सकते हैं। द्वितीय विश्वयुद्ध की भविष्यवाणी बाबा ने पांच वर्ष पूर्व कर दी थी, यह क्षण-विज्ञान और योग-दृष्टि का ही परिणाम था। आश्रम में कालचक्र संबंधी ग्रंथों (जैसे "कालज्ञान") पर विशेष अध्ययन होता है। ऐसे ही एक कालचक्र नामक गूढ़ ग्रंथ का उल्लेख तवांग मठ में मिलता है जो ज्ञानगंज के रहस्यों से जुड़ा कहा गया। क्षण विज्ञान द्वारा योगी यह भेद जानते हैं कि किस समय कौन सा कार्य सिद्ध होगा और कब कौन सी शक्ति सक्रिय होती है।

उपरोक्त प्रत्येक विधा अपने-आप में विशाल है, पर ज्ञानगंज में इन्हें एक संयुक्त पाठ्यक्रम की भांति समन्वित रूप से सिखाया जाता है। वहाँ योग और विज्ञान परस्पर पूरक माने जाते हैं – योग मार्ग में विज्ञान सहायक है और विज्ञान मार्ग में योग। आश्रम के आचार्यों ने सृष्टि के रहस्यों को वैज्ञानिक दृष्टिकोण से समझने के लिए तरह-तरह के यंत्र विकसित किए और तपोबल से उनके परिणामों को प्रत्यक्ष किया। एक ओर ब्रह्मचारी कठिन साधना कर मनोदैहिक नियंत्रण सीखते हैं, दूसरी ओर परमहंस अत्याधुनिक सूक्ष्म उपकरणों से लौकिक-अलौकिक अनुसंधान करते हैं। यही कारण है कि उसे योगियों का प्रशिक्षण संस्थान कहा गया है जहाँ सैकड़ों योगी आंतरिक लोकों के रहस्यों पर शोध कर रहे हैं। भले ही यह स्थान दुनिया की नज़रों से छिपा है, परंतु वहाँ होने वाले खोजकार्य अध्यात्म और विज्ञान दोनों को नई दिशा देते हैं।

निष्कर्ष: आध्यात्मिक जिज्ञासा का शाश्वत केंद्र

ज्ञानगंज योगाश्रम आज भी रहस्य की चादर ओढ़े हुए है। इस सिद्धाश्रम ने युगों से भारत सहित पूरे विश्व के आध्यात्मिक खोजियों को आकर्षित किया है। जो भी इसके अस्तित्व के बारे में जानता है, वह मानव क्षमता की असीम सम्भावनाओं पर विश्वास करने लगता है। स्वामी विशुद्धानंद जैसे महापुरुषों ने अपने जीवन और शक्तियों के माध्यम से सिद्ध किया कि योग-विज्ञान कोई कपोल-कल्पना नहीं बल्कि वास्तविक साधना से प्राप्त होने वाला ज्ञान है। ज्ञानगंज के योगी देश, समाज और विश्व की हलचलों पर सूक्ष्म दृष्टि रखते हैं और संतुलन व विनाश को रोकने हेतु अपने तपोबल का प्रयोग करते रहते हैं। इस प्रकार वे गुप्त रहते हुए भी विश्व कल्याण में सक्रिय हैं।

आधुनिक भौतिकवादी युग में ज्ञानगंज जैसे आश्रम एक प्रकाशस्तंभ की भांति हैं, जो हमें याद दिलाते हैं कि मनुष्य के भीतर अद्भुत क्षमताएं छिपी हैं। यह स्थल आध्यात्मिक चेतना का आधार और दिव्यता का हृदयस्थल माना गया है। बहुत से साधक मानते हैं कि गुरु की कृपा और कठोर साधना द्वारा आज भी उस सिद्धभूमि में प्रवेश संभव है। ज्ञानगंज हमारे लिए एक प्रेरणा है कि यदि हम अपने जीवन को साधना, ज्ञान और चरित्र की अग्नि में तपाएं, तो मानव सीमा का अतिक्रमण कर दिव्य ऊंचाइयों को छू सकते हैं। इस रहस्यमय योगाश्रम की गाथा को सुनकर साधक, सामान्य पाठक और विद्वान शोधार्थी – सभी के मन में श्रद्धा और जिज्ञासा उत्पन्न होती है। यह हमें प्रोत्साहित करती है कि हम भी योग-विज्ञान और आत्मिक अनुसंधान की ओर कदम बढ़ाएं, ताकि हमारे जीवन में भी उस महान कृपा से ज्ञान, विज्ञान और साधना का अवतरण हो सके। ज्ञानगंज योगाश्रम सचमुच एक जीवंत किंवदंती है – एक मिथक भी, इतिहास भी, और सत्यम् भी – जो सतत मानवता को उसकी वास्तविक क्षमता का बोध करा रहा है।

स्रोत:

·        गोपीनाथ कविराज, श्रीश्री विशुद्धानन्द परमहंसइस पुस्तक से ज्ञानगंज के स्वरूप घटनाओं का वर्णन लिया गया।

·        राजर्षि पुरुषोत्तमदास तुलसी, योगियों का रहस्यमय हिमालयजिसमें ज्ञानगंज का संदर्भ और स्वामी विशुद्धानंद के किस्से वर्णित हैं।

·        पं. श्रीराम शर्मा आचार्य, अखंड ज्योति पत्रिका (जुलाई 1991) – इससे विशुद्धानंद जी की विभूतियों और आकाशगमन संबंधी विवरण उद्धृत है।

·        विशुद्धानन्द चरितामृत (लेखक: राजेश कुमार अग्रवाल) – ब्लॉग श्रृंखला, जिसमें स्वामी विशुद्धानंद के जीवन ज्ञानगंज आश्रम साधना का विस्तृत वर्णन मिलता है।

·        ऑनलाइन ज्ञानरथ गायत्री परिवार ब्लॉगइससे ज्ञानगंज को लेकर प्रचलित मान्यताओं और मिस्टर फैरेल की घटना का उल्लेख लिया गया।

·        Wikipedia (Siddhashram) – सिद्धाश्रम/ज्ञानगंज के पौराणिक संदर्भों (रामायण, पुराण) और तिब्बती शंभाला के संबंध में जानकारी ली गई।

·        अन्य: थियोसोफिकल सोसायटी के अभिलेख (Blavatsky Letters) एवं शिष्य वृत्तांत जिनसे गुरु ज्ञानानंद उर्फ महात्मा कुथूमी की जानकारी मिली।

·        स्वामी विशुद्धानंद परमहंस के शिष्यों द्वारा संकलित स्मृतियां (दत्तगुप्त इत्यादि) – जिससे कई दुर्लभ घटनाओं (साड़ियां गायब होना, युवती का रूपांतरण) का विवरण लिया गया।

·        ज्ञानगंज पर उपलब्ध सामग्रियों का अधिकतर भाग गुरुमुखी परंपरा से आया है, जिनका लिखित रूप सीमित प्रतियों में या अप्रचलित पुस्तकों में मिलता है। ऊपर उद्धृत सूत्रों के माध्यम से उसी प्रामाणिक ज्ञान को संकलित करने का प्रयास किया गया है।

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