संत गुलाबराव महाराज की अद्भुत आध्यात्मिक गाथा

संत गुलाबराव महाराज की अद्भुत आध्यात्मिक गाथा

परिचय

संत गुलाबराव महाराज (प्रज्ञाचक्षु मधुराद्वैताचार्य गुलाबराव) (1881–1915) महाराष्ट्र के एक महान संत और अद्वितीय प्रतिभाशाली आध्यात्मिक विचारक थे। विशेष बात यह थी कि वे बचपन में दृष्टिहीन हो गए थे, फिर भी अलौकिक “प्रज्ञाचक्षु” (दिव्य दृष्टि) के कारण उन्होंने सैकड़ों ग्रंथ रचे और लोगों को जीवन की दृष्टि प्रदान की। आश्चर्य की बात है कि मात्र 34 वर्ष के जीवन में उन्होंने 139 से अधिक पुस्तकों की रचना की, जिनमें 6000 से अधिक पृष्ठ और 25,000 से अधिक पद्यों का समावेश था। उनके ग्रंथों में धर्म, दर्शन, योग, भक्ति, आयुर्वेद, संगीत, वेदांत से लेकर पाश्चात्य वैज्ञानिक सिद्धांतों तक विविध विषयों पर प्रकाश डाला गया है। खास बात यह है कि महाराज ने अपने लेखन के माध्यम से कई ऐसे गूढ़ रहस्य और आध्यात्मिक “दिव्य बातें” प्रकट कीं जिन्हें सामान्यतः संत लोग सार्वजनिक नहीं करते थे। यह उनकी अद्भुत आध्यात्मिक गाथा है, जिसमें हम उनके जीवन की आश्चर्यजनक घटनाओं, हिमालय के रहस्यों, ध्यान-योग की शक्तिशाली विधियों तथा दिव्य दृष्टि आदि अद्वितीय बातों का विवरण पुस्तकों के सन्दर्भ सहित प्रस्तुत करेंगे।

बचपन की चमत्कारिक घटनाएँ

गुलाबराव महाराज का जन्म 6 जुलाई 1881 को महाराष्ट्र के अमरावती ज़िले में मधान नामक गाँव में हुआ था। नौ महीने की आयु में ही गलत औषधि के कारण उनकी आंखों की रोशनी चली गई और वे शिशुकाल से ही दृष्टिहीन हो गए। हालाँकि, ईश्वर-प्रदत्त प्रतिभा ऐसी थी कि अंधत्व के बावजूद बचपन से ही उनमें अलौकिक तेज दिखाई देने लगा। मात्र चार वर्ष की उम्र में उनकी माता का निधन हो गया, जिसके बाद वे लगभग छह वर्ष तक अपनी नानी के गांव लोनी ताकली में रहे। यही वह काल था जब बालक गुलाब ने अपनी विलक्षण स्मरणशक्ति और दिव्य दृष्टि से सबको चकित कर दिया।

लोनी ताकली में घर के सामने एक सार्वजनिक कुआँ था जहाँ गाँव की महिलाएं पानी भरने आती थीं। छोटे गुलाबराव बिना आंखों के भी उन महिलाओं को उनकी नाम से पुकार देते, जिससे वे स्तब्ध रह जातीं कि यह नेत्रहीन बालक भला कैसे प्रत्येक महिला को पहचान कर नाम ले रहा है! परिवारजन कई बार रात में देखते कि बालक गुलाब योगासन की मुद्रा में बिना श्वास-प्रश्वास के गहरी समाधि में लीन हैं। प्रारंभ में दादी और अन्य घरवाले यह देख डर जाते, परंतु कुछ बुद्धिमान बुजुर्गों ने समझाया कि बालक को समाधि से जगाकर बाधा न दें। दस वर्ष की उम्र तक पहुँचते-पहुँचते गुलाबराव ने वेद-शास्त्रों का व्यापक ज्ञान मानो स्वतः ही प्राप्त कर लिया था। आश्चर्य की बात है कि उन्होंने कोई पारंपरिक विद्यार्जन नहीं किया था, फिर भी अल्पायु में ही वे वेदों के मंत्र, शास्त्रों के सिद्धांत सहजता से जान गए थे। यह मानो पिछले जन्मों के संस्कार और दिव्य अनुग्रह का परिणाम था। सच ही, लोगों ने महसूस किया कि बालक गुलाबराव दैवीय प्रतिभा लेकर जन्मा है। उसकी “ब्रेन साइट” (मस्तिष्कीय दृष्टि) इतनी प्रखर थी कि एक बार सुनने पर पूरे ग्रंथ का पाठ कंठस्थ दोहरा देता था। बचपन में ही उन्हें भजन-कीर्तन, संस्कृत श्लोक और रहस्यवाद संबंधी पुस्तकें सुनने में गहरी रुचि थी। वे अपने साथियों से कहते कि मुझे किताब पढ़कर सुनाओ, और फिर जो सुनते उसे तुरंत दोहरा देते। इस तरह कम उम्र में ही उनकी अद्भुत स्मरणशक्ति और दिव्य ज्ञान ने सबको चकित कर दिया।

अद्वितीय प्रतिभा और दिव्य दृष्टि

गुलाबराव महाराज को लोग “प्रज्ञाचक्षु” कहते थे, जिसका अर्थ है “प्रज्ञा रूपी आंखों वाला” – अर्थात् जिसके पास आँखों के बिना भी ज्ञानदृष्टि हो। वास्तव में, उनमें दिव्य बौद्धिक दृष्टि (Intellectual Eyesight) थी। उनकी मानसिक शक्ति ऐसी थी कि दुनिया की कोई भी पुस्तक, किसी भी भाषा में, वे मात्र हाथ में लेकर मन ही मन पढ़ सकते थे। उनके भीतर ऐसा दैवी सत्ता से संपन्न मस्तिष्क था जिसे बाहरी आँखों की ज़रूरत ही नहीं थी। मानो ज्ञान स्वयं चलकर उनकी अन्तरदृष्टि में समा जाता था। यह दिव्य दृष्टि जन्मजात थी, किंतु संत बताते थे कि महान व्यक्तियों में कुछ को यह “दिव्य-दृष्टि (clairvoyance)” जन्म से प्राप्त होती है और कुछ साधना-तपस्या द्वारा इसे विकसित कर लेते हैं। उन्होंने स्पष्ट रूप से बताया कि उन्नत साधकों की आन्तरिक दृष्टि जागृत हो जाने पर उन्हें अपने भीतर एक प्रकाश दिखाई देता है, जो आत्मा का प्रकाश है और उसे देखने के लिए अंदर की आँख खोलनी पड़ती है, जो केवल गहन ध्यान-साधना से संभव है। अर्थात् दिव्य दृष्टि का रहस्य यही है कि सतत ध्यान और तपस्या द्वारा अंतर्चक्षु को जगाया जाए।

गुलाबराव महाराज ने स्वयं अपने जीवन में इस दिव्य दृष्टि के चमत्कारिक उपयोग दिखाए। एक उदाहरण देखें – आम लोगों के लिये जो असंभव था, वह उन्होंने करके दिखाया। 1902 में मात्र 21 वर्ष की आयु में उन्होंने चार्ल्स डार्विन और हर्बर्ट स्पेंसर जैसे पाश्चात्य विचारकों के सिद्धांतों पर विस्तार से टिप्पणी लिख डाली। एक नेत्रहीन भारतीय संत द्वारा उस युग में डार्विन के विकासवाद और स्पेंसर के समाजशास्त्र पर लेखक की भांति लिखना सचमुच अचरज की बात थी। उन्होंने “मानस आयुर्वेद” नाम से आयुर्वेद के मनोवैज्ञानिक पक्ष पर भी ग्रंथ लिखा, जिसमें मन और शरीर के गहरे संबंध तथा चित्तशक्ति पर चर्चा की गई। ध्यान, योग, भक्तियोग, वेदांत से लेकर आधुनिक विज्ञान तक पर उन्होंने निर्भीकता से कलम चलाई। उनकी लेखन शैली मौलिक थी और विचार वेदसम्मत अनुशासन में पिरोए हुए थे। इतना ही नहीं, गुलाबराव महाराज ने अनेक ऐसे आध्यात्मिक रहस्यों पर से परदा उठाया जिनपर उस समय तक पारंपरिक संत लोग मौन रहा करते थे। उदाहरण के लिए, उन्होंने आत्म-साक्षात्कार (मोक्ष) प्राप्ति के स्पष्ट मार्ग बताए और योग तथा तंत्र के कई गूढ़ रहस्य जगजाहिर किए। वे कहते थे कि सच्चे जिज्ञासु को आध्यात्मिक ज्ञान के रहस्यों से वंचित नहीं रखना चाहिए, इसलिए उन्होंने साहसपूर्वक हिंदू धर्म के शास्त्रीय विज्ञानों के अनेक गोपनीय सिद्धांतों को सार्वजनिक रूप से समझाया।

महाराज की दिव्य शक्तियों की चर्चा उनके समकालीनों में भी होती थी। ऐसी मान्यता थी कि उनमें त्रिकालज्ञता (भूत, भविष्य, वर्तमान का ज्ञान) जैसी योगशक्ति है। कई अवसरों पर उन्होंने ऐसी भविष्यवाणियाँ कीं जो बाद में सच साबित हुईं। उदाहरणस्वरूप, उन्होंने एक बार थिओसोफ़ी आंदोलन (Theosophy) के बारे में कहा था कि यह अधिक से अधिक दस वर्ष ही चल पाएगा। वास्तव में लगभग एक दशक बाद वह आंदोलन क्षीण पड़ गया, जो महाराज की भविष्यदृष्टि को सिद्ध करता है। इसी प्रकार, वे अपने शिष्यों-भक्तों को कभी-कभी उनके पूर्वजन्म की बातें बता देते थे। एक निकटवर्ती भक्त हरिभाऊ से उन्होंने कहा कि “मेरा पिछला जन्म काठियावाड़ (गुजरात) में ब्राह्मण रूप में था, और तुम उस जीवन में भी मुझसे मिलने आते थे”। बाद में पता चला कि संत गुलाबराव अपने पूर्व जन्म में स्वामी बेचरणंद महाराज थे, जो 19वीं सदी के अंत में गुजरात के जिन्जुवाड़ा में एक सिद्ध योगी थे। गुलाबराव जी से भेंट के दौरान अमरावती के एक वृद्ध बालवंतराव को यह अनुभव हुआ। हुआ यूँ कि बालवंतराव पहले जिन्जुवाड़ा में स्वामी बेचरणंद के सान्निध्य में रहे थे। वर्ष 1907 में अमरावती के अंबा देवी मंदिर में जब बालवंतराव प्रार्थना के लिए गए, तो वहाँ एक युवा संत ने उन्हें नाम लेकर पुकारा, “बालवंतराव, पहचाना मुझे?” बालवंतराव चकित रह गए – यह युवा संत और कोई नहीं, बल्कि गुलाबराव महाराज थे। महाराज ने मुस्कुराकर कहा, “लगता है तुम मुझे भूल गए। मैं वहीं जिन्जुवाड़ा वाला हूँ और मेरे साथ वहाँ के कुछ लोग भी इस जन्म में आए हैं।” यह सुनकर बालवंतराव की आँखें भर आईं। इस घटना ने आस-पास के लोगों को स्तंभित कर दिया कि बिना मिले गुलाबराव ने पुराने जन्म के संबंध को पहचान लिया। इससे उनकी दिव्यदृष्टि और पूर्वजन्म की स्मृतिशक्ति का पता चलता है। ऐसी अनेक घटनाओं के कारण भक्तजन उन्हें चलती-फिरती चमत्कार की प्रतिमूर्त मानते थे

मधुराद्वैत दर्शन और कृष्ण-प्रेम की विलक्षण भावना

संत गुलाबराव महाराज ने अद्वैत वेदांत के गूढ़ तत्वज्ञान को मधुर भक्ति के संग समन्वित करके “मधुराद्वैत” नामक अपने विशिष्ट दर्शन की स्थापना की। पारंपरिक अद्वैत वेदांत जहां निर्गुण निराकार ब्रह्म की एकत्व की बात करता है, वहीं मधुर भक्ति मार्ग में भगवान को अपना प्राणप्रिय मानकर सगुण साकार प्रेम किया जाता है। गुलाबराव जी ने समझाया कि ज्ञान की पराकाष्ठा पाने के बाद भी भक्त भगवान के साथ मधुर भाव रख सकता है – जैसे प्रेमी का प्रेमिका से होता है। उन्होंने स्वयं अपने को संत ज्ञानेश्वर की “पुत्री” और भगवान श्रीकृष्ण की “पत्नी” रूप में माना। यह बड़ा विलक्षण था – एक पुरुष संत होकर भी इन्होंने ईश्वरीय प्रेम में स्वयं को नारी रूप कल्पित किया। सन् 1905 में उन्होंने प्रतीकात्मक रूप से भगवान कृष्ण से विवाह रचाया, और तब से वे सुहागिन महिला जैसा शृंगार करने लगे। वे अपनी मांग में कुंकुम का तिलक लगाते, गले में मंगलसूत्र पहनते और स्त्री के आभूषण धारण करते थे। सांसारिक दृष्टि से यह आचरण अचरज भरा था, पर भक्तिभाव के दृष्टिकोण से यह गोपियों की भांति कृष्ण-प्रेम में लीन हो जाने का उदाहरण था। संत महाराज के इस माधुर्य भाव ने लोगों को चकित भी किया और भाव-विभोर भी। उनका कहना था कि श्रीकृष्ण ही उनके परम स्वामी हैं और वे उनकी दासी या पतिव्रता स्त्री हैं। इस भाव-समर्पण के पीछे दर्शन यह था कि आत्मा और परमात्मा का मिलन दाम्पत्य-प्रेम जैसा मधुर हो सकता है। उनके मधुराद्वैत दृष्टिकोण ने भक्ति और अद्वैत के मध्य सेतु का कार्य किया – भक्त और भगवान के प्रेम को अद्वैत की बुद्धि नहीं नकारती, बल्कि आत्मानुभूति के बाद भी प्रेम की धारा बहती रहती है। यह संत परंपरा में एक अनूठा दृष्टिकोण था, जिसने अनेक भक्तों को आकर्षित किया।

गुलाबराव महाराज के जीवन की एक अद्भुत घटना संत ज्ञानेश्वर महाराज से उनकी मुलाक़ात थी। संत ज्ञानेश्वर 13वीं सदी के महान संत थे जिनकी समाधि सैकड़ों वर्ष पूर्व हो चुकी थी। परंतु गुलाबराव जी ने 1901 में सार्वजनिक रूप से कहा कि स्वयं संत ज्ञानेश्वर ने प्रकट होकर उन्हें दीक्षा दी है। उन्होंने बताया कि संत ज्ञानेश्वर प्रकट होकर उन्हें अपना शिष्य स्वीकार कर गए। इतना ही नहीं, ज्ञानेश्वर महाराज ने उन्हें अपने नाम का एक मंत्र भी प्रदान किया। इस अलौकिक दर्शन के उपरांत गुलाबराव महाराज ने कलाकारों को संत ज्ञानेश्वर का सटीक चित्र बनाने का निर्देश दिया, मानो वे उनकी प्रत्यक्ष छवि देख रहे हों। कहा जाता है कि संत ज्ञानेश्वर का जो प्रसिद्ध चित्र आज आलंदी (पुणे) के ज्ञानेश्वर समाधि मंदिर में विराजित है, वह गुलाबराव महाराज के बताए स्वरूप के आधार पर बनाया गया था। यह घटना श्रद्धालुओं के लिए अत्यंत आश्चर्यजनक थी – भला सैंकड़ों वर्ष पूर्व के सिद्ध संत आधुनिक काल में प्रकट होकर एक युवक को आशीर्वाद देने आए! परंतु गुलाबराव जी की दिव्य दृष्टि और संतों के प्रति उनकी प्रीति से यह संभव हुआ। वे संत ज्ञानेश्वर को अपने ईष्टदेव की तरह मानते थे, स्वयं को उनका आध्यात्मिक पुत्र बताते थे। ज्ञानेश्वर महाराज के प्रति इस गहन संबंध ने गुलाबराव जी की भक्ति और ज्ञान को और भी मधुर बना दिया। इस प्रकार, उनके जीवन के ये प्रसंग सिद्ध करते हैं कि वे वास्तव में “आधुनिक काल के द्रष्टा संत” थे जिनके लिए समय और स्थान की सीमाएं हट गई थीं।

योग, ध्यान और प्राणायाम के रहस्य

संत गुलाबराव महाराज ने योग साधना और ध्यान के विषय में भी अत्यंत महत्वपूर्ण शिक्षाएं दीं, जिन्हें उन्होंने अपने ग्रंथों में विस्तृत किया है। राजयोग के संबंध में उनका स्पष्ट मत था – “राजयोग सभी योग अभ्यासों में सर्वश्रेष्ठ है”। वे कहते थे कि मन पर पड़े अवांछित संस्कारों और विचारों को पूर्णतः मिटाने की शक्ति यदि किसी साधना में है, तो वह राजयोग है। राजयोग की सफलता के दो आधार उन्होंने बताए: निरंतर अभ्यास (Abhyasa) और विरक्ति (Vairagya)। केवल अभ्यास करते रहना परंतु इंद्रिय-विषयों से विरक्ति न होना, यह साधक को मंजिल तक नहीं पहुँचा पाएगा। इसी तरह, बगैर नियमित अभ्यास के केवल वैराग्य का विचार भी अपूर्ण है। गुलाबराव जी के अनुसार साधक को चाहिये कि नियमित अभ्यास करे और साथ ही विषयों से मन को हटाकर वैराग्य पैदा करे, तभी योगाभ्यास पूर्ण फल देता है। उन्होंने पतंजलि योगसूत्र के क्रम को सरल ढंग से समझाया – यम-नियम का पालन करके रजोगुण एवं तमोगुण को संयमित करें, आसन द्वारा अंगों को स्थिर करें, प्राणायाम द्वारा श्वास-प्रक्रिया और जीव शक्ति को नियंत्रण में लें, जिससे मन की चंचलता कम होगी। इसके बाद प्रत्याहार द्वारा इंद्रियों को विषयों से हटाकर मन को अंतर्मुख करें। फिर धारणा एवं ध्यान की गहराई में उतरकर साधक सविकल्प समाधि (सम्प्रज्ञात समाधि) में प्रवेश करता है और अंततः  समाधि (असम्प्रज्ञात) को प्राप्त करता है। यह योग का क्रम उन्होंने शास्त्रानुसार समझाया है। लेकिन साथ ही चेतावनी दी कि यह मार्ग कठिन तपस्या और मानसिक तैयारी की मांग करता है। हर किसी के लिए गहन ध्यान में तुरंत प्रवेश संभव नहीं, इसके लिये चित्त की शुद्धि और दृढ़ संकल्प आवश्यक हैं।

एक दिलचस्प पहलू यह है कि गुलाबराव महाराज अतिरिक्त आडंबर या अत्याचारमय तप के पक्ष में नहीं थे। उन्होंने कहा कि आत्मसाक्षात्कार के लिए हिमालय के जंगलों में भागने या कठोर प्राणायाम से श्वास रोकने की ज़रूरत नहीं है। वे अपने शिष्यों से कहते थे – “तुम्हें न पहाड़ों पर जाने की आवश्यकता है, न जंगलों में। यहाँ तक कि जोर-जबरदस्ती सांस रोककर खुद को तकलीफ़ देने की भी ज़रूरत नहीं। ऐसे बाहरी दिखावों से भ्रमित मत होओ”। बल्कि उन्होंने सिखाया कि सच्चा योग तो अंतर्मन में होता है – हृदय में स्थित परमात्मा के प्रकाश को अपनी “भीतर की आँख” से देखो। उनका ज़ोर सहज ध्यान पर था। वे कहते थे कि केवल ध्यान के माध्यम से ही एक-एक करके समस्त शंकाएं मिटती हैं, मन को शांति मिलती है और बुद्धि शुद्ध होती है। उन्हीं के शब्दों में: “केवल ध्यान द्वारा ही समस्त ज्ञान स्वतः प्रकट हो जाएगा। किसी अन्य प्रयास की आवश्यकता नहीं। बस इसी साधना को निरंतर करते रहो”। यह संदेश उनके सोहम मंत्र की साधना से भी जुड़ा है – माना जाता है कि उन्होंने “सोऽहं” मंत्र के जाप द्वारा आत्मचिंतन का मार्ग अपने शिष्यों को दिखाया। इस उपाय में न शारीरिक कष्ट है, न जटिल क्रिया, बस श्वास के साथ “सोऽहं” का मानसिक जप करते हुए आत्मा को परमात्मा से अभिन्न भाव में अनुभव करना है।

गुलाबराव महाराज ने ध्यान की कई शक्तिशाली विधियाँ अपने ग्रंथों में बतायी हैं। उदाहरण के लिये, “निदिध्यासनप्रकाश” और “ध्यानयोगदिवाकर” जैसे ग्रंथों में गहरे चिंतन एवं ध्यान की तकनीकों पर प्रकाश डाला गया है। “सोपानसिद्धि” नामक पुस्तक में उन्होंने साधना के चरणबद्ध सोपानों की चर्चा की है, जिससे साधक क्रमशः उन्नति करते हुए सिद्धि की ओर बढ़ता है। उनकी रचनाओं से ज्ञात होता है कि कुण्डलिनी जागरण और चक्रों के रहस्य पर भी उन्होंने लिखा – “ज्ञानेश्वरी कुंडलिनी निरूपण” में इस विषय का विवरण मिलता है। एक अन्य ग्रंथ “योगप्रभाव” (पद्य तथा गद्य रूप में) में योग की महिमा और प्रभावों को समझाया गया है। उन्होंने यह स्पष्ट किया कि योग-अभ्यास से प्राप्त विभूतियाँ (सिद्धियाँ) अंततः साधक को आत्मज्ञान की ओर ले जाती हैं न कि भौतिक चमत्कार प्रदर्शन की ओर। योग-साधना के दौरान आने वाली दिव्य अनुभूतियाँ, जैसे आंतरिक प्रकाश, नाद (शब्द) सुनाई देना, देहातीत अनुभव आदि को उन्होंने साधकों के मार्ग में आने वाले पड़ाव बताया। इन अद्भुत अनुभवों का वर्णन वे बड़ी सादगी से करते थे ताकि साधक भयभीत हुए बिना आगे बढ़ें।

महाराज ने अपने ग्रंथ “सिद्धिसार” में योग द्वारा प्राप्त होने वाली सिद्धियों का विवेचन किया था (ऐसा उनका उल्लेख मिलता है)। उनका कहना था कि यदि मनुष्य परमात्मा की शरण में रहकर साधना करे तो कई अद्भुत शक्तियाँ अपने-आप विकसित हो जाती हैं – ये ईश्वर की देन हैं, उनका दुरुपयोग नहीं करना चाहिए। उन्होंने उदाहरण दिया कि जब अर्जुन को श्रीकृष्ण का विश्वरूप दर्शन करना था, तब कृष्ण ने उसे दिव्य चक्षु प्रदान किया, तभी वह दिव्य दृश्य देख सका। उसी प्रकार, गुरु-कृपा से साधक की चेतना विकसित हो तो वह अदृश्य सत्य को भी देख सकता है। इसलिये गुलाबराव जी ज़ोर देते थे कि गुरु की शरणागति और ईश्वर पर अटूट श्रद्धा रखकर साधना करें, फिर दिव्य दृष्टि अपने आप प्राप्त हो जाएगी। वे कहते थे – “अंतर्मन में निरंतर परमात्मा का सुमिरन करो। एकाग्र होकर उसी एक सत्य स्वरूप का ध्यान करो – सगुण या निर्गुण जैसा भी तुम्हारा झुकाव हो, पर मन को तत्त्वज्ञान पर स्थिर करो”। यही ध्यान की कुंजी है।

हिमालय के रहस्य और गुप्त स्थान

गुलाबराव महाराज से जुड़े आश्चर्यजनक किस्सों में एक प्रसंग हिमालय के एक गुप्त दिव्य स्थान “केशवपुरी” का है, जिसके बारे में उन्होंने अपने शिष्यों को रोमांचक विवरण सुनाया था। महाराज कभी-कभी आत्मकथ्य रूप में अपनी पारलौकिक यात्राओं की जानकारी भी देते थे। वे कहते थे – “मेरा एक गाँव है केशवपुरी, जो बदरीनाथ से भी बहुत दूर स्थित है”mahasevaksangh.com। यह कोई साधारण भौतिक गाँव नहीं, बल्कि दिव्य लोक है जहां महान ऋषि-मुनि निवास करते हैं। गुलाबराव जी ने बताया कि वहाँ तक पहुंचने का मार्ग आम यात्रियों को ज्ञात मार्ग से अलग है। उन्होंने अपने निकटस्थ भक्तों से कहा, “उस स्थान तक जाने के लिए एक भौगोलिक मार्ग तो बद्रीनारायण के आगे तक जाता है जहाँ महर्षि व्यास द्वारा पुराण कथन हुआ था। लेकिन मेरे पास वहां पहुंचने का एक गुप्त मार्ग है – भूमिगत सुरंग रास्ता। मैं तुम्हें उस राह से ले जा सकता हूँ”। इतना कहते समय उनका भाव ऐसा होता मानो यह कोई काल्पनिक कहानी नहीं, वास्तविक अनुभव हो। महाराज ने आश्वस्त किया कि “उस सुरंग वाले मार्ग में यात्रा करते हुए भोजन आदि किसी भी चीज़ की चिंता करने की आवश्यकता नहीं पड़ेगी, क्योंकि रास्ते में सब अपने-आप मिलता जाएगा”। यह कथन सुनकर शिष्यों को अचरज के साथ आनंद की अनुभूति होती।

गुलाबराव महाराज ने आगे केशवपुरी का वर्णन करते हुए कहा कि “ज़मीन के ऊपर एक मार्ग उन प्रसिद्ध तीर्थों तक जाता है जहाँ वेद-व्यास जी ने पुराण सुनाए थे। लेकिन यदि हम मेरे बताए सुरंग मार्ग से जाएंगे, तो मार्ग में स्वयं व्यासजी को पुराण सुनाते हुए देख सकोगे, साथ ही कई अन्य दिव्य ऋषियों के दर्शन होंगे”। यह सुनते ही श्रोताओं के रोंगटे खड़े हो जाते थे – प्रत्यक्ष व्यास भगवान को कथा कहते हुए देखने की कल्पना ही अद्भुत है! महाराज ने यह भी स्पष्ट किया कि “हालांकि तुम उन महर्षियों को देख पाओगे, परंतु आमंत्रण (अधिकार) के बिना तुम उनसे बात नहीं कर सकोगे। उस दिव्य सभा में बोलने या प्रश्न करने का अधिकारी बनने के लिए तुम्हें पहले मेरे द्वारा बताए स्थान पर कुछ दिन कठोर साधना (तप) करनी होगी”। अर्थात् केवल उनके साथ चल देने से काम नहीं बनेगा, आत्मिक पात्रता अर्जित करनी होगी।

महाराज द्वारा सुनाए गए केशवपुरी के वर्णन सचमुच अलौकिक थे। उनके शिष्यों ने स्वीकार किया कि महाराज जिस तरह से उस दिव्य लोक की बातें बताते, वैसा उन्होंने पहले कभी कहीं नहीं सुना था। ये बातें सुनकर शिष्यों के हृदय में तीव्र आकांक्षा जागती कि किसी प्रकार उस रहस्यमय हिमालयी लोक के दर्शन करें। एक बार शिष्यों ने उत्सुकतावश पूछ लिया कि “महाराज, ये सारी जानकारियाँ किस ग्रंथ में मिलेंगी? आपने जो बताया, क्या कोई किताब में भी लिखा है?” इसपर गुलाबराव जी मुस्कुराकर बोले, “ऐसी अनेक पुस्तकें केशवपुरी में मौजूद हैं”। उन्होंने संकेत दिया कि दुनिया की आम libraries में नहीं, बल्कि हिमालय के उस गुप्त लोक में ज्ञान के भंडार हैं जहाँ से ये रहस्य मिलते हैं। यह सुन शिष्य श्रीनिवासशास्त्री जैसे विद्वान भी व्यास आदि महान आत्माओं के दर्शन की लालसा से व्याकुल हो उठते थे।

केशवपुरी की इस कथा ने गुरु-शिष्य परंपरा में उत्सुकता पैदा की है। कई मानते हैं कि केशवपुरी कोई भौतिक स्थान न होकर एक सूक्ष्म हिमालयी लोक है जहाँ केवल योगबल से पहुँचा जा सकता है। कुछ आधुनिक योगी भी हिमालय में गुह्य सिद्ध क्षेत्रों (जैसे ग्यानगंज आदि) के होने का उल्लेख करते हैं। संत गुलाबराव महाराज ने अपने अनुभव से ऐसे ही किसी सिद्ध पीठ की बात की होगी। उन्होंने एक बार अपने एक भक्त बाबूगाडी को पत्र में लिखा: “मैं विभिन्न प्रकार के ज्ञान की बातें बताता हूँ तो कई लोग आश्चर्यचकित हो जाते हैं। पर कुछ बातों पर लोगों को अचरज होने से हानि भी हो सकती है” – मानो वे समझाना चाह रहे हों कि हर सत्य सभी को नहीं बताना चाहिए (संभवतः यही कारण था कि उन्होंने केशवपुरी ले जाने की शर्त ‘अधिकार’ पर रखी)। कुल मिलाकर, हिमालय के इस गुप्त स्थान से जुड़े अनुभव गुलाबराव महाराज के सबसे रहस्यमय और आश्चर्यजनक प्रसंगों में गिने जाते हैं। ये प्रसंग शिष्यों के हृदय में हिमालय की दिव्यता और हमारे ऋषि परंपरा की महिमा के प्रति गहरी श्रद्धा जगा गए।

निष्कर्ष

संत गुलाबराव महाराज का जीवन वास्तव में अलौकिक घटनाओं और अद्भुत उपलब्धियों का संगम था। एक ओर वे एक दृष्टिहीन बालक थे, तो दूसरी ओर “प्रज्ञाचक्षु” दिव्यदृष्टि वाले युगद्रष्टा थे। उन्होंने अनेकों ग्रंथों के माध्यम से ज्ञान की जो रोशनी फैलाई, वह अपने आप में बेमिसाल है। उनकी रचनाओं में ध्यान-साधना से लेकर वेदांत दर्शन तक, भक्ति-प्रेम से लेकर आयुर्वेद और विज्ञान तक, हर पहलू पर ऐसी गहन समझ मिलती है जिसे पढ़कर विद्वज्जन दंग रह जाते हैं। गुलाबराव महाराज ने अपने आध्यात्मिक अनुभवों को निस्संकोच साझा किया – चाहे वह बचपन की समाधि हो या पूर्वजन्म की झलक, ज्ञानेश्वर महाराज का दर्शन हो या केशवपुरी जैसे दिव्य लोक का रहस्य। ध्यान और योग की जिन शक्तिशाली विधियों की उन्होंने चर्चा की, वे आज भी साधकों को मार्गदर्शन देती हैं। उन्होंने सिखाया कि वास्तविक साधना हृदय में परमात्मा के प्रकाश पर केंद्रित होना है और दिव्य दृष्टि अथवा सिद्धियाँ आखिरकार आत्मिक उत्थान का साधन मात्र हैं।

गुलाबराव महाराज का व्यक्तित्व “मधुराद्वैताचार्य” के रूप में हमें यह संदेश देता है कि ज्ञान और भक्ति का अनुपम सम्मिलन संभव है – जहाँ आत्मा अद्वैत की एकता में स्थित रहकर भी प्रेम के माधुर्य का अनुभव करती है। भगवान कृष्ण के प्रति उनका अनन्य प्रेम और स्वयं को उनका दास-प्रिया मानने का भाव, भक्ति की पराकाष्ठा को दर्शाता है। इतनी कम आयु में उन्होंने जो ज्ञान भंडार रचा, वह आने वाली पीढ़ियों के लिये विरासत है। उनके मुख्य शिष्य बाबाजी महाराज पंडित ने उनके संदेश को आगे बढ़ाया और कई पुस्तकों द्वारा उसे प्रसारित किया। आज संत गुलाबराव महाराज के साहित्य का पुनर्मुद्रण और अध्ययन हो रहा है तथा विद्वानों द्वारा उस पर शोध किये जा रहे हैं। यह इस बात का प्रमाण है कि उनके विचारों में कितनी गहराई और दिव्यता है।

अंत में, संत गुलाबराव महाराज की गाथा से हमें यही सीख मिलती है कि सत्य ज्ञान और ईश्वर-प्रेम की कोई सीमा नहीं। दिव्य दृष्टि हो या अद्भुत योगशक्ति – इनका लक्ष्य मानवकल्याण और आत्मकल्याण होना चाहिए, दिखावा नहीं। उन्होंने अपने जीवन को एक “सुगंधित गुलाब” की तरह जिया जिसकी खुशबू दूर-दूर तक फैलकर लोगों का मार्गदर्शन करती रही। ऐसे अद्भुत संत को उनका यशस्वी पुण्यस्मरण नमन है। उनकी लेखनी और लीला-कथाएँ सदा हमें अध्यात्म के उच्च शिखरों की याद दिलाती रहेंगी।

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